Powered By Blogger

मेरी ब्लॉग सूची

यह ब्लॉग खोजें

फ़ॉलोअर

पृष्ठ

कुल पेज दृश्य

लोकप्रिय पोस्ट

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

जगह अब भी मौजूद है

‘‘लोग सेलेब्रेटीज और पेज थ्री की हस्तियों की रंगीनियों और उनके भव्य जीवन के बारे में पढ़ना चाहते हैं ’’ इस ऐलान के साथ जब नवभारत टाईम्स ने अपना चोला बदला था तब हिंदी अखबारों में ऐसे मालिकों और संपादकों की कमी नहीं थी जिन्होने इस पर नाक - भौंे सिकोड़ी थी । एक दषक पहले अंग्रेजी अखबारों की तरह वह उदारीकरण और ग्लोबलाइजेषन के नषे में चूर था । पिछले दस वर्षों में अंतर इतना ही हुआ है कि नवभारत टाइम्स और टाइम्स ऑफ इंडिया के उसी रास्ते को भारतीय और खास तौर पर हिंदी पत्रकारिता का मुक्तिमार्ग मान लिया गया है । ‘‘महाजनो गतो येन सः पंथा ’’ के सूत्र वाक्य का पालन करते हुए पत्रकारिता उसी रास्ते पर चल पड़ी है । फर्क बस इतना है कि इस सूत्र वाक्य में वर्णित महाजन का अर्थ महान लोग हैं पर पत्रकारिता के मौजूदा पाणिनियों ने इस वाक्य का अर्थ सामंतकालीन महाजन का अनुसरण करना माना । बड़े जोर शोर से घोषणा कर दी गई कि गरीबी , बेरोजगारी ,भुखमरी जैसी खबरें लोगों के मुंह का जायका खराब करती हैं , इनसे खाते - पीते लोगों के आनंद में खलल पड़ता है , इसलिए ऐसी खबरों का कोई भविष्य नहीं है । खबरें ऐसी हों कि समाज के मोगेंबो खुष हो जांय । लेकिन हाल ही में आजादी के बाद के दौर की पत्रकारिता के एक नामचीन पत्रकार की जन्म शताब्दी के मौके पर बड़ी तादाद में जुटे लोगों ने बताया कि जनपक्ष में लिखी जाने वाली खबरों का बाजार भी है , भूख भी है और कद्रदान भी हैं ।आचार्य गोपेष्वर कोठियाल हिंदी की मुख्यभूमि के पत्रकार नहीं थे । वे उस हाषिये के पत्रकार थे जो भूगोल के आधार पर निर्मित किए गए हैं । भूगोल के बीहड़ में पड़े पहाड़ जैसी पिछड़ी जगह के पत्रकार जिसके बारे में हिंदी का मेनलैंड उतना ही जानता है जितना औसत अमेरिकी भारत के बारे में । उत्तराखंड भारत में ऐसी जगह है जिसका नक्षा तब खोजा जाता है जब कोई बस दुर्घटना या भूस्खलन जैसी आपदा घटती है । उत्तराखंड का भी अपना हाषिया है जो किसी भूगोल ने नहीं बल्कि लगभग 132 साल पुरानी राजषाही ने टिहरी और उत्तरकाषी के रुप में तैयार किया है । इसी अंधेरे हिस्से के एक बाषिंदे थे गोपेष्वर कोठियाल । आजादी के दौर में जब वह पत्रकारिता को अपना भविष्य के रुप में चुन रहे थे तब पत्रकारिता एक ऐसा रुखा - सूखा पेषा था जो कबीर की ‘‘ जो घर फंूकनो आपनो चलो हमारे साथ ’’ जैसे फक्कड़पन की याद दिलाता था । वह दौर जुनूनी पत्रकारिता और मिषनरी भावुकता समय था । देष और समाज को रास्ता दिखाने की बेचैनी में बंधकर लोग पत्रकारिता में आते थे और ऐसे समाज और शक्तियों के बीच पत्रकारिता के लोकतांत्रिक हथियार का उपयोग करते थे जो मिजाज में सांमती था । 17 वीं सदी के संस्कारों और सीमाओं में बंधे समाजों में पत्रकारिता करना खतरनाक और उल्टी गंगा बहाने जैसा दुश्कर काम रहा होगा । ऐसे समय में जब टिहरी में राजषाही की अंतिम दौर में थी और अपनी आसन्न मौत से घबराई यह राजषाही हर रोज बर्बरता के नए हथियार आजमा रही थी तब आचार्य गोपेष्वर कोठियाल पत्रकारिता में आए और इस राजषाही के खिलाफ कलम को हथियार की तरह इस्तेमाल करने के इरादे के साथ आए । वह चाहते तो बेहतर जीवन और भविष्य चुन सकते थे । मास्टर हो जाते और प्राध्यापकी करते हुए किताबें लिखते व पढ़ते - पढ़ाते आराम से जीवन गुजार देते । उस जमाने में जब पांचवीं पास लोग भी चिराग लेकर खोजने से नहीं मिलते थ तब वह काषी हिंदू विष्वविद्यालय से संस्कृत में आचार्य की डिग्री लेकर पहाड़ लौटे थे । उन्ही गोपेष्वर कोठियाल को जन्म शती के मौके पर याद करने के लिए देहरादून में हाल ही में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था । देहरादून का जिक्र आते ही एक ऐसा शहर जेहन में घूमता है जो फिरंगी साहबों से विरासत में मिले चिकनी - चुपड़ी लकड़ी के छोटे से रुल को हाथ में लिए अफसरी ठसक के साथ घूमते रिटायर्ड अफसरों का स्वर्ग माना जाता था । ये अफसर बुढ़ापा बिताने मसूरी की तलहटी में बसे इस शहर में आते । शहर की आबोहवा में मसूरी की ठंडक और मैदान की गर्मी दोनों का ऐसा नायाब मिश्रण था कि देसी अफसर आजादी से पहले और उसके बाद इस शहर के दीवाने रहे । यह सेना और सिविल सर्विसेज के रिटायर्ड अफसरों के शहर के रुप में ही जाना जाता था । ये दोनों मिलकर इसे एक आधा ब्रिटिष और आधा इंडियन कस्बा बनाते थे । ठीक उस काले एंग्लो इंडियन जैसा जो भारतीय दिखने को तैयार नहीं था परंतु दुर्भाग्य से भारत में ही छूट गया था । इन साहबों का छोटा सा डंडा कुछ नहीं बोलता था लेकिन साहब और उनका रुल दोनों की देह की भाषा यह बता देतीे थी कि वे हिंदुस्तान पर ‘रुल’ करके निवृत हुए हैं । उनकी ठसक इस शहर को भले ही ब्रिटेन के करीब ले जाती हो पर देसी साहबों का मिजाज शहर को नफासत भी बख्शता था । इसे सुसंस्कृत बनाने में अ्रंग्रेजियत के वारिस रहे इन अफसरों का योगदान भी कम नहीं रहा । इसके मिजाज में वो साहबी अंदाज आखिर यूंही तो नहीं आया ।लेकिन ये साहब अकेले नहीं थे जिन्होने इसे देहरादून बनाया । कलाकारों , साहित्यकारों , पत्रकारों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की एक ऐसी आकाषगंगा भी इस अंग्रेजी मिजाज के शहर में चमकती रही जिसने इसे हिंदुस्तानियत का रंग बख्शा और उसे राजनीतिक चेतना से धड़कता शहर बनाया । इनके साथ वे आम लोग भी थे जो पहाड़ और मैदान के गांवों और कस्बों से आए थे जिन्होने ठेठ देसीपन का छौंक लगाकर इसे ज्यादा मानवीय शहर बनाया । राजधानी बनने के बाद शहर का मिजाज भी बदला और जीवन भी । इत्मीनान की जिंदगी गुजारने की लत की जगह भागदौड़ की आदत ले रही है । फुरसत के पल सिमट रहे हैंे और हड़बड़ी का आलम सड़कों पर पसर रहा है । लोग जल्दी में हैं इसलिए शहर में हर रोज कोई न कोई कुचल जाता है । कभी सड़क पर चलने वाले किसी बूढ़े या बच्चे वाले को कुचलकर मोटर साइकिल वाला फुर्र हो जाता है तो कभी मोटर साइकिल वाले कीे कुचलकर कोई कार या ट्रक फरार हो जाता है । यह ऐसा शहर में बदल रहा है जहां लोग मिलने के मौके के लिए ाादी - ब्याह का इंतजार करते हैं । सीएमआई या दून अस्पताल में भर्ती हुए बगैर मित्रों और परिचितों से मिलना मुमकिन नहीं हो पाता । दिल में लीची की मिठास और व्यवहार में बासमती की खुषबू लिए गरमजोषी के साथ मिलनेवाली प्रजाति लीचियों और बासमती की तरह दुर्लभ होती जा रही है । ऐसे शहर में बीते जमाने के प़त्रकार को जन्म के सौ साल बाद याद करने का आयोजन करना खतरे से खाली नहीं था । वह भी ऐसे समय में जब पत्रकारिता की साख नेताओं के चरित्र के सूचकांक की तरह हर रोज कुछ और नीचे गिर जाती हो । लेकिन इसके बावजूद आयोजन में लोग न केवल बड़ी तादाद में आयोजन में पहुंचे बल्कि पूरे समय तक कार्यक्रम में मौजूद भी रहे । भले ही तथाकथित बड़े अखबारों के स्वनामधन्य पत्रकारों को पत्रकारिता के इस पुरखे को याद करने की जरुरत महसूस न हुई हो परंतु इससे पत्रकारिता की विरासत और उसके प्रति कृतज्ञता जताने को लेकर उनकी अरुचि जरुर झलकती है । लेकिन मुख्यधारा की पत्रकारिता की कृतघ्नता से परे हटकर देखें तो यह साफ दिखा कि आम लोगों ने इस मौके पर आकर पत्रकारिता के उस पुरखे के प्रति अपनी कृतज्ञता जताने में कोई कंजूसी नहीं दिखाई वह भी तब जब शहर संवेदना के स्तर पर मरुस्थल में बदल रहा हो । लोगों का यह लगाव और जुड़ाव बताता है कि जनपक्षधर पत्रकारिता को बीते जमाने का शगल करार देने की तमाम कोषिषों के बावजूद जनता के पक्ष में खड़ी पत्रकारिता के कायल लोग हैं । वह भी तब जब कहा जा रहा हो कि मध्यवर्ग हल्की - फुल्की खबरें पढ़ना चाहता है । मध्यवर्ग से जुड़े लोगों की भीड़ और उनकी चिंताओं ने बताया कि जैसे - जैसे मुख्यधारा के अखबार सूचना पत्र में बदल रहे हैं वैसे - वैसे खबरों की भूख भी बढ़ रही है । इसका सीधा मतलब है कि मुख्य धारा के अखबार अलोकतांत्रिक तरीके से आम पाठकों पर अपनी पसंद का कंटेंट थोप रहे हैं ।अखबारों के दफ्तरों में लोकरुचि के नाम पर विचार और जनपक्षधरता की खबरों की हत्यायें किए जाने की घटनाओं के बीच यह सुकून से भर देने वाली घटना है जिसे रेखांकित किए जाने की जरुरत है ताकि आने वाले इतिहास में यह जरुर दर्ज किया जाय कि बड़े अखबार जब लोगों के पक्ष में खड़ी खबरों के कत्ल में जुटे थे तब लोग उनके साथ नहीं थे । यह वाकया उम्मीद जगाता है । यह एक मौका है उन लोगों के लिए जो पत्रकारिता को उसकी पेषागत ईमानदारी के साथ अंजाम देना चाहते हैं । यह चुनौती भी है । क्योंकि 21 वीं सदी की पत्रकारिता आठवें दषक की जनपक्षधरता वाले स्टाइल में नहीं चल सकती । उसे अपने लिए किसी ताजे मुहावरे, षिल्प और भाषा की तलाष करनी होगी । नवें दषक में जनसत्ता और नवभारत टाईम्स ने प्रभाष जोषी और राजेंद्र माथुर की अगुआई में पत्रकारिता की नई भाषा और षिल्प ईजाद कर उसे आजादी के दौर की जड़ता से मुक्त किया था । अब समय है कि 21 वीं सदी की पत्रकारिता अपने समय के साथ कदम ताल करते हुए पिछले दो दषकों से आई जड़ता को तोड़कर नई जमीन तलाषे । पत्रकारिता के सामने नए षिल्प और मुहावरे की तलाषने की चुनौती हर समय रहेगी क्योंकि संप्रेषण के माध्यम की तकनीक हर रोज बदल जारही है तो बाजारवाद लोगों की रुचियों को अपने हिसाब से तय करने पर आमादा है । ऐसे में जनपक्ष आउटडेटेड होने वाला नहीं है । एक हथियार के तौर पर उसकी जरुरत बढ़ती रहने वाली है । आचार्य गोपेष्वर कोठियाल की जन्म शती के मौके पर आई भीड़ यही कहना चाहती है ।