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शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

विकीलीक्स ने तोड़ा सूचना पर सरकारी एकाधिकार

दुनिया की सबसे चर्चित वेबसाइट विकीलीक्स के खुलासों ने अमेरिका और पाकिस्तान को हिला दिया है। पेंटागन के रहस्यलोक में दुनिया की सबसे कड़ी चौकसी में रखे गए एक लाख से ज्यादा सर्वाधिक संवेदनशील खुफिया फौजी दस्तावेजों को इंटरनेट पर जारी कर विकीलीक्स ने दुनिया भर में तहलका मचा दिया है। पहली बार व्हाइट हाउस और पेंटागन में सूचना की ताकत से हड़कंप मचा हुआ है। इन रहस्योद्घाटनों से साफ हो गया है कि आतंकवाद निर्यात करने वाले देशों में पाकिस्तान अभी भी टॉप पर है और यह सब वह अमेरिका की जानकारी में कर रहा है। इसी के साथ आंतकवाद के खिलाफ अमेरिकी जंग के पाखंड का भी पर्दाफाश हो गया है। ये दस्तावेज बताते हैं कि काबुल में भारतीय दूतावास से लेकर भारतीय संस्थानों पर तालिबानी हमले आईएसआई द्वारा प्रायोजित होने की जानकारी अमेरिका को थी। जाहिर है कि भारत के साथ उसकी दोस्ती सिर्फ कूटनीतिक धोखाधड़ी से ज्यादा कुछ नहीं है। इससे अमेरिका के प्रति भारत सरकार के झुकाव पर भी सवालिया निशान लग गया है और पाक के साथ उसकी बातचीत भी अमेरिकी हितों के लिए की गई कवायद ही प्रतीत होती है। इंटरनेट की दुनिया के इस सबसे बड़े खुलासे से दुनिया की सारी सरकारों के माथे पर बल पड़ गए हैं क्योंकि जनता से छुपाकर रखे गए उनके खुफिया राज कभी लीक हो सकते हैं। सूचना की आजादी के नजरिये से यह बड़ी घटना है। अभी तक सूचनाओं की राजनीति के जरिये कभी चीन तो कभी ईरान तो कभी रुस को काबू में करने में लगे अमेरिका के लिए विकीलीक्स दुस्वप्न बनकर आया है। पिछले महीनों गूगल और चीन के विवाद में चीन को इंटरनेट पर सूचनाओं की आजादी का पाठ पढ़ाने वाले अमेरिका को अब खुद इसका मजा चखना पड़ रहा है। अपने प्रतिद्वंदी देशों के असंतुष्टों और विद्रोहियों के प्रचार को मदद देने के लिए अमेरिका सूचना की आजादी का सबसे बड़ा समर्थक रहा है। दुनिया में समाचार और सूचनाओं के अधिकांश माध्यमों में सूचनाओं का प्रवाह एकपक्षीय रहा है। ईरान,इराक से लेकर क्यूबा तक पाश्चात्य दुनिया के सारे माध्यमों में सूचनाओं का समूचा प्रवाह अमेरिका की ओर रहा। अपने दुश्मनों से निपटने के लिए उसने सूचनाओं को हथियार के रुप में इस्तेमाल किया। इससे सूचना की आजादी अमेरिकी हितों की पर्याय हो गई। लेकिन विकीलीक्स ने सूचनाओं के इस खेल का पासा पलट दिया है। इंटरनेट पर अब तक के सबसे बड़े खुलासे को अंजाम देते हुए उसने अमेरिका को सांसत में डाल दिया है। आईएसआई और पाक फौज से उसके रिश्तों के चलते आतंकवाद के खिलाफ उसकी बहुप्रचारित लड़ाई की पोल खुल गई है। यह भी जग जाहिर हो गया है कि उसे हामिद करजई और भारत के खिलाफ किए जाने वाले हमलों की जानकारी थी। उसके लिए सबसे असुविधाजनक यह है कि उसे अमेरिकी जनता को जबाब देना होगा कि वह खरबों डालर उन संस्थाओं पर क्यों खर्च कर रहा है जो ग्लोबल आतंकवाद के सबसे बड़े निर्यातक हैं। दुनिया की हर सरकार गोपनीयता और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सूचनाओं को आम लोगों तक नहीं पहुंचने देती। यहां तक दुनिया में लोकतंत्र के सबसे बड़े पहरेदार होने का दावा करने वाले देश भी इसके अपवाद नहीं हैं। विकीलीक्स ने सूचनाओं की दुनिया पर सरकारों के एकाधिकार को खत्म कर दिया है। सरकार के कड़े पहरों के बीच उसने चोर दरवाजे खोज लिए हैं। यह सही मायनो में सूचना की आजादी और उसके निर्बाध संचरण की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम है। इससे साबित हो गया हैै कि इंटरनेट की तरंगों पर अब अमेरिकी लगाम के दिन भी लद गए है। भविष्य में हर देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं होगी जो सरकारों की गोपनीयता के परखच्चे उड़ाने के लिए विकीलीक्स को खुफिया दस्तावेज मुहैया करायेंगे। इसे सरकारों के कामकाज में साफगोई और पारदर्शिता की शुरुआत माना जाना चाहिए। सूचनाओं के तंत्र पर सरकारी एकाधिकार टूटने से उम्मीद की जाने चाहिए कि इसके बाद किसी न किसी दिन नागरिकों के खिलाफ इस्तेमाल होने वाली अंधाधुंध हिंसा पर राज्य का एकाध्किार भी टूटेगा। दिन ब दिन हिंसक,गैर जबाबदेह और गैर जिम्मेदार होते जा रहे आधुनिक राज्यों पर जनशक्ति का अंकुश लग सकेगा।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

सरकार को निजी हाथों में सौंपो

हाल ही में यूएनडीपी के आंकड़े आए हैं जिनसे पता चलता है कि भारत के ग्लोबल आर्थिक महाशक्ति बनने का जो तिलिस्म भारत सरकार, राजनेता और मीडिया बना रहा था वह सफेद झूठ के सिवा कुछ नहीं है। वह भी ऐसा झूठ जिसके पैर भारत की जमीन के बजाय अमेरिका में हैं। यूएनडीपी की रिपोर्ट हमें यह गर्व करने का दुर्लभ मौका देती है कि आजादी के 63 सालों में गरीबी और भुखमरी के मोर्चे पर हमसे आगे सिर्फ अफ्रीकी देश हैं। जितनी निष्ठा, लगन और समर्पण के साथ देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, गृहमंत्री चिदंबरम और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह काम कर रहे हैं उससे यह भरोसा मजबूत होता है कि अगले चार सालों में हम गरीबी के मोर्चे पर होंडुरास, हैती,चाड जैसे पिद््््दी देशों को पछाड़ने में कामयाब हो जायेंगे।
पिछले दिनों कई खबरें चर्चा में रही जिनमें मिलावटखोरी से लेकर महंगाई तक कई मुद्दे थे। देश में मिलावटखोरों के हौसले की तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होने प्रधानमंत्री को भी नहीं बख्शा। मिलावटखोरों को लगा होगा कि पीएम यूपी आ रहे हैं तो वे प्रदेश के सबसे बड़े जायके से रुबरु हुए बगैर कैसे जा सकते हैं। मिलावटखोरों की इस लोकतांत्रिक भावना का भी सम्मान किया जाना चाहिए कि वे मिलावट के मामले में आम आदमी और प्रधानमंत्री में भेदभाव नहींे करते। अब हर रोज मिलावट के एक से एक मामले सामने आ रहे हैं। यूपी के सकल घरेलू उत्पाद में मिलावट का कितना योगदान है,इस पर अर्थशास्त्रियों को शोध करना चाहिए। मिलावटखोरों की सत्ता जिस निर्विघ्नता से फल-फूल रही है उससे लगता ही नहीं कि इस देश में कोई सरकार है। ऐसा लगता है कि सरकार बाजार को मिलावटखोरों के हवाले कर भाग गई है। उधर अपराधों के मामले सरकार को नदारद हुए एक अर्सा हो गया है। अपराधों को लेकर जो थोड़ा बहुत पुलिसिया हलचल दिखाई देती है वह भी इसलिए कि आम आदमी को लगता रहे कि देश में पुलिस है और सरकार भी। ताकि आम आदमी डरा रहे और पुलिस पर अरबों रुपए के खर्च जस्टिफिकेशन होता रहे। इधर महंगाई के मामले में भी सरकार सीन से गायब हो गई है। इस बार वह बिना बताए गायब नहीं हुई बल्कि उसने ढ़ोल पीटकर बताया कि महंगाई बाजार और लोगों के बीच का मामला है इसलिए इसमें सरकार का क्या काम ? पेट्रोल, डीजल में भी सरकार ने मोर्चा अब अंतराष्ट्रीय बाजार के हवाले कर दिया है। अनाज की उपलब्धता से लेकर कीमतों तक का सारा काम सरकार ने वायदा बाजार को सौंप दिया है।अब यह उसकी मर्जी है कि कौन सा अनाज कब बाजार से गायब होगा और कब,किस भाव से बाजार मे कब आएगा । सरकार इस झंझट में नहीं पड़ेगी। अतिक्रमण से लेकर पानी, बिजली, सफाई, स्वास्थ्य और टैªिफक जैसी जरुरी व्यवस्थाओं से सरकार ने 90 के दशक में ही विदाई ले ली थी। यूएनडीपी की रिपोर्ट बता रही है कि गरीबी के मामले में भारत का मुकाबला अब सिर्फ अफ्रीकी देशों से है। 55 फीसदी आबादी गरीब है। यह उस देश का हाल है जिसके बारे में कहा जा रहा है कि वह विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है।हालांकि देश के न्यूज चैनल अरबपतियों और करोड़पतियों की बढ़ती तादाद के आंकड़े पेश कर आम लोगों को इस पर छाती फुलाने के लिए उकसाते नजर आते हैं।गरीबों की इस बढ़ती तादाद से यह भ्रम भी दूर हो गया है कि इस देश में गरीबों की रक्षा के लिए सरकार की जरुरत है। गरीबी के महासागर में मनरेगा के छुटपुट टापुओं को छोड़ दें तो आम आदमी के लिए सरकार की उपयोगिता सिफर है। सरकार की आखिरी जरुरत जिस न्याय के लिए पड़ती है उसका हाल सब जानते हैं कि वह पैसे और प्रभुत्व वाले वर्ग के लिए आरक्षित है।
ऐसे में सवाल उठता है कि जब सरकार न रोजी, न रोटी, न कपड़ा, न मकान, न दवा, न इलाज ,न सुरक्षा और न्याय दे पा रही हो और तो और वह अपने नागरिकों के जीवन जीने के नैसर्गिक अधिकार की रक्षा करने में भी असमर्थ हो तो फिर नागरिकों के लिए उसकी जरुरत क्या है? नेताओं, अफसरों और सरकारी अमले पर खर्च होने वाले अरबों-खरबों रुपए का बोझ लोग क्यों उठायें? सरकार को बेवजह ढ़ोने का क्या तुक है ?जब निजी क्षेत्र ही सारी बीमारियों का इलाज है तो सरकार को भी क्यों न उसी निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया जाय?इससे देश को भ्रष्ट और अयोग्य नेताओं के उस झुंड से छुटकारा मिलेगा जो हर चुनाव में झूठ और हराम के पैसों के बल पर विधानसभाओं और संसद में काबिज हो जाता है। बोनस के तौर पर लोगों को उन अफसरों और सरकारी तंत्र से भी निजात मिलेगी जिनकी लालफीताशाही से सारा देश त्रस्त है। क्योंकि भारत में सरकार अब जनकल्याण के लिए नहीं बल्कि सरकारी अमले के भरण पोषण और भ्रष्टाचार के लिए चलाई जारही है।