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गुरुवार, 12 नवंबर 2009

क्षेत्रीयताओं का द्वंद समझने का समय



मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश की फैक्टरियों में बिहारियों के बजाय मध्यप्रदेश के लोगों को नौकरियां दिये जाने का बयान क्या दिया कि एक बार फिर तूफान खड़ा कर दिया गया । माहौल ऐसा बनाया जा रहा है कि जैसे कोई आसमान टूट पड़ा हो ।शीला दीक्षित से लेकर राज ठाकरे तक न जाने कितने बयानों को लेकर ऐसा माहौल बनाया गया कि जैसे देश खतरे में पड़ गया हो ।अंधाधुंध बिहारी आब्रजन के खिलाफ बोलना कुफ्र मान लिया गया है । बिहारी वर्चस्व वाला हिंदी मीडिया और बिहार के भ्रष्ट और अकर्मण्य नेता अक्सर इन घटनाओं पर आक्रामक प्रतिक्रिया और शोर मचाकर इसे राष्ट्रीय संकट में बदलते रहे हैं । यह उनकी रणनीति है कि कभी राज ठाकरे तो कभी शिवराज के रुप में वे बिहार के लिए एक अदद खलनायक का इंतजाम करते रहते हैं ताकि बिहार के असली खलनायक बिहारी क्षेत्रवाद की ढ़ाल के पीछे नायक बने रहें ।आखिर बिहार के बुनियादी सवालों के बजाय राज ठाकरे और शीला दीक्षित या शिवराज सिंह को गलियाने से बिहार में वोट मिल सकते हैं तो इसमें हर्ज क्या है ।
दरअसल हिंदी मीडिया खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया खुद क्षेत्रवाद के कीचड़ में इतना धंस चुका है कि उसमें आब्जेक्टेविटी गायब हो चुकी है । यदि ऐसा नहीं होता तो वह पंजाब , असम महाराष्ट्र और अब मध्य प्रदेश से आ रही बिहारी विरोधी आवाजों को राष्ट्र विरोधी करार देने पहले यह जरुर विश्लेषित करता कि विभिन्न भारतीय समाजों से एक ही समुदाय के खिलाफ क्यों ऐसी प्रतिक्रिया आ रही है ? क्यों इन समाजों का धैर्य चुक रहा है ? मीडिया के हमले और बिहारी नेताओं की हमलावर रणनीति से भले ही शीला दीक्षित या शिवराज को बचाव पर उतरना पड़ा हो पर सच्चाई यह है कि जिस बिहारीवाद विरोधी जिस वर्ग को ये नेता संदेश देना चाहते थे उसे उन्होने संबोधित कर लिया । बिहारियों के खिलाफ इन समाजों में प्रतिक्रिया तो पहले से ही मौजूद है , नेताओं ने तो उसे सिर्फ वाणी देकर मुद्दा बनाया ।यह बात आईने की तरह साफ है कि अनियंत्रित और अनियोजित बिहारी आब्रजन के खिलाफ विभिन्न समाजों में सतह के तले प्रतिक्रिया हो रही है और राजनीति तो उन भावनाओं पर सवारी गांठना चाहती है । पंजाब में यह प्रतिक्रिया पर्चे - पोस्टर चिपकाने के बाद चुनाव में लुधियाना जैसे शहरों में स्थानीय लोगों की पकड़ कम होने से आई तो महाराष्ट्र के चुनावों ने साबित कर दिया कि वहां बिहारी आब्रजक बड़े राजनीतिक सवाल बन चुके हैं ।दिल्ली में भी यही होने जारहा है तो असम में हिंसा के साथ प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है । मध्यप्रदेश में यह टकराव का रुप लेने की ओर है । इसमें जो नए प्रदेश भविष्य में जुड़ने वाले हैं उनमें राजस्थान और उत्तराखंड जैसे शांत राज्य भी शामिल हैं ।
जो लोग अंधाधुंध आब्रजन का समर्थन कर रहे हैं वे भारत और उसके समाजों को कितना जानते हैं , यह तो पता नहीं पर ये लोग न तो बिहारियों के हित में है और न देश के हित में है ।भारत एक संघीय गणराज्य है । इस देश को संघीय गणराज्य कोई संविधान ने नहीं बनाया ।भारत स्वभाव और संरचना से ही एक संघीय राष्ट्र है । सदियों के सफर के अनुभवों और जरुरतों ने विभिन्न रीति रिवाजों और मिजाजों के समाजों को अपनी विशिष्ट पहचान के साथ राष्ट्र की एक राजनीतिक ईकाई में पिरोया । भारतीय समाज में यह सामाजिक, सांस्कृृतिक विविधता सदियों से चली आ रही है । रंगों की इसी छटा से भारत बनता है । एक राष्ट्र के रुप में भारत के अस्तित्व की गारंटी भी यही विविधता देती है । क्योंकि यह हर समाज को अपने इलाकों में अपनी परंपराओं, मान्यताओं, रीति-रिवाजों के अनुरुप जीवन बसर करने की आजादी देती है ।अनेक राष्ट्रीयताओं , उपराष्ट्रीयताओं के संगम ने ही भारत जैसे बहुधर्मी ,बहुभाषी, बहुसांस्कृृतिक और विविधवर्णी राष्ट्रराज्य का निर्माण किया है । यह उसकी ताकत भी है और एक राज्य के रुप में उसकी सीमा भी । वह कोई एक ही गोत्र में जन्मे लोगों की मोनोकल्चर प्रजाति जैसी सरल सामाजिक संरचना नहीं है ।अपने क्षेत्र के आर्थिक और प्राकृतिक संसाधनों पर उस अंचल के मूल निवासियों का पहला अधिकार है ।यह अधिकार भारतीय संविधान भले ही न देता हो परंतु यह उनका जन्मजात और प्राकृृतिक अधिकार है और यह सदियों से चला आ रहा है । यह अधिकार अनुल्लंघनीय है और भारत की एकता की गारंटी भी ।
जो लोग संविधान के तहत दी गई कहीं भी बसने और रोजगार पाने के अधिकार के दैवी अधिकार की तरह प्रचारित कर बिहार से हो रहे भारी पलायन को औचित्य प्रदान करने की कोशिश कर रहे हैं उनसे निवेदन है कि संविधान अपने अस्तित्व के लिए जनता की इच्छा पर आश्रित है । जनादेश के बल और वैधता के बिना संविधान एक रद्दी के ढ़ेर में पड़ी किताब है । वह तभी तक प्रभावी है जब तक जनमत उसके साथ है । संविधान यदि देश और समाज की आकांक्षाओं से तालमेल नहीं बिठा पाएगा तो लोग उसे ही बदल देंगे ।लोगों की इच्छा के खिलाफ किसी कानून या संविधान का पालन सिर्फ दमन से संभव है ।क्या यह उचित होगा कि भारतीय राष्ट्र बिहार से बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन के कारणों का इलाज करने के बजाय उन समाजों का लाठी - गोली से इलाज करे जो अल्पसंख्यक होने और अपने संसाधनों पर औरों का कब्जा होने के डर से प्रतिक्रिया कर रहे हैं ?
किसी बाहरी तत्व के घुसने पर मानव शरीर भी स्वाभाविक प्रतिक्रिया करता है और एंटीबाॅडी बनाना शुरु कर देता है । शरीर का तापमान बढ़ जाता है और मेडिकल की भाषा में यह बुखार है । ऐसा सिर्फ शरीर के साथ ही नहीं होता बल्कि समाज और यहां तक कि प्रोफेशनल कहे जाने वाले व्यावसायिक और वाणज्यिक संस्थान भी इसी तरह से फारेन बाडीज का प्रतिकार करते हैं । इसलिए महाराष्ट्र ,असम या मध्यप्रदेश से आने वाली बिहारी विरोधी प्रतिक्रियाओं को राष्ट्रविरोधी कहकर प्रचारित कर रहे हैं उन्हे जानना चाहिए कि ये समाज आर्थिक ,राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक बुखार से तप रहे हैं ।इन समाजों को सहानुभूति और केयर की जरुरत है ।उनके भयों और चिंताओं को संबोधित करना होगा । हिंदी मीडिया और बिहार के नेताओं की दुत्कार से यह रोग गंभीर होगा और एक दिन लाइलाज होकर भारतीय राष्ट्रराज्य के लिए खतरा बन जाएगा ।दुख की बात यह है कि हिंदी हार्ट लैंड से समझदारी के स्वर गायब हैं और वे बिहारियों को रोकने वाले मराठियों , मध्यप्रदेशियों, असमियों का सर मांग रहे हैं ।
परंतु अब समय आ गया है कि पलायन को प्रोत्साहित करने वाली राजनीति के मंतव्य समझे जांय और उसे हतोत्साहित किया जाय ।वैज्ञानिक रुप से हर राज्य और शहर की मानव भार वहन करने की क्षमता तय की जाय और उसी के अनुरुप राज्यों या शहरों में आबादी के प्रवाह को नियंत्रित किया जाय । यदि ऐसा नहीं हुआ तो हिंदुस्तान के शहर नरक में बदल जायेंगे और उनके नागरिक जीवन को संचालित करना असंभव हो जाएगा ।दरअसल आब्रजन को लेकर जितना भी शोर उठा है वह बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश से अस्सी के दशक से बड़े पैमाने पर शुरु हुए पलायन की प्रतिक्रिया है ।आर्थिक उदारीकरण ने लोगों के जीवन को ज्यादा संकटपूर्ण बनाया है और उन्हे जानलेवा प्रतिस्पर्धा में झोंक दिया है । इसने नए सामाजिक - आर्थिक तनावों को जन्म दिया है । आज का हर समाज 1980 के मुकाबले ज्यादा चिड़चिड़ा और तुनुक मिजाज हुआ है ।आर्थिक रुप से उपयोगी प्राकृतिक संसाधनों और रोजगार के अवसरों को लेकर जंग तीखी और हिंसक होती जा रही है । बड़े समाजों की आक्रामकता के खिलाफ छोटे समाज लामबंद हो रहे हैं ।भारत कृत्रिम एकात्मकता से संघीय चरित्र और बहुलतावाद की ओर प्रस्थान कर रहा है ।
जब दुनिया के हर राष्ट्र को आब्रजकों की तादाद तय करने का अधिकार है तो हर राज्य को अपनी आबादी के अनुपात और जरुरत के हिसाब से यह तय करने का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए कि उसे कितनी संख्या और किस श्रेणी का मानव संसाधन चाहिए ।
उत्तराखंड,बिहार और पूर्वी यूपी समेत भारत में पलायन के जो भी मुख्यालय रहे हैं वहां रहन-सहन की स्थितियां बेहद खराब, रोजगार के साधनों का अभाव और गरीबी का साम्राज्य रहा है ।यह स्थितियां इन राज्यों के राजनीतिक नेतृत्व के भ्रष्टाचार, निकम्मेपन और स्वार्थी राजनीति के कारण पैदा हुई हैं । इन राज्यों का नेतृत्व अपने नागरिकों को गरिमामय जीवन और जीने की बेहतर परिस्थितियां देने में पूरी तरह विफल हुआ है ।अब सवाल उठता है कि पूर्वी यूपी या बिहार के नेताओं और सरकार की विफलता दंड महाराष्ट्र या मध्य प्रदेश , असम या किसी और राज्य के लोग क्यों भुगतें ? वे अपने रोजगार और अन्य साधनों पर हमले क्यों सहें ? अक्सर यह देखने में आता है कि जैसे ही राज ठाकरे या कोई और बाहरी लोगों के खिलाफ बयान देता है तो बिहार और पूर्वी यूपी के नेता आसमान सर पर उठा देते हैं ।पंजाब से लेकर राजस्थान तक कोई प्रतिक्रिया नहीं होती । साफ है कि इन दो इलाकों के नेता पलायन को जारी रखना चाहते हैं ताकि वे अपनी जनता को सुशासन और बेहतर जीवन देने के झंझट से बचे रहें ।सच यह है कि यदि बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश में जमीन का न्यायसंगत पुनर्वितरण हो जाय तो सारा पलायन रुक जाय ।क्योंकि पलायन करने वालों में अधिकांश गरीब हैं जो सामाजिक- आर्थिक कारणों से बाहर जा रहे हैं ।यदि इन इलाकों में हरित क्रांति के प्रयास युद्धस्तर पर किए जांय तो वहां भी पंजाब की तरह समृद्धि की कथा लिखी जा सकती है ।जाहिर है कि ये कठिन काम हैं जबकि राज ठाकरे को गाली देना आसान है । इससे बिहारी व पूरबिया क्षेत्रवाद भी भड़कता है और उससे वोट भी मिलता है । इस काम में इन नेताओं की मदद के लिये सवर्ण प्रभुत्व वाला हिंदी मीडिया भी जुट जाता है ।बिहार और पूर्वी यूपी की कृषि के सामंती ढ़ांचे के बने रहने में मीडिया के भी अपने स्वार्थ हैं ।
यह आश्चर्यजनक और अफसोसनाक है कि हिंदी मीडिया और बिहार व पूरब के नेता इस अंधाधुंध पलायन पर उंगुली उठाने या उसे रोकने वाली हर कोशिश को आनन फानन में देशद्रोह घोषित कर देते हैं ।पूछा जा सकता है कि क्या देश का मतलब सिर्फ बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश है ? यदि यही देश हैं तो ऐसे देश से भारत को खतरा है ।जो लोग अंधाधुंध आब्रजन का समर्थन कर रहे हैं वे भी क्षेत्रवादी आग्रहों के कारण ही ऐसा कर रहे हैं ।हद तो यह है कि ये क्षेत्र नेता भी निर्यात कर रहे हैं फिर बाकी समाजों के नेता क्यों नहीं विरोध करेंगे ? यदि गणेश उत्सव की प्रतिक्रिया में छठ उत्सव का राजनीतिकरण किया जाएगा तो प्रतिक्रिया क्यों नहीं होगी ? यदि बिहारी या पूर्वी यूपी के प्रवासी मराठी विरोध या अपनी अलग क्षेत्रीय राजनीतिक पहचान के लिए किसी अबु आजमी या कृपाशंकर को चुनेंगें तो सामान्य सोच का मराठी उनसे खतरा क्यों नहीं महसूस करेगा ? वह अपनी जमीन पर किसी और का राजनीतिक प्रभुत्व क्यों स्वीकार करेगा ? उसने महाराष्ट्र के निर्माण की लड़ाई कोई बिहार और पूर्वी यूपी के नेताओं के लिए थोड़े ही लड़ी है ।यह कैसे हो सकता है कि मीडिया और बिहार के नेता क्षेत्रवाद की राजनीति करते रहें और बाकी समाज देशहित में चुपचाप बैठे रहें ? यह स्वाभाविक है कि जैसी राजनीति आप करेंगे वैसा ही जवाब आपको मिलेगा ।
हमें इस सच को स्वीकार करना होगा कि कोई भी समाज अपने संसाधनों व रोजगार पर हमला बर्दाश्त नहीं करेगा और न ही अपनी भूमि पर अल्पसंख्यक होने की नियति स्वीकार करने को तैयार होगा ।आधुनिक लोकतंत्र के मक्का कहे जाने वाले पश्चिमी देशों तक में हिंसक प्रतिक्रियायें होने लगी हैं । यह इस बात का द्योतक है कि हर समाज एक निश्चित सीमा में ही बाहरी लोगों को बर्दाश्त कर सकता है । तिब्बत और पूर्वी तुर्किस्तान के मूल निवासियों को अल्पसंख्यक बनाने की चीनी नीति यदि गलत है तो ऐसी कोशिशें भारत में सही कैसे हो सकती है ? त्रिपुरा का उदाहरण सामने है जहां मूल निवासी अल्पसंख्यक हो गए और वे त्रिपुरा उपजाति समिति के तहत हिंसक आंदोलन करते रहे हैं । वहां माकपा का आधार माक्र्सवाद नहीं बल्कि बंगाली क्षेत्रवाद है । अन्य राज्यों में मूल निवासी अल्पसंख्यक हुए तो वे भी क्या हिंसक प्रतिरोध की ओर नहीं जायेंगे ? यह दुखद है कि हिंदी मीडिया भी इसे हवा दे रहा है । उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने एक ट्रेन मे महाराष्ट्र के निवासियों को खोज-खोज कर बेल्टों से पीटा । महाराष्ट्र में ऐसी ही घटना पर ‘‘राज के गुंडे’’ जैसे आक्रामक जुमले इस्तेमाल करने के लिए कुख्यात किसी हिंदी चैनल ने इसे गुंडागर्दी करार देना तो दूर ढंग से रिपोर्ट तक नहीं किया । राजठाकरे के खिलाफ अपने संपादकीयों में जहर उगलने वाले हिंदी अखबारों ने एक भी संपादकीय सपा की करतूत पर नहीं लिखा ।यह हिंदी मीडिया का अघोषित क्षेत्रवाद नहीं है तो क्या है ? यह अजीब रस्म है कि एक समुदाय क्षेत्रवाद चलाए तो सही और बाकी आत्मरक्षा में क्षेत्रवाद करें तो गलत ।वो कत्ल भी करें.....
मीडिया का यह क्षेत्रवाद हाल में अबु आजमी प्रकरण से भी नंगा हुआ है ।आजमी पर मनसे के विधायकों के हमले की रिपोर्टिंग पूरी तरह से विषाक्त और एकपक्षीय रही । न्यूज चैनलों में तो सदा की तरह इस पर भी हाहाकार मचा रहा । उनके यहां तो यह मुद्दा पाकिस्तान के हमले जैसा राष्ट्रीय संकट बना रहा । अखबारों ने भी पत्रकारिता की मर्यादाओं को लांघ दिया । उत्तर भारत के एक प्रमुख दैनिक ने शीर्षक दिया,‘ हिंदी पर हमला ’ दूसरे ने भी कुछ ऐसी ही भड़काऊ हैडिंग लगाई । इन हैडिंगों को देखकर अयोध्या में कारसेवकों पर हुए गोलीकांड के दौरान की गई सांप्रदायिक रिपोर्टिंग याद आ गई ।अबु आजमी हिंदी मीडिया के नए हीरो हैं क्योंकि वह अंग्रेजी के नहीं बल्कि मराठी के विरोधी हैं । हिंदी को भारतीय भाषाओं के खिलाफ खड़ा करने की इन साजिशों के कामयाब होने से हिंदी को ही घाटा होगा ।मराठी के विरुद्व हिंदी के लिए शोर मचाने वाला हिंदी मीडिया उन फिल्मी सितारों के आगे तो बिछा रहता जो नमक तो हिंदी का खाते हैं और मीडिया से बात अंग्रेजी में करते हैं ।किसी हिंदी अखबार या हिंदी चैनल ने हिंदी के साथ नमकहरामी करने वाले इन सितारों को छापने या टेलिकास्ट करने से इंकार नहीं किया ।
हिंदी के नाम पर हिंदी मीडिया के उन्माद के कोरस में सुधीश पचौरी का शामिल होना चकित करता है । उन्होने तो आजमी को मराठी के विरुद्ध हिंदी के धर्मयुद्ध का योद्धा तक घोषित कर दिया ।गनीमत है कि उन्होने आजमी को आज का लोहिया नहीं बताया । । राजनीति की वैतरणी पार करने के लिए हिंदी की पूंछ पकड़ने वाले आजमी किस किस्म के नेता हैं यह कौन नहीं जानता ।हिंदी को महाराष्ट्र में जिंदा रहने के लिए आजमी या किसी नेता की जरुरत पड़े ईश्वर करे ऐसा दिन हिंदी के इतिहास में कभी न आए ।हिंदी महाराष्ट्र में आजमी के लिए नहीं बल्कि अपने समृद्ध साहित्य व भाषायी सौंदर्य के लिए जानी जाय , पढ़ी जाय और उससे आम मराठी इसलिए नफरत न करें कि वह आजमी जैसे नफरत की राजनीति करने वाले नेताओं की भी भाषा है , काश! ऐसा हो ।पत्रकारिता की बुनियादी सिद्धांतों को ताक पर रखने वाले हाहाकारी हिंदी मीडिया को 10 नवंबर 09 के मराठी अखबार जरुर पढ़ने चाहिए जिनमें हिंदी को लेकर बबाल मचाने पर मनसे की लानत- मलामत की गई है ।पत्रकारिता का धर्म अखबार बेचने के लिए उन्माद पैदा करना नहीं है ।जो ऐसा कर रहे हैं वे अपने बाजारु स्वार्थ के लिए देश की एकता तोड़ रहे हैं और देशद्रोह इसी को कहते हैं ।इस सारी बहस का मतलब यही है कि क्षेत्रीयता और छोटे समाजों के मनोविज्ञान को समझा जाय और उनके द्वंदों को संबोधित करते हुए पलायन और आब्रजन पर कोई राष्ट्रीय नीति बने ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. घटिया लेख पर टिपण्णी करनी उचित नहीं |

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  2. mahasay aap ne bhale hi netao ko i-ana dihKA NE KI KOSIs ki ho lekin aap ko v i-ana dekhne ki sakth jarurt hai.kisi ko is tarah gariyana aapke paas kudrati kahajana ha. lekin agar uska sahi istemal karte to aap kahi aachi jagah hote. is tarh blogbaji na karte.............. hindi ke liye ladna aaj jaruri ho gaya hai........... ye aap nahi amjhte... kyonki aap ko to kalam ghasni hai......... jyada jya likhyon aap to samajdar ho......... lage raho jai ram ji ki........aap ki lekhni choor pan dikh rarha hai............

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