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बुधवार, 15 जून 2011

मकबूल फिदा हुसैन के बहाने नए भारत की खोज
By Rajen Todariya
मकबूल फिदा हुसैन की मौत पर देश भर में तीन तरह की प्रतिक्रियायें सामने आईं। पहली श्रेणी में वे लोग थे जिन्होने एक भारतीय की तरह उनके निधन पर शोक व्यक्त किया। दूसरी श्रेणी में वे लोग थे जिनके लिए हुसैन की मौत से ज्यादा दुखद यह था कि उनको हिंदू कट्टरपंथियों के दबाव में बुढ़ापे में देश छोड़कर जाना पड़ा । इस प्रतिक्रियाओं में कट्टरपंथ के खिलाफ गुस्सा भी था और चिंता भी कि कट्टरपंथ देश में कला,साहित्य के लिए भी उन्मादी हिंदू एजेंडा तय करने पर आमादा है।इन दोनों श्रेणियों के लोगों ने हुसैन के जीवित रहते हुए उनके साथ हुए सलुक पर कभी सड़क पर आने की जरुरत नहीं समझी। तीसरी श्रेणी में वे लोग हैं जो हुसैन की मौत पर खुश भी थे और उनके चित्रों के लिए उन्हे गलिया भी रहे थे। हिंदू उन्मादियों का यह तबका मरणोपरांत भी हुसैन को माफ करने के तैयार नहींे है। उन्हे 90 साल के एक अशक्त और निहत्थे बूढ़े कलाकार को परेशान कर उसे देश छोड़ने के लिए बाध्य करने के भगवा ब्रिगेडों के शौर्य और पराक्रम पर कोई पछतावा नहीं है उल्टे वे इस पर मुग्ध हैं।हम जिसे भारतीय लोकतंत्र कहते हैं वह इन्ही तीन ताकतों से मिलकर बनता है। क्योंकि बाकी लोग जो हुसैन को जानते और पहचानते नहीं। वे वोटर तो हैं पर भारतीय लोकतंत्र में उनकी कोई भूमिका नहीं है। उस हाशिए के भारत को छोड़ दंे तो यही तीन तबके वह भारत को बनाते हैं जो उदारीकरण के बाद तैयार हुआ है। यह नया भारत है जिसे बाबा रामदेव, अन्ना हजारे ,कारपोरेट कंपनियां और टीवी चैनल तक सारे खोज रहे हैं। हुसैन के बहाने इस भारत की खोज की जानी चाहिए । उदारीकरण के बाद जनमे इस भारत को समझना इसलिए भी जरुरी है क्योंकि भारतीय लोकतंत्र की दिशा भी यही भारत तय करता है। जिन लोगों ने हुसैन के निधन पर एक भारतीय के नाते दुख व्यक्त किया वे भारत की उस उदात्त परंपरा के प्रतिनिधि हैं जो विभिन्न धाराओं और प्रवाहों की स्वायतत्ता का सम्मान करती है। यह धारा मानती है कि भारतीय राष्ट इन्ही अनेकताओं और मतभिन्नताओं के सम्मान से बनता है। उनका भारत इकहरा भारत नहीं है बल्कि वह विभिन्न रंगों और परस्पर विरोधी स्वभाव और स्वार्थ वाले धागों की ऐसी जटिल बुनावट वाली संरचना है जो एक दूसरे से टकराती भी हैं और एक-दूसरे में गहरी गुंथी हुई भी है। इस तबके के लिए हुसैन भारत की उस मनीषी परंपरा के प्रतिनिधि हैं जो चार्वाक,कालिदास, बाणभट्ट से लेकर गालिब, रविंद्रनाथ टैगोर तक अनगिनत धाराओं से मिलकर बनती है। दूसरी श्रेणी में वह तबका आता है जो हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा हुसैन के साथ किए गये दुर्व्यवहार और उसके चलते उनके द्वारा देश छोड़े जाने की घटना से आहत है। यह वर्ग जानता है कि कला-साहित्य पर दलीय या सांप्रदायिक एजेंडा लागू करने के खतरे क्या हैं? ये लोग उस उन्माद के कारण लोकतंत्र के ताने-बाने पर पड़ने वाले असर से भली भांति वाकिफ हैं। मोटे तौर इन दोनो तबकों में भारत की विविधता की अकादमिक समझ रखने वाले लोग भी हैं और सतही समझ रखने वाले लोग भी हैं। वे भारत को उतना ही जानते हैं जितना वह किताबों,फिल्मों,वृत्तचित्रों समेत जनसंचार के विभिन्न माध्यमों से दिखाई देता है। इनके भारत का छोटा सा हिस्सा ही उनके अनुभवों से बनता है। इन दोनों तबकों की खासियत यह है कि उनको भारत से हुसैन का निर्वासन नागवार तो बहुत गुजरा है लेकिन वे तब बिल्कुल निष्क्रिय रहे जब संघ परिवार उच्चस्तर पर तय की गई अपनी रणनीति के तहत एम।एफ के खिलाफ देश के विभिन्न कस्बों,शहरों में मुकदमे दर्ज करवा रहा था। वे तब भी चुप थे जब हुसैन की प्रदर्शनियों पर भगवा ब्रिगेडों की अर्द्धविक्षिप्त भीड़ हमला कर रही थी। टीवी बहसों के लोकप्रिय चेहरे, सेकुलरवाद के धुरंधर पहरुए और कैंडिल मार्चों के संभ्रांत योद्धा तब सड़कों पर नहीं उतरे। उन्होने हस्तक्षेप करने के बजाय कला का मैदान उपद्रव कला में माहिर भगवा ब्रिगेडों की वानर सेना के लिए खुला छोड़ दिया था। जाहिर है कि जुबानी विरोध और कागजी चिंताओं के बूते सांप्रदायिक फासीवाद को पराजित नहीं किया जा सकता। हुसैन का आत्मनिर्वासन भगवा ब्रिगेडों के इन्ही हमलों से उपजी एक असहाय बूढ़े आदमी की हताश प्रतिक्रिया थी।इन दोनों तबकों से बिल्कुल अलग वह तबका है जो मुखर है और आक्रामक भी। उदारीकरण के बाद शहरी भारत और ग्रामीण अभिजात्य के मेल से जो भारत बना है उसमें यह तबका सबसे ज्यादा प्रभावी है। इसके पास उच्च मध्यवर्गीय और उच्च वर्गीय आर्थिक आधार भी है तो इसके पास उपद्रवों के जरिये विध्वंस के लिए दीक्षित निम्नमध्यवर्गीय वानर सेना भी है। यानी इसका सामाजिक आधार दो तरह के वर्गों से तैयार होता है। जहां उसे सांप्रदायिक युद्धों के लिए मानव बल की आपूर्ति निम्नमध्यवर्ग से होती है वहीं उसे सांप्रदायिकता और कट्टरता को फाइनेंस करने का धनबल उच्च मध्यवर्ग और उच्चवर्ग से मिलता है। आर्थिक कारणों से पैदा हो रहे असंतोष को सांप्रदायिक आधार पर मुस्लिमों और ईसाईयों की ओर मोड़ने से उच्चवर्ग के हित सुरक्षित रहते हैं। दरअसल भगवा ब्रिगेडें आर्थिक आधार पर विभाजन रोकने के लिए सांप्रदायिक विभाजन का एक बफर जोन तैयार करती हैं ताकि उच्च वर्ग के सेठ लोग मध्यवर्ग के उस गुस्से से बचे रहें जो आर्थिक असुरक्षा,महंगाई और बेरोजगारी से जमा हो रहा है। उदारीकरण के बाद जो विशाल मध्यवर्ग तैयार हो रहा है वह लोकतंत्र में मौजूद सारे लोकतांत्रिक स्पेस को तेजी से झपटता जा रहा है। इसका बड़ा हिस्सा स्वभाव से आक्रामक, बेचैन, रातोंरात अमीर बनने को उतावला और अंधविश्वासी है। भगवा ब्रिगेडों का प्रचार तंत्र इसके दिमाग में अपनी सूचनायें भरने में कामयाब रहा है। इसी प्रचार का कमाल है कि वे इस देश की दुर्दशा के लिए या तो मुसलमानों को जिम्मेदार मानते हैं या फिर आरक्षण का लाभ लेने वाले दलितों और पिछड़ों को। ये दोनों तबके लालू,मुलायम,मायावती से उनके भ्रष्टाचार से ज्यादा उनकी जाति के कारण नफरत करते हैं। इनका भ्रष्टाचार उनकी जातीय श्रेष्ठता की अवधारणा को तर्क और औचित्य प्रदान करता है। ये वर्ग नीतिश कुमार की आड़ में अपने सवर्ण कैनाइन टीथ छुपाए रखने में माहिर भी हैं ताकि उन पर सवर्णवाद का ठप्पा न लग सके। उन्हे पिछड़ों और दलितों के वे नेता पसंद हैं जो सवर्णों के साथ मेलमिलाप कर चलने में यकीन रखे न िकवे जो आक्रामक जातीय गोलबंदी में यकीन रखते हैं। आक्रामक हिंदूवाद में यकीन रखने वाले ये इन लोगों में अधिकांश नियमित पूजा करने के कायल भी हैं तो रात की शराब पार्टियों के शौकीन भी हैं। राजनीतिक रुप से इनमें से अधिकांश कांग्रेस विरोधी हैं पर इनमें से कई अपने सांप्रदायिक कलर के साथ कांग्रेस समर्थक भी हैं। कांग्रेस की जो नरम हिंदू सांप्रदायिकता है वह इन्ही तत्वों के प्रभाव से पैदा होती है।दिलचस्प यह है कि उदारीकरण से समृद्ध हुए इन लोगों में से भारत की उदात्त परंपरा से कोई लेना देना नहीं है। वे मुसलमानों से इस कदर नाराज हैं कि चार्वाक या कालिदास को नहीं जानना चाहते। वे मतभिन्नता की आजादी की सदियों पुरानी भारतीय विचार परंपरा को भी नहीं जानना चाहते। संघ परिवार की तरह वे भी अहिंसा और मतभिन्नता की आजादी या धर्मनिरपेक्षता को हिंदुओं की कायरता मानते हैं।यह ऐसा भारत है जो देश की सारी समस्याओं के लिए बाबर, मुसलमानों, महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरु को जिम्मेदार मानता है। ये भगत सिंह और सुभाष बोस को उनकी समाजवादी विचारों के लिए नहीं पूजते बल्कि गांधी विरोध के लिए पूजते हैं। कम्युनिस्ट होने कारण वे चीन से नफरत भी करते हैं और ताकतवर होने के कारण उसके प्रशंसक भी हैं।उनका सबसे बड़ा और दिलचस्प अंतर्विरोध यह है कि वे इस्लाम से नफरत भी करते हैं और उसकी कट्टरता के कायल भी हैं। हिंदुओं का कोई राजनीतिक और धार्मिक सत्ता केंद्र न होने से वे परेशान हैं इसलिए वे इस्लाम और सिख धर्मो पर फिदा हैं। आक्रामक सांप्रदायिकता के कायल ये लोग इस्लाम और सिखिज्म की तरह हिंदुओं में भी एक अर्द्ध धार्मिक,अर्द्ध राजनीतिक सत्ताकेंद्र विकसित करना चाहते हैं ताकि साधु-संतों और संघ परिवार के मध्ययुगीन सामंती गिरोहों को हिंदुओं के लौकिक जीवन को भी नियंत्रित करने का अधिकार मिल सके। दरअसल उन्हे लोगों के लौकिक व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए फतवा देने का इस्लामी अधिकार चाहिए। हुसैन के खिलाफ फतवा देकर उन्होने बताया भी कि उनके पास अपने फतवों को लागू करने की ताकत भी है। इनमें से कई लोग अक्सर तर्क देते हुए मिल जायेंगे कि क्या एमएफ हुसैन मोहम्मद साहब के चित्र बना सकते थे? चूंकि इस्लाम हुसैन को यह आजादी नहीं देता इसलिए हिंदूधर्म को भी उन्हे यह आजादी नहीं देनी चाहिए। जाहिर है कि वे इस्लाम के इसी कट्टरपन के कायल हैं। यह भले ही अजीब लगे लेकिन सच्चाई यही है कि मुसलमान बिरादरी के बाहर इस्लामी कट्टरता का अनुसरण करने वाला यह सबसे बड़ा तबका है। इस मायने में वे अयातुल्ला खुमैनी और तालिबानी मुल्ला उमर के सबसे करीबी सहोदर हैं। ये भी उमर और खुमैनी की तरह अपने धर्म के उदारवादियों के खून के प्यासे हैं और सबसे पहले इन्हे ही कत्ल करने का हक हासिल करना चाहते हैं। यदि उनके धार्मिक और राजनीतिक डीएनए का परीक्षण किया जाय तो वे भारतीय मनीषी परंपरा के बजाय अरबी नस्ल के ज्यादा करीब हैं। अंतर बस इतना है कि यदि खुमैनी और मुल्ला उमर का ब्लड ग्रुप ‘ओ पॉजीटिव’ मान लिया जाय तो इनका ब्लड ग्रुप शर्तिया ‘ओ नेगेटिव’ ही निकलेगा। उनका हिंदू धर्म दरअसल इस्लाम का नेगेटिव संस्करण है। कोई भी नेगेटिव मौलिक नहीं होता बल्कि अपने पॉजिटिव का ही उल्टा होता है। यह तबका खुद तो लोकतंत्र के सारे लाभ लेना चाहता है पर जब बाकी लोग इनके खिलाफ अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग करना चाहते हैं तब ये बिदक जाते हैं। इस्लाम के नक्शे कदम पर चलते हुए ये भी यही चाहते हैं कि हिंदू देवी-देवता, अवतारों के लौकिक व्यवहार पर कोई सवाल न उठे। सदियों से भगवान राम, कृष्ण समेत अन्य देवताओं पर उठाए जा रहे सवाल अब न उठाए जांय। शंबूक की हत्या से लेकर बालि वध और सीता को निकाले जाने तक जो सवाल हैं वे आज न पूछे जांय।जाहिर है कि वे एक तर्क पर आधारित समाज नहीं बल्कि अंधविश्वासी भेड़ों की जमात चाहते हैं ताकि धर्म के गडरिये भारतीय जनता को अपने हिसाब से हांकते रहें।वे चाहते हैं कि खरबों रुपए जमा करने वाले साधु-संतों,पंडे-पुजारियों के गिरोहों को गाय की तरह पवित्र, अवध्य और अलौकिक घोषित कर दिया जाय ताकि उनकी लूट जारी रहे।उदारीकरण ने भारतीय समाज के परंपरागत उदात्त स्वरुप को बुरी तरह से प्रभावित किया है। भारतीय समाज में उन्मादी और आलोचना बर्दाश्त न कर सकने वाली राजनीति का एक स्पेस विकसित हो चुका है। इसे एमएफ हुसैन के बहाने भी समझा जा सकता है और बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आंदोलनों से भी। क्योंकि लोकतांत्रिक अधिकार के नाम पर शुरु किए गए इन दोनों मध्यवर्गीय आंदोलनों के भीतर भी नेतृत्व पर सवाल उठाने का जनतांत्रिक स्पेस गायब है।

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