Powered By Blogger

मेरी ब्लॉग सूची

यह ब्लॉग खोजें

फ़ॉलोअर

पृष्ठ

कुल पेज दृश्य

लोकप्रिय पोस्ट

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

बदल रही है युवा सपनों की तासीर

चकराता। बर्फ से ढ़के पहाड़ और हरे भरे जंगलों के ऐसे दृष्य कि आप अपनी सुध बुध खो बैठें। जिन्हें स्वर्ग बहुत लुभाता है, वे इसे स्वर्ग से सुंदर कह दें तो भी इंद्र की शान में गुस्ताखी नहीं होगी और न मेनका और रंभा जैसी वे अप्सरायें नाराज होंगी जो स्वर्ग को उसकी दिव्यता के बीच मानवीय बनाती हैं। कभी-कभी लगता है कि मैदान की गर्मियों से त्रस्त होकर ईश्वर ने चकराता के सुंदर पहाड़ बनाये होंगे। जौनसार का समाज कई मायनों में अनूठा है। गढ़वाल के पहाड़ी समाज से अलग इसका अपना खास रंग है। यह समाज सदियों से बाहरियों को लुभाता रहा है, और कहावतें बनती रही कि जो जौनसार गया वह फिर कभी लौटा नहीं। बाहर से देखने वालों के लिए वह आश्चर्य में लिपटा रहस्यमय लोक बना रहा। किस्से और दंतकथाएं रहस्य की इन परतों को और भी गहरा करती रही। आजादी की आधी सदी गुजर चुकी है लेकिन चकराता अभी भी विकास का ककहरा पढ़ रहा है। अलबत्ता उसके नेता भ्रष्टाचार की विधा में पारंगत हो गए हैं। अपने आप सिमटा, सकुचाया रहने वाला जौनसारी समाज भी बदलाव की अंगड़ाई ले रहा है। उसके भीतर मौजूद आत्मविश्वास अब बोलने लगा है। दरअसल जब सपने बदलते हैं तो समाज भी बदलते हैं। यह किस्सा सपने बदल जाने का ही है।
चकराता के पास एक छोटा सा गांव है। आम पहाड़ी गांव की तरह। करीने से लगे देवदार के जंगल, पहाड़ी ढ़लान पर छोटे-छोटे पर हरे-भरे खेत और सामने दिव्य हिमालय। सदियों से मौसम की विभीषिकाओं, आपदाओं की त्रासदियों के बीच निरे आम लोगों ने इस गांव को एक सुंदर भू-दृश्य में बदला है। उन्हीं आम-अनाम लोगों के श्रम की गंध से इस गांव के खेत और मकान आज भी महकते हैं।
हर गांव की तरह गांव के पास परंपराओं की अपनी बेडियां हैं। परंतु परंपराओं की जकड़न के बीच हर नई पीढ़ी अपने लिए आकांक्षाओं के नए आकाश चुनती है। परंपराओं की बेडियां ढ़ीली पड़ती हैं और मानव सभ्यता थोड़ा आगे सरक जाती है। इसी गांव की एक लड़की है नीलम चौहान। खास बात यह थी कि नीलम को सपना देखना भी आता था और उसके पास वह जिद भी थी जो सपनों को धरती पर उतारने के जरूरी होती है। नीलम का परिवार संयुक्त परिवार है, इतना बड़ा परिवार कि दिल्ली-मुम्बई के लोगों को यह परिवार नहीं बल्कि बारात जैसा लगे। ६० लोगों का परिवार। चकराता के इर्द-गिर्द के इलाके में दूसरा सबसे बड़ा परिवार है। जितना बड़ा परिवार, रिश्तों के धागे में उतने ही गहरा गुंथा हुआ। इतने बड़े परिवार को यदि एक रखना है तो जाहिर है कि परंपराओं और अनुशासन की सख्त चाबुक भी चाहिए होगी। कई पुरूषों और उनकी हां में हां मिलाने वाली महिला सदस्यों के इस भरे-पूरे परिवार में एक किशोर लड़की शादी के सिवा दूसरा सपना देखे भी तो कैसे? पर नीलम ने यह गुस्ताखी कर ही डाली। नीलम ने यदि डाक्टर, इंजीनीयर या टीचर वगैरह बनने का सपना देखा होता तो घर में तूफान न मचा होता, लेकिन परंपराओं में जकड़े समाज ने फैशन को कैरियर बनाना तो किसी कुफ्र से कम न था। सबसे मुश्किल यह थी कि इस लड़ाई में उसके सामने कोई पराये नहीं थे। जिनके खिलाफ उसे अपनी आवाज बुलंद करनी थी, वे सारे के सारे अपने ही थे। वही ताऊजी जिनकी उंगली पकड़ कर उसने चलना सीखा तो वही चाचा-चाचियां जिनके दुलार से राजकुमारी की तरह इतराती थी। यह कठिन परीक्षा थी परंतु घर के इस विरोध में उसके पिता और मां उसके साथ खड़े रहे। एक दिन पूरे गांव ने आश्चर्य के साथ देखा कि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध की परंपरा में रह रहे समाज की एक लड़की मॉडलिंग के वर्जित क्षेत्र में चली गई। पूरा गांव जैसे डोल गया।
किसी को लगा कि उनका समाज जैसे तहस-नहस हो जाएगा। गांव की बूढ़ी औरतों के लिए यह घोर कलयुग के आने का शंखनाद था। अनर्थ की इन बूढ़ी आशंकाओं के बीच नीलम मिस दून चुनी गई तो उसके सपनों को जैसे पंख लग गए। यह उस सपने की भी जीत थी जो लालटेन की रौशनी में ठेठ पहाड़ी गांव में देखा गया था। इसके बाद नीलम ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और अक्सर होने वाले फैशन शोज में वह सबसे पसंदीदा चेहरा बन गई। आज नीलम एक प्रतिष्ठित एयरलाइंस में एयर होस्टेस है। वह जब गांव लौटती है हमउम्र और किशोर लड़कियां उसे आश्चर्य मिश्रित कौतुहल के साथ देखती हैं कि वह उन्हीं में से एक है क्या! आज उसके संयुक्त परिवार को नीलम पर नाज है। नीलम को देखकर उसके गांव और आसपड़ोस के गांव की लड़कियों की आंखों में सपने जगमगाने लगे हैं। सपने संक्रामक रोग की तरह होते हैं। वे लोगों की शिराओं में दौड़ते हैं, उन्हें भीतर ही भीतर बदल डालते है। दुनिया की हर क्रांति से पहले भी सपने ही शिराओं में दौड़ते हैं। फर्क फकत इतना ही है कि क्रांतियां गर्जना करती हैं, लेकिन समाजों के भीतर बदलाव बहुत धीमे, बेहद आहिस्ता-आहिस्ता होते हैं। बसंत की तरह दबे बदलाव समाज की शिराओं में दाखिल होता है और किसी दिन पूरे समाज का रंग-ढ़ंग बदल देता है जैसे बसंत पूरे जंगल को बदल देता है।
नीलम को मुग्ध भाव से देखने वाली ग्रामीण लड़कियों के भीतर भी ग्लैमर की दुनिया में जाने हसरतें हिलोरे ले रही हैं, लेकिन उन इच्छाओं पर वर्जनाओं के पहरे भी हैं। इन सबके बीच नीलम सिर्फ लड़की भर नहीं है। वह उत्तराखंड की लड़कियों की इच्छाओं का चेहरा है, जिनके सपनों का रंग बदल रहा है। पिछले दशकों का वह दौर अब पीछे छुटता जा रहा है जब लड़कियां बीटीसी और बीएड कर सरकारी स्कूलों में टीचर हो जाना चाहती थी। स्कूल में स्वेटर बुनती अध्यापिकाओं के चित्र लड़कियों के दिमाग में दर्ज रहते थे। मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों की लड़कियां अक्सर ऐसा ही कोई सपना देखा करती थी। यह उस समय का सपना था, जो आमतौर पर मध्यवर्ग और निम्न मध्य वर्गीय परिवारों की लड़कियां देखा करती थीं। हालांकि एक छोटी संख्या में लड़कियां डाक्टर, इंजीनियर बनने जैसा सपना तब भी देख रही थी, लेकिन यह आम सपना नहीं था। पिछले पांच-सात सालों में युवाओं और युवतियों में सपनों के स्तर पर बदलाव आए हैं। सिर्फ माता-पिता या परिवार वालों की इच्छा पर आंख मूंदकर बीए, बीएससी या बीकाम करने वाली पीढ़ी धीरे-धीरे कम होती जा रही है। आज के युवा और युवतियां अपनी पसंद के विषय चुनने के जिद भी कर सकते हैं और वे अपने तर्कों से परिजनों को अपनी पसंद मनवाने का माद्दा भी रखते हैं। परिवारों के भीतर पिता की सत्ता कमजोर हो रही है। परिवारों के भीतर लड़कियां भी हाशिये पर नहीं हैं। वे भी बराबरी की ओर बढ़ रही है। यह जो बदलाव है वह भी आज के युवा वर्ग की आकांक्षाओं के दबाव से ही पैदा हुए हैं। इस बदलाव को परिवार नाम की संस्था के ज्यादा लोकतांत्रिक होने का भी लक्षण माना जा सकता है।
हम अपने सामने जो पीढ़ी देख रहे हैं, वह बिल्कुल वैसी नहीं है, जो हमें बीसवीं सदी के नवें और आखिरी दशक के शुरूआती सालों में दिखाई देती है। उस पीढ़ी और मौजूदा पीढ़ी के सपनों का रंग काफी अलग है। दरअसल बीसवीं सदी के आखिरी सालों में जब आर्थिक उदारीकरण के नतीजे आने लगे तब से हम एक नई तरह की युवा पौध देख रहे हैं। यह पौध आत्मविश्वास में पिछली पीढ़ी से आगे है ही, लेकिन उससे कई गुना ज्यादा महत्वाकांक्षी भी है। उसमें आठवें और नवें दशक के युवा की तरह सरकारी नौकरी हासिल कर जीवन को आराम से गुजारने की ललक की जगह निजी क्षेत्र की नौकरियों का जोखिम उठाने का साहस है। लड़कियां मॉडलिंग, एयर होस्टेस से लेकर होटल मैनेजमेंट तक उन पाठ्यक्रमों में जाना पसंद कर रही है, जिनका जिक्र करते हुए भी आठवें व नौवें के दशक युवतियां घबरा जाती थी। यही बात आज के युवाओं पर भी लागू होती है। वे आगे बढ़ने के लिए जो जोखिम उठाने को तैयार हैं, उत्तराखंड के परंपरांगत समाज के नजरिये से देखें तो यह अहम बदलाव है। युवाओं की मनोदशा में आज यह बदलाव जब-तब सवर्णों के भीतर अंतर्जातीय विवाहों की शक्ल में भी सामने आ जाता है। धीरे-धीरे अंतर्जातीय विवाह भी बढ़ रहे हैं, और अब ऐसे विवाहों में परिवार की नाराजगी के बजाय भागीदारी बढ़ रही है।
हम अपने समय की ऐसी महत्वाकांक्षी पीढ़ी को देख रहे हैं, जो अपनी उपस्थिति भी जता रही है और अपने इरादों को लेकर मुखर भी है। लेकिन वे विशेषताएं मौजूद युवा पीढ़ी को खास बनाती है। यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि उन पर अपनी पूर्ववर्ती पीढियों से कहीं ज्यादा उम्मीदों का बोझ है।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

छोटे दल, मनमोहन का डर

जब से बाईपास सर्ज्ञरी हुई है तब से सुस्त और उदासीन से दिखने वाले मनमोहन सिंह पूरी फारम में लौट आए हैं। उनके दिल को खून की आपूर्ति क्या बहाल हुई कि वह ताबड़तोड़ हमले करने में जुट गए हैं। दिल जब आपका साथ देता है तो मनमोहन भी आडवाणी को ललकार सकते हैं। चुनावी ललकारों के बीच मनमोहन ने क्षेत्रीय दलों को देश के लिए नुकसानदेह बताकर एक नई बहस को जन्म दिया है। यह मनमोहन का राजनीतिक अग्यान भी है कि वह इस देश और उसके विभिन्न समाजों के बारे में कितना कम जानते हैं।

पीएम की इस टिप्पणी के जवाब में देश भर से कई प्रतिक्रियाएं आईं जिनमें मनमोहन की आलोचना की गई थी। दरअसल क्षेत्रीय दलों के चरित्र पर बहस शुरू करने से पहले मनमोहन के इस बयान के निहितार्थ समझे जाने चाहिए। भारतीय राजनीति में 1966 को एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जाना चाहिए। 1962 के भारत चीन युध्द में हुई हार से नेहरू और कांग्रेस का पतन शुरू हो गया। विकल्प के अभाव और नेहरू जैसे व्यक्तित्व के कारण कांग्रेस की लोकप्रियता में पड़ रही दरारें दिखाई नहीं दे रहीं थी लेकिन वक्त की धूप, हवा और पानी ने इस किले को भीतर और बाहर दोनों ओर से खाना शुरू कर दिया था। 1964 में नेहरू के अवसान के साथ कांग्रेस की रक्षा करने वाली उनकी विराट छवि भी न रही। १९६७ आते-आते उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक कांग्रेसी किले में पड़ रहीं दरारें दिखने लगी थी। इंदिरा गांधी के उदय से कांग्रेस की विशाल इमारत का दरकना रूक गया। इंदिरा के करिश्मे ने कांग्रेस से मोहभंग की प्रक्रिया को रोक दिया। लेकिन यह इतिहास की विडंबना ही है कि उसी इंदिरा गांधी की इमरजेंसी ने इस प्रक्रिया को आंधी में बदल दिया। 1977 में कांग्रेस की अजेयता को जो चुनौती मिली वह 1989 में दोहराई गई और फिर लगातार दोहराई जा रही है। बीसवीं सदी के आखिरी दशक को भारतीय राजनीति में आये सबसे बुनियादी बदलाव के लिए रेखांकित किया जाना चाहिए। यह वही दशक था जब न केवल भारत का प्राकृतिक मौसम बदल रहा था बल्कि देश की राजनीतिक आबोहवा भी बदल रही थी। देश की राजनीति की भाषा व्याकरण में भी बुनियादी बदलाव तो आए ही साथ ही राष्ट्रीय राजनीति से एकाधिकार का युग भी विदा हो गया।
21वीं सदी में हम जिस राजनीतिक भारत का नक्शा देख रहे हैं वह न तो कांग्रेसी और न ही भगवा रंग में रंगा हुआ है। यह ऐसा बहुरंगी भारत है जिसमें पूर्वोतर से लेकर सुदूर दक्षिण तक मौजूद जातियां और क्षेत्र अपने-अपने रंगों के साथ उपस्थित हैं। मनमोहन सिंह की मुश्किल यह है कि वह ऐसा भारत चाहते हैं जो भले ही जातियों क्षेत्रों और आर्थिक आधार पर विभिन्न स्तरों पर विभाजित हो लेकिन राजनीतिक रूप से वह एक रूप हो। दरअसल कांग्रेस को 1952 वाला भारत चाहिए तो भाजपा कांग्रेस वाले भारत में भगवा रंग भरकर अपने वाला एक रूप भारत चाहती है। यानी ठीक वैसा भारत जैसा आरएसएस के बंच आफ थाट्स में लिख दिया गया है। लेकिन इस देश के साथ मुश्किल यह है कि यह न तो कांग्रेस और न भाजपा की राजनीतिक भाषा, व्याकरण में बोल रहा है। 21वीं सदी के राजनीतिक भारत की सामाजिक- राजनीतिक आकांक्षाएं अपने-अपने सुरों में बोल रही हैं। अगर ये सुर मनमोहन को रास नहीं आ रहे हैं तो यह उनकी राजनीति और समझ की समस्या है न कि भारतीय समाज की। मनमोहन को जानना चाहिए कि भारत को यदि एक संघीय गणराज्य बनाने का संविधान निमार्ताओं का निर्णय आखिर यूं ही हवा-हवाई नहीं था। वे जानते थे कि भारतीय समाज जापानियों अंग्रेजों या जर्मनों की तरह सपाट समाज नहीं है। भाषा, जातियां, धार्मिक विश्वास़, भूगोल और संस्कृतियां भारतीय समाज को कई राष्ट्रीयताओं और उपराष्ट्रीयताओं में बांटते हैं। हम भारत नाम के जिस राष्ट्र राज्य को प्रशासनिक तौर पर देख रहे हैं वह दरअसल इन्हीं विभिन्न वर्णी समाजों का संघीय रूप है। भारतीय संविधान ने इस सच्चाई को स्वीकार कर इसे एक प्रशासनिक ईकाई बनाया है। इससे पहले भी अंग्रेजों से लेकर अकबर तक और उससे पहले के मध्यकालीन भारत में भी जो भी साम्राज्य आए उन्होंने अपने माताहत रियासतों की पहचान में कोई छेड़खानी नहीं की। इसलिए मनमोहन सिंह को यह जानना चाहिए कि वह भारत के विभिन्न समाजों की राजनीतिक पहचानों में जिन विविधताओं से हैरान हैं वह दरअसल भारत के डीएनए में है। 1952 से 1962 के एक दशक में यह विविधता भले ही नेहरू गांधी के करिश्मे में ढंक गई हो लेकिन तब भी इसकी अंतर्धाराएं लगातार मौजूद रहीं। कांग्रेस के पुण्यों और करिश्मे का ग्लेशियर जैसे ही पिघलने लगा तो द्रविड़ से लेकर मलयाली बंगाली तक सारी अंतर्धाराएं दिखने लगीं। मनमोहन जिन राजनीतिक शक्तियों के उभार से परेशान हैं वे सारी की सारी गैर कांग्रेसवाद की कोख से जनमी हैं। कांग्रेस की विफलताओं ने ही गैर कांग्रेसवाद जैसी नकारात्मक राजनीति को विचारधारा में बदल दिया। छोटे दलों के उभार पर मनमोहन को शिकायत करने का नैतिक अधिकार नहीं है। मनमोहन छोटे दलों के उभार से इसलिए भी नाराज हैं क्योंकि इन दलों के कारण ही वह अपने उस आर्थिक एजेंडे को पूरी तरह लागू नहीं कर पा रहे हैं जो विश्व बैंक़, डब्लूटीओ और बहुराष्ट्रीय कंपनियां चाह रही हैं। हालांकि वह काफी हद तक भारत की परंपरागत अर्थव्यवस्थाकी रीढ तोड़ने में कामयाब रहे हैं लेकिन यह उतनी तेजी से नहीं हो पा रहा है जितना कि उदारीकरण के मालिक लोग अपने भारतीय कर्मचारियों से चाह रहे हैं।
दरअसल उदारीकरण की सबसे बड़ी चैंपियन पार्टियां कांग्रेस और भाजपा देश में अमेरिका की तरह दो दलीय लोकतंत्र चाहती हैं। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि विश्व बैंक़ डब्लूटीओ भी यही चाहते हैं क्योंकि दो दलीय लोकतंत्र को अमेरिका की तरह कारपोरेट लोकतंत्र में बदला जा सकता है। कांग्रेस और भाजपा कारपोरेट हितों की रक्षा करने में अपने कौशल को साबित कर चुकी हैं। इसलिए भारतीय हो या विदेशी कारपोरेट जगत यही चाहता है कि चुनाव कांग्रेस और भाजपा के बीच सीमित हो जाए ताकि ऐसे दल सत्ता में न आ सकें जिन पर वोटर का करीबी नियंत्रण है। छोटे दलों का अस्तित्व ही चूंकि लोकप्रियतावादी नीतियों पर टिका है इसलिए समर्थकों की प्रतिक्रियाओं से भी इन दलों की नीतियां बनती-बिगड़ती रहती हैं। तो मनमोहन अकेले नहीं है और न ही हेडगेवार अकेले थे जिन्हे गंजे की तरह सपाट भारत चाहिए था वह अकेले नहीं जिन्हें गरीब और अमीर की वर्गीय विविधता वाला भारत तो चाहिए लेकिन राजनीतिक रूप से सपाट देश चाहिए। लेकिन इन महानुभावों की त्रासदी यह है कि वे देश नहीं चुन सकते इसलिए विधवा विलाप करते हुए भी उन्हें इसी भारत में रहना है।

लेकिन इन तर्कों में देश के छोटे दलों की राजनीति का औचित्य साबित करने का खतरा भी छुपा है। दरअसल भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का उभार दक्षिण भारत से शुरू हुआ जहां द्रविड़ राजनीति के सूत्रधार के रूप में डीएमके, एआईडीएमके, टीडीपी ने अपना सफर शुरू किया। लेकिन अब भारतीय राजनीति में छोटे दलों की भरमार है। बीसवीं सदी के नवें दशक और 21वीं सदी के पहले दशक में इन छोटे दलों में से अधिकांश ने केंद्र और राज्य स्तर पर गठबंधन की जो राजनीति की है वह भारतीय राजनीति में अवसरवाद की पराकाष्ठा है। भारतीय राजनीति के बहुध्रुवीय और विकेंद्रीयकृत होने की जो उम्मीद इन छोटे दलों से जगी थी उसे इस अवसरवाद ने चूर-चूर कर दिया। इनमें से कई छोटे दलों ने यह भी साबित कर दिया की बौने नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की निकृष्ट अभिव्यक्ति हैं। इनमें से अधिकांश दलों ने अपने आचार- व्यवहार और राजनीति से ऐसा कुछ भी साबित नहीं किया जिससे यह लगे कि देश और दुनिया के बारे में इन दलों का अपना कोई नजरिया है। देश और दुनिया के बारे में न कोई समझ, न कोई सपना, अधिकांश छोटे दलों के बारे में सच्चाई यही है। इसलिए इन दलों को कभी भाजपा, कभी कांग्रेस तो कभी कम्युनिस्टों के साथ गठबंधन करने में न झिझक महसूस होती है और न शर्म ही आती है। इस वैचारिक अराजकता और परले दर्जे की सत्तालिप्सा ने ही कांग्रेस और भाजपा को छोटे दलों के खिलाफ माहौल बनाने का मसाला दिया है। देश में मध्यवर्ग के एक हिस्से में कांग्रेस और भाजपा का यह प्रचार असर भी दिखा रहा है। छोटे दलों की यह विफलता देश को दो दलीय राजनीति की ओर ले जाएगी जिसके नतीजे देश के लिए खतरनाक होंगे । क्योंकि आर्थिक नीतियों से लेकर भ्रष्टाचार सत्ता के चरित्र तक ये दोनों दल एक दूसरे के क्लोन हैं। अंतर इतना ही है कि भाजपा में भगवा रंग वाला डीएनए थोड़ा गाढे रंग और कांग्रेस में यह डीएनए हल्के भगवे रंग का है।
दुर्भाग्य से यदि राजनीति कांग्रेस और भाजपा तक सीमित हुई तो ये दोनों दल सड़क से लेकर संसद तक फ्रेंडली मैच खेलेंगे और हर पांच वर्ष दल तो बदलेंगे लेकिन हालात वही रहेंगे। देश को यदि बड़े दलों की आपदा से बचना है तो उसे सही मायनों में क्षेत्रीय या आंचलिक सवालों पर राजनीति करने वाले दलों की जरूरत है। तब जाकर ही भारतीय संसद और राजनीति का चरित्र सही मायनों में संघीय हो सकेगा।