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मंगलवार, 24 नवंबर 2009

उत्तराखंडः लूट और झूठ के नौ साल


आंदोलन के डेढ़ दशक और राज्य बनने के 9 साल के राजनीतिक सफरनामे की उलटबांसी यह है कि उत्तराखंड की राजनीति के खेवनहार वही दल बने हैं जिन्हे आंदोलन ने खारिज कर दिया था ,जिनके नेता लोगों के डर से भाग खड़े हुए थे ।एक राज्य के रुप में उत्तराखंड जब10वें वर्श में दाखिल हो रहा है तब हालात 1994 से ज्यादा बदतर हो चुके हैं । पहाड़ी राज्य का सपना चकनाचूर हो चुका है ।उत्तराखंड आंदोलन के मकसदों को दफनाया जा चुका है । सतह के नीचे असंतोष का लावा फिर जमा हो रहा है । उत्तराखंड एक और आंदोलन के मुहाने की ओर है । पता नहीं कब, कौन सी चिंगारी पूरे पहाड़ को सुलगा दे । उत्तराखंड सदियों से इतिहास की अंधेरी गुफा में बंद रहा है । प्राकृतिक आपदाओं और मानव निर्मित विपदाओं के जिन दौरों से यह समाज गुजरा है उनसे दुनिया के बहुत कम समाज गुजरे होंगे । इतिहास के इस अंधेरे हिस्से में वे अनगिनत काली रातें भी हैं जब 1803 के भीशण भूकंप से तबाह हुए समाज को इतिहास का सबसे बर्बर हमला गोरखा आक्रमण के रुप में झेलना पड़ा था । लगभग तीन लाख लोगों को जानवरों की तरह जंजीरों में जकड़कर गोरखा आक्रमणकारियों ने हरिद्वार और रुद्रपुर की मानव मंडियों में दास बनाकर बेच दिया गया । ऐसी अनेक हृदय विदारक त्रासदियों के साक्षी रहे हिमालय के इस समाज तक आजादी भी आधी - अधूरी ही पहुंची । उत्तराखंड में जनअसंतोष विभिन्न आंदोलनों की भाशा में बोलता रहा लेकिन 1994 का उत्तराखंड बाकी कारणों के साथ पहाड़ियों की पहचान का आंदोलन था । क्षेत्रीयता का यही पुट इसका मुख्य स्वर था । अपनी तमाम तेजस्विता और अनूठेपन के बावजूद उत्तराखंड आंदोलन 1996 के बाद दम तोड़ चुका था ।आंदोलन का ज्वार उतर चुका था । उत्तराखंड आंदोलन की ताकतें तो 1997 से ही चुकने लगीं थी । राज्य बनते - बनते ये ताकतें कुछ खुद के पराक्रम और कुछ जनता की अनदेखी से हाषिये पर चली गईं । 1994 के जनसैलाब के डर से भूमिगत हुए दल और उनके नेता 1995 में ही अपनी राजनीति और इरादों के साथ फिर से प्रगट होने लगे थे ।1996 के लोकसभा चुनाव में लोगों ने चुनाव बहिष्कार के अस्त्र के जरिये उनका प्रतिकार किया पर उसके बाद राजनीति फिर पुराने ढ़र्रे पर लौट आई। 1994 के आंदोलन में सपा,बसपा और कांग्रेस के खिलाफ उमड़ी जनभावनाओं को भुनाने में भाजपा कामयाब रहीं उसके पास आरएसएस और उसके संगठनों का जमीनी नेटवर्क तो था ही साथ राजनीति के दांवपेंचों में माहिर घाघ नेताओं की पूरी फौज थी । उत्तराखंड आंदोलन की फसल भले ही आंदोलनकारियों ने उगाई हो लेकिन जब काटने और संभालने की बारी आई तब उनके पास न तो फसल काटने में कुशल लोग थे और न ही संभालने के लिए अक्ल और कुठार ही थे । लिहाजा आंदोलन से पकी जनमत की फसल भगवा ब्रिगेडें ले उड़ीं । खारिज किए गए नेता ताल ठोंकने लगे थे । उत्तराखंड आंदोलन हार चुका था । इस हार ने उत्तराखंड को हताषा के हिमयुग में धकेल दिया । हताशा के इसी हिमयुग में जब 9 नवंबर 2000 की आधी रात को राज्य बना तब उत्तराखंड के अधिकांश गांव सो रहे थे । अहंकार से भरी केंद्र की एनडीए सरकार ने उत्तराखंड मांग रहे लोगों को उत्तरांचल राज्य दिया । यह जानते हुए भी कि उत्तराखंड में आरएसएस,भाजपा के सिवा ‘उत्तरांचल’ का कोई माई बाप नहीं है पर राजहठ में डूबी सरकार जनता की इच्छा पर अपना नाम थोपने से ही गौरवान्वित थी । बिन मांगे समूचा हरिद्वार जिला उत्तराखंड की झोली में डाल दिया गया , पर आम लोगों ने इसे केंद्र की कृपा मानने के बजाय पहाड़ के मूल निवासियों की आबादी को संतुलित करने वाले क्षेत्रवाद के रुप में देखा । भाजपा को कोई पहाड़ी मुख्यमंत्री तक न मिला और पहला ही मुख्यमंत्री हरियाणवी मूल का बना दिया गया । राजधानी पहाड़ में घोषित करने के बजाय वह भी मैदान में बना दी गई । राज्य पहाड़ी और मुख्यमंत्री से लेकर राजधानी तक सब कुछ मैदान का , ऐसा सलूक शायद ही किसी और समाज के साथ हुआ होगा ! इन सारे कदमों और राज्य पुनर्गठन अधिनियम की व्यवस्थाओं में क्षेत्रवाद का डंक छिपा हुआ था । राज्य तो बन गया लेकिन उत्तराखंड में संदेश यह गया कि केंद्र ने राज्य नहीं दिया बल्कि उन्हे आंदोलन के लिए दंडित किया है । भाजपा को इसका दंड भी भुगतना पड़ा । राज्य निर्माण करने के राजसी अभिमान पर इतरा रही भाजपा को उत्तराखंड की जनता ने वनवास का दंड देकर बताया कि प्रछन्न क्षेत्रवादी एजेंडे को वह भी समझती है । असली खेल तो राज्य बनने के बाद शुरु हुआ । जो मंत्री बने वे पहाड़ के सादेपन के प्रतिनिधि बनने के बजाय यूपी की राजनीतिक कल्चर के इतने उत्साही वारिस साबित हुए कि यूपी के नेता भी उनकी ठसक के आगे पानी भरने लगे । शांत पहाड़ों में रातोंरात गनर वाली प्रजाति के नेता प्रगट हो गए । राजनीति की ये अधभरी गगरियां भौंडेपन के साथ सरेआम छलकने लगीं तो लोगों को लगा कि यह तो यूपी से भी गया- गुजरा प्रदेश बन रहा है । राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के विस्फोट का सिलसिला शुरु हो गया । कारों और टैक्सियों पर नेमप्लेटधारी नेताओं की फौज सड़कों पर उतर आईं । उन्हे सरकारी योजनाओं में अपना हिस्सा चाहिए था । यह नए राज्य में कमीशन के खेल को नए सत्ताधारियों का ग्रीन सिग्नल था । । नए राज्य की जमीन एकाएक नेताओं के लिए उपजाऊ हो गई । इस छोटे राज्य में पैदावार के मामले में नेताओं ने कुकरमुत्तों को पछाड़ दिया । पहले ही विधान सभा चुनाव में उम्मीदवारों की भीड़ नामांकन के लिए उमड़ पड़ी ।
आंदोलन से जनमे राज्य की इससे बड़ी बिडंबना क्या होगी कि सरकार का पहला ही शासनादेश मूल निवासियों के हितों को दूरगामी नुकसान पहुंचाने के इरादे से जारी किया गया । बाद में यह नियुक्तियों में उत्तराखंड के मूल निवासियों के खिलाफ सबसे बड़ा अस्त्र साबित हुआ । जब गैर मूल निवासी को मुख्यमंत्री बनाने पर भाजपा में भी बबाल हुआ तो आलाकमान ने कमान कोश्यारी को सौंप दी । लोगों को हिंदू राष्ट्र की घुट्टी पिलाने वाले व संघ के प्रचारक रहे कोश्यारी भाजपा में ठाकुरवाद की सोशल इंजीनियरिंग के प्रणेता बनकर उभरे । राज्य सरकार की खुफिया एजेंसी एलआईयू के जरिये विधानसभा क्षेत्रवार जातीय गणना कर इस विचार को आंकड़ों के जरिये सिद्धांत का जामा पहना दिया गया । पहले ही साल में नए राज्य में भ्रष्ट और विघटनकारी राजनीति का उदय हो चुका था । इस मैदानी क्षेत्रवाद और जातिवाद की इस राजनीति को जनता ने पूरी तरह खारिज कर दिया । प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री समेत भाजपा के अधिकांश बड़े नेता खेत रहे । भाजपा और कोश्यारी की सोशल इंजीनियरिंग बुरी तरह पिट गई ।भाजपा के खिलाफ उठी लहर से कांग्रेस 1989 के बाद उत्तराखंड में जिंदा हुई । यह वक्त की बिडंबना ही है कि कभी ‘‘ मेरी लाश पर उत्तराखंड बनेगा ’’ जैसा कठोर जुमला कहने वाले नारायण दत्त तिवारी उसी राज्य के मुख्यमंत्री बन गए पर वह बुढ़ापा बिताने पहाड़ आए थे । उनके पास मैदान का विजन था ,जिससे नौएडा तो बन सकता था पर हिमाचल नहीं । वह खांटी पहाड़ी वाईएस परमार या वीरभद्र सिंह नहीं थे । वह छोटे राज्य के बड़े राजा थे । उन्होने 16 वीं सदी के राजा की तरह दोनों हाथों से राजकोश लुटाया । उनका शासनकाल ऐसा दुर्लभ समय था जब मीडिया से लेकर विपक्ष तक सब चारणकाल में पहुंच चुके थे । विधानसभा से लेकर अखबार के पन्नों तक राग दरबारी की धुन बज रही थी । ऐसा करिश्मा बस तिवारी ही कर सकते थे ।चार्वाक का ‘‘कर्ज लो और घी पियो’’दर्शन सरकार का सूत्रवाक्य बन चुका था । लीडर तब डीलर बन चुके थे । रोज कहीं न कहीं घोटाला हो रहा था । देहरादून के ढ़ाबे वाले हों या पंचतारा होटल वाले उन दिनों को याद कर उसे स्वर्णयुग बताते नहीं थकते । बावजूद इसके कांग्रेस सरकार नहीं बच पाई । भ्रष्टाचार की तोहमत उसे ले डूबी । मिस्टर आनेस्ट जनरल बीसी खंडूड़ी के हाथ सत्ता आई तो पहाड़ के लोगों को लगा कि अब राज्य में खांटी पहाड़ी राज स्थापित होगा और 6 सालों में पनपे दलाल राज का खात्मा इसी रिटायर्ड जनरल के हाथों होगा । उनकी तनी हुई झबरीली मूंछें, सख्त चेहरा और फौजी पृष्ठभूमि मिलकर जो छवि बनाते थे उससे लोगों में इस यकीन ने जड़ें भी जमाईं । जनरल सत्ता के घेरे में ऐसे कैद हुए कि वह कैंट रोड के अपने काले लौह दरवाजों के उस पार जनता के लिए ईश्वर की तरह अगम्य बन गए । सिर्फ इतना ही पता चल पाया कि वह सारंगी कुलनाम के किसी मायावी आईएएस के मोहपाश में हैं । मात्र डेढ़ साल में जनरल का करिश्मा और केंद्रीय सड़क मंत्री के रुप में बटोरा पुण्य चुक गया । लोकसभा चुनाव में अपमानजनक हार के रुप में जनता ने उनकी बर्खास्तगी के पत्र पर दस्तखत कर दिए । इसे राज्य स्तर पर कांग्रेस और भाजपा की राजनीतिक कंगाली भी कह सकते हैं कि उनके पास न तो दूर तक देखने वाली दृष्टि है , न ऐसे नेता हैं और न ही वह साहस जो एक नए राज्य की बुनियाद के लिए जरुरी है । यही कारण है कि उत्तराखंड नए राज्यों में अकेला राज्य है जिसके पास अपनी स्थायी राजधानी तक नहीं है । उसके नेताओं में न तो इतनी हिम्मत है कि देहरादून को ही राजधानी घोषित कर दें और न इतना साहस कि गैरसैंण को राजधानी बना दें । ऐसा ही हाल परिसीमन का भी है । परिसीमन का रस्मी विरोध करने के अलावा कोई गंभीर सवाल नहीं उठाया गया । जबकि एक राज्य के रुप में यह उत्तराखंड के जीवन और मरण का सवाल है ।सन् 2012 के विधानसभा चुनाव में पहाड़ की आधा दर्जन सीटें कम हो चुकी हैं । उत्तराखंड विधानसभा का संतुलन अब मैदान की ओर झुक गया है । उत्तराखंड आंदोलन को पराजित करने की जो साजिश राज्य के गठन के समय की गई थी , परिसीमन से वह अब ज्यादा स्पष्ट हो गई है । सन् 2032 में होने वाले परिसीमन के बाद पहाड़ी राज्य का भ्रम पूरी तरह टूट जाएगा और विधानसभा में 51 सीटें मैदानी क्षेत्रों की होंगी और पहाड़ी क्षेत्रों की सीटें घटकर मात्र 19 रह जायेंगी । पहाड़ी राज्य की पूरी अवधारणा को नेस्तनाबूद करने वाला परिसीमन का यह खतरा हो या राजधानी और पलायन के ज्वलंत सवाल उत्तराखंड के नेताओं के पास राजनीतिक चिंता और चिंतन दोनों नहीं हैं अलबत्ता रातों - रात नोटों के ढे़र पर बैठने के हुनर में वे किसी भी मधु कौड़ा या सुखराम का मुकाबला करने की प्रतिभा रखते हैं । प्रदेश में 50 करोड़ से 400 करोड़ रुपए की हैसियत रखने वाले नेताओं की तादाद एक दर्जन से कम नहीं है और करोड़पति नेताओं की तादाद तो सैकड़ों में है । करोड़पति अफसरों की तादाद 1000 से ज्यादा है । राजनीति और सरकारी क्षेत्र में समृद्धि का यह विस्फोट राज्य बनने के बाद हुआ है । बेहतरीन मानव संसाधन और प्राकृतिक संसाधनों का खजाना होने के बावजूद उत्तराखंड नौ वर्ष के अपने सफर में विकास के बुनियादी मानकों पर भी खरा नहीं उतरा । जलवायु में हो रहे बदलावों के कारण राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था बेहाल है । पहाड़ में आय और जीवन निर्वाह के परंपरागत साधन ढ़ह रहे हैं , नए साधन हैं नहीं । राज्य बनने के बाद पलायन रुका नहीं बल्कि बढ़ गया । तेजी से बियाबान होते जा रहे गांव बता रहे हैं कि आने वाले दशक इतिहास के सबसे बड़े विस्थापन की गवाही देंगे । बेरोजगारी खतरनाक स्तर को छू रही है । केंद्र द्वारा घोषित औद्योगिक पैकेज राज्य की कीमती भूमि की लूट, करों की चोरी का जरिया और श्रम कानूनों की कब्रगाह बनकर रह गया है । अरबों रुपए की जमीनें कौड़ियों में लुटाकर राज्य सरकार कुछ हजार रोजगार जुटा पाई । इसमें में भी मूल निवासियों के हिस्से मजदूरी या सुपरवाइजरी स्तर तक नौकरी ही आ पाई तो अधिकांश नदियां, गाड ,गधेरे सरकार बेच चुकी है ,पर पनबिजली प्रोजेक्टों में भी बड़े पदों पर पहाड़ के लोगों को नियुक्त करने पर अघोषित पाबंदी हैं । आयकर विभाग के आंकड़े गवाह हैं कि राज्य बनने के बाद सर्वाधिक समृद्धि मैदानी जिलों में ही आई ।यदि प्रतिव्यक्ति कार व दुपहिया वाहन और प्रतिव्यक्ति इलेक्ट्रानिक गुड्स के आंकड़े देखे जांय तो मैदान और पहाड़ के जीवन स्तर और उपभोग स्तर की विषमता साफ- साफ नजर आ जाती है । जबकि शिमला में ये दोनों ही सूचकांक पूरे देश में सबसे बेहतर हैं । जाहिर है कि इन नौ सालों में जैसा उत्तराखंड राजनेताओं ने बनाया है वह दिल, दिमाग ,आचार और व्यवहार से तो पहाड़ी कतई नहीं है । इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि उसकी विधानसभा पहाड़ की मेधा,भावना,सामान्य बुद्धिमत्ता और सरोकारों का प्रतिनिधित्व तक नहीं करती । यह बिडंबना ही है कि आज का उत्तराखंड पहाड़ और उसके लोगों के तात्कालिक और दीर्घकालिक हितों के खिलाफ है । एक पहाड़ी राज्य के रुप में उत्तराखंड नाकाम हो चुका है । राज्य के पहाड़ विरोधी रंगढंग देखते हुए ही उत्तराखंड जनमंच जैसे आंदोलन में हिस्सा लेने वाले संगठन उत्तराखंड राज्य को विसर्जित करने की मांग उठाने लगे हैं ।

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

क्षेत्रीयताओं का द्वंद समझने का समय



मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश की फैक्टरियों में बिहारियों के बजाय मध्यप्रदेश के लोगों को नौकरियां दिये जाने का बयान क्या दिया कि एक बार फिर तूफान खड़ा कर दिया गया । माहौल ऐसा बनाया जा रहा है कि जैसे कोई आसमान टूट पड़ा हो ।शीला दीक्षित से लेकर राज ठाकरे तक न जाने कितने बयानों को लेकर ऐसा माहौल बनाया गया कि जैसे देश खतरे में पड़ गया हो ।अंधाधुंध बिहारी आब्रजन के खिलाफ बोलना कुफ्र मान लिया गया है । बिहारी वर्चस्व वाला हिंदी मीडिया और बिहार के भ्रष्ट और अकर्मण्य नेता अक्सर इन घटनाओं पर आक्रामक प्रतिक्रिया और शोर मचाकर इसे राष्ट्रीय संकट में बदलते रहे हैं । यह उनकी रणनीति है कि कभी राज ठाकरे तो कभी शिवराज के रुप में वे बिहार के लिए एक अदद खलनायक का इंतजाम करते रहते हैं ताकि बिहार के असली खलनायक बिहारी क्षेत्रवाद की ढ़ाल के पीछे नायक बने रहें ।आखिर बिहार के बुनियादी सवालों के बजाय राज ठाकरे और शीला दीक्षित या शिवराज सिंह को गलियाने से बिहार में वोट मिल सकते हैं तो इसमें हर्ज क्या है ।
दरअसल हिंदी मीडिया खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया खुद क्षेत्रवाद के कीचड़ में इतना धंस चुका है कि उसमें आब्जेक्टेविटी गायब हो चुकी है । यदि ऐसा नहीं होता तो वह पंजाब , असम महाराष्ट्र और अब मध्य प्रदेश से आ रही बिहारी विरोधी आवाजों को राष्ट्र विरोधी करार देने पहले यह जरुर विश्लेषित करता कि विभिन्न भारतीय समाजों से एक ही समुदाय के खिलाफ क्यों ऐसी प्रतिक्रिया आ रही है ? क्यों इन समाजों का धैर्य चुक रहा है ? मीडिया के हमले और बिहारी नेताओं की हमलावर रणनीति से भले ही शीला दीक्षित या शिवराज को बचाव पर उतरना पड़ा हो पर सच्चाई यह है कि जिस बिहारीवाद विरोधी जिस वर्ग को ये नेता संदेश देना चाहते थे उसे उन्होने संबोधित कर लिया । बिहारियों के खिलाफ इन समाजों में प्रतिक्रिया तो पहले से ही मौजूद है , नेताओं ने तो उसे सिर्फ वाणी देकर मुद्दा बनाया ।यह बात आईने की तरह साफ है कि अनियंत्रित और अनियोजित बिहारी आब्रजन के खिलाफ विभिन्न समाजों में सतह के तले प्रतिक्रिया हो रही है और राजनीति तो उन भावनाओं पर सवारी गांठना चाहती है । पंजाब में यह प्रतिक्रिया पर्चे - पोस्टर चिपकाने के बाद चुनाव में लुधियाना जैसे शहरों में स्थानीय लोगों की पकड़ कम होने से आई तो महाराष्ट्र के चुनावों ने साबित कर दिया कि वहां बिहारी आब्रजक बड़े राजनीतिक सवाल बन चुके हैं ।दिल्ली में भी यही होने जारहा है तो असम में हिंसा के साथ प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है । मध्यप्रदेश में यह टकराव का रुप लेने की ओर है । इसमें जो नए प्रदेश भविष्य में जुड़ने वाले हैं उनमें राजस्थान और उत्तराखंड जैसे शांत राज्य भी शामिल हैं ।
जो लोग अंधाधुंध आब्रजन का समर्थन कर रहे हैं वे भारत और उसके समाजों को कितना जानते हैं , यह तो पता नहीं पर ये लोग न तो बिहारियों के हित में है और न देश के हित में है ।भारत एक संघीय गणराज्य है । इस देश को संघीय गणराज्य कोई संविधान ने नहीं बनाया ।भारत स्वभाव और संरचना से ही एक संघीय राष्ट्र है । सदियों के सफर के अनुभवों और जरुरतों ने विभिन्न रीति रिवाजों और मिजाजों के समाजों को अपनी विशिष्ट पहचान के साथ राष्ट्र की एक राजनीतिक ईकाई में पिरोया । भारतीय समाज में यह सामाजिक, सांस्कृृतिक विविधता सदियों से चली आ रही है । रंगों की इसी छटा से भारत बनता है । एक राष्ट्र के रुप में भारत के अस्तित्व की गारंटी भी यही विविधता देती है । क्योंकि यह हर समाज को अपने इलाकों में अपनी परंपराओं, मान्यताओं, रीति-रिवाजों के अनुरुप जीवन बसर करने की आजादी देती है ।अनेक राष्ट्रीयताओं , उपराष्ट्रीयताओं के संगम ने ही भारत जैसे बहुधर्मी ,बहुभाषी, बहुसांस्कृृतिक और विविधवर्णी राष्ट्रराज्य का निर्माण किया है । यह उसकी ताकत भी है और एक राज्य के रुप में उसकी सीमा भी । वह कोई एक ही गोत्र में जन्मे लोगों की मोनोकल्चर प्रजाति जैसी सरल सामाजिक संरचना नहीं है ।अपने क्षेत्र के आर्थिक और प्राकृतिक संसाधनों पर उस अंचल के मूल निवासियों का पहला अधिकार है ।यह अधिकार भारतीय संविधान भले ही न देता हो परंतु यह उनका जन्मजात और प्राकृृतिक अधिकार है और यह सदियों से चला आ रहा है । यह अधिकार अनुल्लंघनीय है और भारत की एकता की गारंटी भी ।
जो लोग संविधान के तहत दी गई कहीं भी बसने और रोजगार पाने के अधिकार के दैवी अधिकार की तरह प्रचारित कर बिहार से हो रहे भारी पलायन को औचित्य प्रदान करने की कोशिश कर रहे हैं उनसे निवेदन है कि संविधान अपने अस्तित्व के लिए जनता की इच्छा पर आश्रित है । जनादेश के बल और वैधता के बिना संविधान एक रद्दी के ढ़ेर में पड़ी किताब है । वह तभी तक प्रभावी है जब तक जनमत उसके साथ है । संविधान यदि देश और समाज की आकांक्षाओं से तालमेल नहीं बिठा पाएगा तो लोग उसे ही बदल देंगे ।लोगों की इच्छा के खिलाफ किसी कानून या संविधान का पालन सिर्फ दमन से संभव है ।क्या यह उचित होगा कि भारतीय राष्ट्र बिहार से बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन के कारणों का इलाज करने के बजाय उन समाजों का लाठी - गोली से इलाज करे जो अल्पसंख्यक होने और अपने संसाधनों पर औरों का कब्जा होने के डर से प्रतिक्रिया कर रहे हैं ?
किसी बाहरी तत्व के घुसने पर मानव शरीर भी स्वाभाविक प्रतिक्रिया करता है और एंटीबाॅडी बनाना शुरु कर देता है । शरीर का तापमान बढ़ जाता है और मेडिकल की भाषा में यह बुखार है । ऐसा सिर्फ शरीर के साथ ही नहीं होता बल्कि समाज और यहां तक कि प्रोफेशनल कहे जाने वाले व्यावसायिक और वाणज्यिक संस्थान भी इसी तरह से फारेन बाडीज का प्रतिकार करते हैं । इसलिए महाराष्ट्र ,असम या मध्यप्रदेश से आने वाली बिहारी विरोधी प्रतिक्रियाओं को राष्ट्रविरोधी कहकर प्रचारित कर रहे हैं उन्हे जानना चाहिए कि ये समाज आर्थिक ,राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक बुखार से तप रहे हैं ।इन समाजों को सहानुभूति और केयर की जरुरत है ।उनके भयों और चिंताओं को संबोधित करना होगा । हिंदी मीडिया और बिहार के नेताओं की दुत्कार से यह रोग गंभीर होगा और एक दिन लाइलाज होकर भारतीय राष्ट्रराज्य के लिए खतरा बन जाएगा ।दुख की बात यह है कि हिंदी हार्ट लैंड से समझदारी के स्वर गायब हैं और वे बिहारियों को रोकने वाले मराठियों , मध्यप्रदेशियों, असमियों का सर मांग रहे हैं ।
परंतु अब समय आ गया है कि पलायन को प्रोत्साहित करने वाली राजनीति के मंतव्य समझे जांय और उसे हतोत्साहित किया जाय ।वैज्ञानिक रुप से हर राज्य और शहर की मानव भार वहन करने की क्षमता तय की जाय और उसी के अनुरुप राज्यों या शहरों में आबादी के प्रवाह को नियंत्रित किया जाय । यदि ऐसा नहीं हुआ तो हिंदुस्तान के शहर नरक में बदल जायेंगे और उनके नागरिक जीवन को संचालित करना असंभव हो जाएगा ।दरअसल आब्रजन को लेकर जितना भी शोर उठा है वह बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश से अस्सी के दशक से बड़े पैमाने पर शुरु हुए पलायन की प्रतिक्रिया है ।आर्थिक उदारीकरण ने लोगों के जीवन को ज्यादा संकटपूर्ण बनाया है और उन्हे जानलेवा प्रतिस्पर्धा में झोंक दिया है । इसने नए सामाजिक - आर्थिक तनावों को जन्म दिया है । आज का हर समाज 1980 के मुकाबले ज्यादा चिड़चिड़ा और तुनुक मिजाज हुआ है ।आर्थिक रुप से उपयोगी प्राकृतिक संसाधनों और रोजगार के अवसरों को लेकर जंग तीखी और हिंसक होती जा रही है । बड़े समाजों की आक्रामकता के खिलाफ छोटे समाज लामबंद हो रहे हैं ।भारत कृत्रिम एकात्मकता से संघीय चरित्र और बहुलतावाद की ओर प्रस्थान कर रहा है ।
जब दुनिया के हर राष्ट्र को आब्रजकों की तादाद तय करने का अधिकार है तो हर राज्य को अपनी आबादी के अनुपात और जरुरत के हिसाब से यह तय करने का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए कि उसे कितनी संख्या और किस श्रेणी का मानव संसाधन चाहिए ।
उत्तराखंड,बिहार और पूर्वी यूपी समेत भारत में पलायन के जो भी मुख्यालय रहे हैं वहां रहन-सहन की स्थितियां बेहद खराब, रोजगार के साधनों का अभाव और गरीबी का साम्राज्य रहा है ।यह स्थितियां इन राज्यों के राजनीतिक नेतृत्व के भ्रष्टाचार, निकम्मेपन और स्वार्थी राजनीति के कारण पैदा हुई हैं । इन राज्यों का नेतृत्व अपने नागरिकों को गरिमामय जीवन और जीने की बेहतर परिस्थितियां देने में पूरी तरह विफल हुआ है ।अब सवाल उठता है कि पूर्वी यूपी या बिहार के नेताओं और सरकार की विफलता दंड महाराष्ट्र या मध्य प्रदेश , असम या किसी और राज्य के लोग क्यों भुगतें ? वे अपने रोजगार और अन्य साधनों पर हमले क्यों सहें ? अक्सर यह देखने में आता है कि जैसे ही राज ठाकरे या कोई और बाहरी लोगों के खिलाफ बयान देता है तो बिहार और पूर्वी यूपी के नेता आसमान सर पर उठा देते हैं ।पंजाब से लेकर राजस्थान तक कोई प्रतिक्रिया नहीं होती । साफ है कि इन दो इलाकों के नेता पलायन को जारी रखना चाहते हैं ताकि वे अपनी जनता को सुशासन और बेहतर जीवन देने के झंझट से बचे रहें ।सच यह है कि यदि बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश में जमीन का न्यायसंगत पुनर्वितरण हो जाय तो सारा पलायन रुक जाय ।क्योंकि पलायन करने वालों में अधिकांश गरीब हैं जो सामाजिक- आर्थिक कारणों से बाहर जा रहे हैं ।यदि इन इलाकों में हरित क्रांति के प्रयास युद्धस्तर पर किए जांय तो वहां भी पंजाब की तरह समृद्धि की कथा लिखी जा सकती है ।जाहिर है कि ये कठिन काम हैं जबकि राज ठाकरे को गाली देना आसान है । इससे बिहारी व पूरबिया क्षेत्रवाद भी भड़कता है और उससे वोट भी मिलता है । इस काम में इन नेताओं की मदद के लिये सवर्ण प्रभुत्व वाला हिंदी मीडिया भी जुट जाता है ।बिहार और पूर्वी यूपी की कृषि के सामंती ढ़ांचे के बने रहने में मीडिया के भी अपने स्वार्थ हैं ।
यह आश्चर्यजनक और अफसोसनाक है कि हिंदी मीडिया और बिहार व पूरब के नेता इस अंधाधुंध पलायन पर उंगुली उठाने या उसे रोकने वाली हर कोशिश को आनन फानन में देशद्रोह घोषित कर देते हैं ।पूछा जा सकता है कि क्या देश का मतलब सिर्फ बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश है ? यदि यही देश हैं तो ऐसे देश से भारत को खतरा है ।जो लोग अंधाधुंध आब्रजन का समर्थन कर रहे हैं वे भी क्षेत्रवादी आग्रहों के कारण ही ऐसा कर रहे हैं ।हद तो यह है कि ये क्षेत्र नेता भी निर्यात कर रहे हैं फिर बाकी समाजों के नेता क्यों नहीं विरोध करेंगे ? यदि गणेश उत्सव की प्रतिक्रिया में छठ उत्सव का राजनीतिकरण किया जाएगा तो प्रतिक्रिया क्यों नहीं होगी ? यदि बिहारी या पूर्वी यूपी के प्रवासी मराठी विरोध या अपनी अलग क्षेत्रीय राजनीतिक पहचान के लिए किसी अबु आजमी या कृपाशंकर को चुनेंगें तो सामान्य सोच का मराठी उनसे खतरा क्यों नहीं महसूस करेगा ? वह अपनी जमीन पर किसी और का राजनीतिक प्रभुत्व क्यों स्वीकार करेगा ? उसने महाराष्ट्र के निर्माण की लड़ाई कोई बिहार और पूर्वी यूपी के नेताओं के लिए थोड़े ही लड़ी है ।यह कैसे हो सकता है कि मीडिया और बिहार के नेता क्षेत्रवाद की राजनीति करते रहें और बाकी समाज देशहित में चुपचाप बैठे रहें ? यह स्वाभाविक है कि जैसी राजनीति आप करेंगे वैसा ही जवाब आपको मिलेगा ।
हमें इस सच को स्वीकार करना होगा कि कोई भी समाज अपने संसाधनों व रोजगार पर हमला बर्दाश्त नहीं करेगा और न ही अपनी भूमि पर अल्पसंख्यक होने की नियति स्वीकार करने को तैयार होगा ।आधुनिक लोकतंत्र के मक्का कहे जाने वाले पश्चिमी देशों तक में हिंसक प्रतिक्रियायें होने लगी हैं । यह इस बात का द्योतक है कि हर समाज एक निश्चित सीमा में ही बाहरी लोगों को बर्दाश्त कर सकता है । तिब्बत और पूर्वी तुर्किस्तान के मूल निवासियों को अल्पसंख्यक बनाने की चीनी नीति यदि गलत है तो ऐसी कोशिशें भारत में सही कैसे हो सकती है ? त्रिपुरा का उदाहरण सामने है जहां मूल निवासी अल्पसंख्यक हो गए और वे त्रिपुरा उपजाति समिति के तहत हिंसक आंदोलन करते रहे हैं । वहां माकपा का आधार माक्र्सवाद नहीं बल्कि बंगाली क्षेत्रवाद है । अन्य राज्यों में मूल निवासी अल्पसंख्यक हुए तो वे भी क्या हिंसक प्रतिरोध की ओर नहीं जायेंगे ? यह दुखद है कि हिंदी मीडिया भी इसे हवा दे रहा है । उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने एक ट्रेन मे महाराष्ट्र के निवासियों को खोज-खोज कर बेल्टों से पीटा । महाराष्ट्र में ऐसी ही घटना पर ‘‘राज के गुंडे’’ जैसे आक्रामक जुमले इस्तेमाल करने के लिए कुख्यात किसी हिंदी चैनल ने इसे गुंडागर्दी करार देना तो दूर ढंग से रिपोर्ट तक नहीं किया । राजठाकरे के खिलाफ अपने संपादकीयों में जहर उगलने वाले हिंदी अखबारों ने एक भी संपादकीय सपा की करतूत पर नहीं लिखा ।यह हिंदी मीडिया का अघोषित क्षेत्रवाद नहीं है तो क्या है ? यह अजीब रस्म है कि एक समुदाय क्षेत्रवाद चलाए तो सही और बाकी आत्मरक्षा में क्षेत्रवाद करें तो गलत ।वो कत्ल भी करें.....
मीडिया का यह क्षेत्रवाद हाल में अबु आजमी प्रकरण से भी नंगा हुआ है ।आजमी पर मनसे के विधायकों के हमले की रिपोर्टिंग पूरी तरह से विषाक्त और एकपक्षीय रही । न्यूज चैनलों में तो सदा की तरह इस पर भी हाहाकार मचा रहा । उनके यहां तो यह मुद्दा पाकिस्तान के हमले जैसा राष्ट्रीय संकट बना रहा । अखबारों ने भी पत्रकारिता की मर्यादाओं को लांघ दिया । उत्तर भारत के एक प्रमुख दैनिक ने शीर्षक दिया,‘ हिंदी पर हमला ’ दूसरे ने भी कुछ ऐसी ही भड़काऊ हैडिंग लगाई । इन हैडिंगों को देखकर अयोध्या में कारसेवकों पर हुए गोलीकांड के दौरान की गई सांप्रदायिक रिपोर्टिंग याद आ गई ।अबु आजमी हिंदी मीडिया के नए हीरो हैं क्योंकि वह अंग्रेजी के नहीं बल्कि मराठी के विरोधी हैं । हिंदी को भारतीय भाषाओं के खिलाफ खड़ा करने की इन साजिशों के कामयाब होने से हिंदी को ही घाटा होगा ।मराठी के विरुद्व हिंदी के लिए शोर मचाने वाला हिंदी मीडिया उन फिल्मी सितारों के आगे तो बिछा रहता जो नमक तो हिंदी का खाते हैं और मीडिया से बात अंग्रेजी में करते हैं ।किसी हिंदी अखबार या हिंदी चैनल ने हिंदी के साथ नमकहरामी करने वाले इन सितारों को छापने या टेलिकास्ट करने से इंकार नहीं किया ।
हिंदी के नाम पर हिंदी मीडिया के उन्माद के कोरस में सुधीश पचौरी का शामिल होना चकित करता है । उन्होने तो आजमी को मराठी के विरुद्ध हिंदी के धर्मयुद्ध का योद्धा तक घोषित कर दिया ।गनीमत है कि उन्होने आजमी को आज का लोहिया नहीं बताया । । राजनीति की वैतरणी पार करने के लिए हिंदी की पूंछ पकड़ने वाले आजमी किस किस्म के नेता हैं यह कौन नहीं जानता ।हिंदी को महाराष्ट्र में जिंदा रहने के लिए आजमी या किसी नेता की जरुरत पड़े ईश्वर करे ऐसा दिन हिंदी के इतिहास में कभी न आए ।हिंदी महाराष्ट्र में आजमी के लिए नहीं बल्कि अपने समृद्ध साहित्य व भाषायी सौंदर्य के लिए जानी जाय , पढ़ी जाय और उससे आम मराठी इसलिए नफरत न करें कि वह आजमी जैसे नफरत की राजनीति करने वाले नेताओं की भी भाषा है , काश! ऐसा हो ।पत्रकारिता की बुनियादी सिद्धांतों को ताक पर रखने वाले हाहाकारी हिंदी मीडिया को 10 नवंबर 09 के मराठी अखबार जरुर पढ़ने चाहिए जिनमें हिंदी को लेकर बबाल मचाने पर मनसे की लानत- मलामत की गई है ।पत्रकारिता का धर्म अखबार बेचने के लिए उन्माद पैदा करना नहीं है ।जो ऐसा कर रहे हैं वे अपने बाजारु स्वार्थ के लिए देश की एकता तोड़ रहे हैं और देशद्रोह इसी को कहते हैं ।इस सारी बहस का मतलब यही है कि क्षेत्रीयता और छोटे समाजों के मनोविज्ञान को समझा जाय और उनके द्वंदों को संबोधित करते हुए पलायन और आब्रजन पर कोई राष्ट्रीय नीति बने ।