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शनिवार, 19 जून 2010
बर्बर! अमानुषिक !! और पाशविक!!!
जिन लोगों को भारतीय राज्य में मानवीयता के अंश होने का भ्रम हो वे जरा लालगढ़ में मुठभेड़ में मारे गए माओवादियों की मृत देहों से भारतीय सुरक्षाबलों द्वारा किए गए सलूक के फोटो देख लें तो निश्चित तौर पर उनका यह भ्रम जाता रहेगा। डंडों से बंधी मृत पुरुष और महिलाओं की देहें सांमतकाल के दौर के शिकारियों की याद दिलाती हैं।जब शिकार पर गए राजा और सामंत इसी तरह से गर्व के साथ डंडों पर बांधकर मारे गए जंगली जानवरों को लेकर लौटते थे। ये फोटोग्राफ्स और वीडियो फुटेज बताते हैं कि भारतीय राज्य ऐसे आदमखोर दैत्य में बदल चुका है जो अपने ही नागरिकों का आखेट बर्बर, अमानुषिक और पाशविक तरीकों से करने में यकीन रखता है। लालगढ़ में सुरक्षा बलों के हमले का एक साल पूरा होने का उत्सव माओवादियों को मुठभेड़ में मारकर मनाया गया। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि निकाय चुनावों में हार के बाद पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार माओवादियों के खिलाफ ज्यादा आक्रामक नजर आ रही है। यह उसकी खिसियाहट भी हो सकती है और विधानसभा चुनाव से पहले माओवादियों से सहानुभूति रखने वाले जनसंगठनों के सफाये की रणनीति भी। सीपीएम भली भांति जानती है कि अकेले ममता उसे नही हरा सकती। लेकिन ममता और अति वामपंथियों का गठजोड़ उसके लिए मारक साबित हो सकता है। क्योंकि अति वामपंथियों की उपस्थति के चलते उसके प्रगतिशील मुखौटे के पीछे छिपा गरीब विरोधी हिंस्त्र चेहरा दिखाई देता है और कम्युनिस्ट होने का जो तिलिस्म उसने इतने सालों से तैयार किया है वह बिखरने लगता है।इसलिए माकपा यदि माओवादियों और उनसे सहानुभूति रखने वालों को निपटाने की हड़बड़ी में दिखाई दे रही है तो यह उसकी चुनावी मजबूरी भी है और आत्मरक्षा की आखिरी कोशिश भी।मगर लालगढ़ की जो तस्वीरें अखबारों में दिखी हैं वे बर्बरता की हद हैं। लकड़ी के डंडे पर हाथ-पैर बांधकर मरे हुए पशुओं की तरह मुठभेड़ में मारे गए माओवादियों को ढ़ोये जाने की इस घटना से जाहिर है कि भारतीय सुरक्षा बल माओवादियों के मृत देहों से भी प्रतिशोध ले रहे हैं।मृत शरीरों कंे साथ इस तरह के दुर्व्यवहार के जरिये पश्चिम बंगाल और केंद्रीय सुरक्षा बल यदि यह संदेश देंना चाहते हैं कि माओवादी और उनसे सहानुभूति रखने वालों की लाशों की भी दुर्गति की जाएगी, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण से ज्यादा एक पाशविक कृत्य है और जेनेवा कन्वेंशन के तहत युद्ध अपराध है। भारत ही नहीं पूरी दुनिया में परंपरा रही है कि मारे जाने के बाद शत्रु के शव के साथ गरिमा और सम्मानपूर्ण व्यवहार किया जाता है।सभ्य समाज सदियों से इस आचरण संहिता का पालन करते रहे हैं। यदि आदिम काल के बर्बर दौर को छोड़ दे तो इतिहास में मंगोलों समेत बहुत कम बर्बरतापूर्ण हमले ही मिलते हैं जब शत्रुओं के शवों के साथ बर्बर व्यवहार किया गया हो। मृत देहों को अपमानित करना विजयी शासकों और समाजों का सामान्य व्यवहार नहीं रहा। जाहिर है कि माओवादियों के शवों के साथ दुव्यवहार कर भारतीय राज्य ने इतना तो साबित कर ही दिया है कि माओवादियों के खिलाफ बदले की भावना से ग्रस्त होकर वह बर्बरता के मामले में मध्ययुग के मंगोल आक्रमणकारियों की याद दिला रहा है।आश्चर्य है कि एक लोकतांत्रिक देश के सुरक्षाबलों द्वारा शवों के साथ किए गए इस दुर्व्यवहार पर खबरिया चैनल धृतराष्ट्र बने हुए हैं।दंतेवाड़ा हमले पर माओवादियों के खिलाफ गला फाड़कर चिल्लाने वाले प्रतापी एंकर, विद्वान संपादक और उत्तेजना में कांपते रिपोर्टर सब खामोश हैं। कोई यह कहने कहने को तैयार नहीं है कि भारतीय राज्य और उसके सुरक्षा बलों का आचरण असभ्यता पूर्ण और बर्बर है। इनमें से कोई भी नहीं कहता कि यह युद्ध अपराध की तरह गंभीर अपराध है जिसके लिए जिम्मेदार लोगों को दंडित किया जाना चाहिए। कम से कम भारतीय राज्य से मध्ययुग के सभ्य राज्य की तरह बर्ताव करने की उम्मीद तो की जा सकती है।यदि वह अपने शत्रुओं के साथ तीसरी सदी के सिकंदर की तरह उदार बर्ताव नहीं कर सकता तो उनके शवों के साथ तो गरिमा के साथ पेश तो आ ही सकता है। हम भारतीय राज्य से नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों की रक्षा का सवाल नहीं उठा रहे हैं क्योंकि भारतीय राज्य और उसके समांतर खड़े माओवादियों के बीच चल रहे इस युद्ध में नागरिक अधिकार भले ही स्थगित कर दिए गए हों।इसलिए मुठभेड़ों के औचित्य पर कोई सवाल न उठाते हुए बस इतनी अपील तो की जा सकती है कि भारतीय राज्य बर्बर समाजों की तरह माओवादियों के शवों के साथ पेश न आए।
बुधवार, 9 जून 2010
भोपाल के बूचड़खाने में सब नंगे हैं
कहते हैं कि ईश्वर के घर में देर है पर अंधेर नहीं। पर भारतीय अदालतों के बारे में ऐसा कतई नहीं कहा जा सकता। देर और अंधेर उनकी बुनियादी और इनबिल्ट विशेषतायें हैं या कह सकते हैं कि मैैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट हैं। वे फैसले करने में अन्याय की हद तक देर लगाती हैं और उस पर तुर्रा यह कि उनके अधिकांश फैसले से अंधेर जैसे निराश कर देने वाले लगते हैं। बाजार की सेल्स प्रमोशन स्कीमों की तरह न्याय चाहने वाले लोगो को एक आफत के साथ दूसरी आफत मुफ्त में मिलती है। हालांकि साख बचाए रखने लायक अपवाद वहां भी होते हैं । हर व्यवस्था की तरह यह उसकी जरुरत भी है या कहें कि मजबूरी भी। भोपाल गैस त्रासदी पर जब अदालत का फैसला आया तो मीडिया में मची चीख पुकार के बावजूद अदालत ने वही किया जो उसकी बड़ी बहनें अब तक करती आई हैं। वर्ना इतने बड़ी तादाद में हुए नरसंहार और लाखों लोगों को यातनाओं के नरक में धकेलने वाले इस कारपोरेट अपराध पर 25 साल बाद फैसला सुनाना तो मूल अपराध से भी बड़ा अपराध है।इससे पहले 1989 और 1996 में सुप्रीम कोर्ट भी गैस पीड़ितों के खिलाफ अपना फैसला सुना चुका है। इसलिए इस फैसले को ‘‘देर और अंधेर’’ के रुप में याद रखा जाना चाहिए। भोपाल गैस कांड भारतीयों को गिरमिटियों के रुप में बेचे जाने के बाद पहला मौका था जब विश्व बाजार में भारतीयों को इतनी कम कीमत पर बेचा गया।यदि मृतकों की जान की औसत कीमत और विकलांग हुए जिंदा लोगों के न्यूनतम गुजर बसर की लागत,जिसमें दवाईयों पर होने वाला न्यूनतम खर्च भी शामिल है, को मुआवजे का आधार माना जाय, इस कंजूस आकलन पर भी गैस पीड़ितों को 1737 अरब रुपए बतौर मुआवजा मिलना चाहिए था। मुआवजे के इस आकलन में पीड़ितों का औसत जीवन काल 25 साल माना गया है। यदि हर्जाने के तौर पर इसका आकलन किया जाय तो मुआवजे की राशि कई सौ खरब में पहुंच जाएगी।यदि भारतीयों की औसत उम्र पर हर्जाने की गणना की जाय तो यह कई गुना अधिक होगी। यदि अमेरिका या पश्चिमी देशों में ऐसा नरसंहार हुआ होता तो दोषियों को सजा के साथ इतना हर्जाना देना पड़ता कि उससे यूनियन कार्बाइड दिवालिया हो गई होती। मगर भारतीय न्यायपालिका ने ऐसा न पहली बार किया है और न आखिरी बार।इसे दुर्लभतमों में से दुर्लभ खराब फैसला भी नहीं कहा जा सकता। भारतीय राज्य और कारपोरेट घरानों के पक्ष और आम लोगों के विपक्ष में ऐसे फैसले आते रहते हैं। सिर्फ इतना हुआ है कि उदारीकरण के बाद न्यायपालिका ने उस लबादे को भी उतार फेंका है जो उसकी मिथकीय निष्पक्षता का आभामंडल बनाता था।उदारीकरण के बाद आए अनगिनत फैसलों के जरिये न्यायपालिका ने पहले ही यह साफ कर दिया है कि उसका भी अपना एक खास वर्ग और पक्ष है जो अक्सर पीड़ितों के खिलाफ दिखाई देता है।अलबत्ता अदालतें कभी-कभार ऐसे फैसले भी करती हैं जो लोगों को ढ़ाढ़स बंधाते दिखते हैं। ऐसे फैसलों से लगता है कि देश की न्यायव्यवस्था का सूरज आखिरी तौर पर अभी डूबा नहीं है।चमत्कृत कर देने वाले ग्रीक, रोमन उद्धरणों, अंग्रेजी के खूबसूरत शब्दों में गंुथे प्रभावोत्पादक भाषा वाले ये फैसले जजों की विद्वता पर भरोसा बंधाते हैं। न्यायिक इतिहास में रुचि रखने वाले लोग इन्हे नक्काशीदार फ्रेमों में जड़कर रख सकते हैं। ऐसे फैसले सूक्तियों की तरह याद रखे जाते हैं। देर और अंधेर के अंधेरों के बीच पेंसिल टॉर्च की तरह टिमटिमाने इन फैसलों की रोशनी आम लोगों को निराश नहीं होने देती।पर बावजूद इसके ये फैसले लोगों की रोजमर्रा के जीवन में राज्य और प्रभावशाली लोगों के द्वारा किए जा रहे अन्याय को कम नहीं कर पाते और न ही वे अन्याय और दमन की मशीनरी को भयभीत कर पाने में समर्थ होते हैं। नवें दशक तक जनांदोलन और न्यायपालिका मिलकर जन असंतोष के दबाव को कम करने के लिए सेफ्टी वाल्व का काम करते थे। दोनो मिलकर लोकतंत्र में लोगों का भरोसा कायम रखते थे। बीसवीं सदी के आखिरी दशक में जब उदारीकरण का दौर आया तो अदालतें पूरी तरह से उदारीकरण की चपेट में आ गईं। देश के हाईकोर्टों और सुप्रीम कोर्ट के द्वारा 1991 और उसके बाद किए गए फसलों की समीक्षा करें तो यह साफ नजर आ जाता है कि इस दौर में अदालतों के अधिकांश दूरगामी फैसले मजदूरों, किसानों, विस्थापितों, कर्मचारियों जैसे सामान्य वर्ग के लोगों के खिलाफ गए हैं। इसी दौर में न्यायपालिका ने हड़तालों,जुलूसों और सभाओं पर पाबंदी लगाने जैसे फैसले किए जो दरअसल अराजनीतिक उच्च वर्ग और उच्च मध्यवर्ग को खुश करने के लिए गए जैसे महसूस किए गए। हजारों लाखों लोगों की भागीदारी वाले टिहरी बांध से लेकर नर्मदा बांध विरोधी आंदोलनों को अदालती फैसलों ने एक झटके में ही धूल चटा दी।इन अहिंसक आंदोलनो को सजा ए मौत का फैसला अदालतों ने ही सुनाया। इसी दौर में सबसे ज्यादा फैसले भी कारपोरेट कंपनियों के पक्ष में हुए। चाहे वे हड़तालों और सेवा संबधी मामलों के रहे हों या फिर कारपोरेट घरानों से जुड़े अन्य हितों के। कारपोरेटी समूहगान में विधायिका, कार्यपालिका के साथ न्यायपालिका के भी खड़े होने का ही परिणाम था कि उदारीकरण के बाद देश में औद्योगिक मजदूरों की हालत बद से बदतर हो गई। आउट सोर्सिंग के चोर दरवाजे के चलते निजी क्षेत्र में बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में मजदूर आंदोलनों से हासिल हुई अधिकांश सुविधायंे खत्म कर दी गई हैं। उदारीकरण के दौर में एक ओर जहां लोगों के संकट बढ़ते रहे वहीं न्यायपालिका सामान्य लोगों के बुनियादी सवालों के प्रति अनुदार होती गई।हालांकि राजनेताओं और कुछ हाई प्रोफाइल लोगों के खिलाफ फैसले सुनाकर उसने मीडिया से तालियां भी बटोरी और यह आभास कराने की कोशिश भी की कि सरकारी तंत्र के लिए उसके पास काटने वाले दांत भी हैं।पर यह सब वाहवाही लूटने से आगे का खेल नहीं था।ऐसा उदाहरण खोजना मुश्किल है जब कोई कोर्ट हस्तक्षेप कर किसी जनाधिकारों के पक्ष में आगे आया हो।छत्तीसगढ़ से लेकर उड़ीसा तक अहिंसक आंदोलन सरकारों के दमन के आगे असहाय और पराजित होते रहे पर अदालतें लोगों के जीने के अधिकार की गारंटी नहीं कर पाईं। आदिवासियों को खदेड़ने पर तुले कारपोरेट राक्षसों पर देश की अदालतें चुप हैं। जाहिरा तौर पर यह जनअसंतोष को सुरक्षित रास्ता देने की पुरानी लोकतांत्रिक रणनीति में बदलाव का संकेत है। भारतीय शासन व्यवस्था में आंदोलनों और जनअसंतोष के प्रति बढ़ रही इस अनुदारता की काली छाया न्यायपालिका पर भी दिख रही है। उदारीकरण के आगमन के बाद से यदि भारतीय जनजीवन में हिंसा बढ़ी है तो इसका कारण भी यही है कि लोकतंत्र के चारों पाए अब घोषित रुप से कारपोट लोकतंत्र के पक्ष में हैं।न्यायपालिका पर अनास्था रखने वाले समूह बढ़ रहे हैं। यह आखिरी किला था जो भारतीय लोकतंत्र की वर्गीय पक्षधरता को संतुलित करता था। इसकी वर्गीय पक्षधरता भी उजागर होने के बाद किस मुंह से भारतीय राज्य खुद के लोकतंत्र होने का दावा कर सकेगा? भोपाल गैस कांड यह सवाल भी देश के लोकतंत्र से पूछ रहा है।पांच लाख से ज्यादा लोगों से उनके स्वाभाविक रुप से जीने का प्राकृतिक और संवैधानिक अधिकार छीनने के दोषी लोगों में से एक के खिलाफ भी कोई कार्रवाई न हो ऐसा अंधेर तो इसी देश में संभव है। भोपाल के इस कारपोरेट बूचड़खाने में भारतीय कारपोरेट कंपनियां, कार्यपालिका,विधायिका और न्यायपालिका सब के सब नंगे खड़े हैं। एंेसे में भोपाल गैस कांड के पीड़ितों को न्याय के लिए शायद अगले जन्म का इंतजार करना होगा। क्या इस न्यायिक अंधेर पर किसी को कभी शर्म आएगी?
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