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मंगलवार, 24 नवंबर 2009

उत्तराखंडः लूट और झूठ के नौ साल


आंदोलन के डेढ़ दशक और राज्य बनने के 9 साल के राजनीतिक सफरनामे की उलटबांसी यह है कि उत्तराखंड की राजनीति के खेवनहार वही दल बने हैं जिन्हे आंदोलन ने खारिज कर दिया था ,जिनके नेता लोगों के डर से भाग खड़े हुए थे ।एक राज्य के रुप में उत्तराखंड जब10वें वर्श में दाखिल हो रहा है तब हालात 1994 से ज्यादा बदतर हो चुके हैं । पहाड़ी राज्य का सपना चकनाचूर हो चुका है ।उत्तराखंड आंदोलन के मकसदों को दफनाया जा चुका है । सतह के नीचे असंतोष का लावा फिर जमा हो रहा है । उत्तराखंड एक और आंदोलन के मुहाने की ओर है । पता नहीं कब, कौन सी चिंगारी पूरे पहाड़ को सुलगा दे । उत्तराखंड सदियों से इतिहास की अंधेरी गुफा में बंद रहा है । प्राकृतिक आपदाओं और मानव निर्मित विपदाओं के जिन दौरों से यह समाज गुजरा है उनसे दुनिया के बहुत कम समाज गुजरे होंगे । इतिहास के इस अंधेरे हिस्से में वे अनगिनत काली रातें भी हैं जब 1803 के भीशण भूकंप से तबाह हुए समाज को इतिहास का सबसे बर्बर हमला गोरखा आक्रमण के रुप में झेलना पड़ा था । लगभग तीन लाख लोगों को जानवरों की तरह जंजीरों में जकड़कर गोरखा आक्रमणकारियों ने हरिद्वार और रुद्रपुर की मानव मंडियों में दास बनाकर बेच दिया गया । ऐसी अनेक हृदय विदारक त्रासदियों के साक्षी रहे हिमालय के इस समाज तक आजादी भी आधी - अधूरी ही पहुंची । उत्तराखंड में जनअसंतोष विभिन्न आंदोलनों की भाशा में बोलता रहा लेकिन 1994 का उत्तराखंड बाकी कारणों के साथ पहाड़ियों की पहचान का आंदोलन था । क्षेत्रीयता का यही पुट इसका मुख्य स्वर था । अपनी तमाम तेजस्विता और अनूठेपन के बावजूद उत्तराखंड आंदोलन 1996 के बाद दम तोड़ चुका था ।आंदोलन का ज्वार उतर चुका था । उत्तराखंड आंदोलन की ताकतें तो 1997 से ही चुकने लगीं थी । राज्य बनते - बनते ये ताकतें कुछ खुद के पराक्रम और कुछ जनता की अनदेखी से हाषिये पर चली गईं । 1994 के जनसैलाब के डर से भूमिगत हुए दल और उनके नेता 1995 में ही अपनी राजनीति और इरादों के साथ फिर से प्रगट होने लगे थे ।1996 के लोकसभा चुनाव में लोगों ने चुनाव बहिष्कार के अस्त्र के जरिये उनका प्रतिकार किया पर उसके बाद राजनीति फिर पुराने ढ़र्रे पर लौट आई। 1994 के आंदोलन में सपा,बसपा और कांग्रेस के खिलाफ उमड़ी जनभावनाओं को भुनाने में भाजपा कामयाब रहीं उसके पास आरएसएस और उसके संगठनों का जमीनी नेटवर्क तो था ही साथ राजनीति के दांवपेंचों में माहिर घाघ नेताओं की पूरी फौज थी । उत्तराखंड आंदोलन की फसल भले ही आंदोलनकारियों ने उगाई हो लेकिन जब काटने और संभालने की बारी आई तब उनके पास न तो फसल काटने में कुशल लोग थे और न ही संभालने के लिए अक्ल और कुठार ही थे । लिहाजा आंदोलन से पकी जनमत की फसल भगवा ब्रिगेडें ले उड़ीं । खारिज किए गए नेता ताल ठोंकने लगे थे । उत्तराखंड आंदोलन हार चुका था । इस हार ने उत्तराखंड को हताषा के हिमयुग में धकेल दिया । हताशा के इसी हिमयुग में जब 9 नवंबर 2000 की आधी रात को राज्य बना तब उत्तराखंड के अधिकांश गांव सो रहे थे । अहंकार से भरी केंद्र की एनडीए सरकार ने उत्तराखंड मांग रहे लोगों को उत्तरांचल राज्य दिया । यह जानते हुए भी कि उत्तराखंड में आरएसएस,भाजपा के सिवा ‘उत्तरांचल’ का कोई माई बाप नहीं है पर राजहठ में डूबी सरकार जनता की इच्छा पर अपना नाम थोपने से ही गौरवान्वित थी । बिन मांगे समूचा हरिद्वार जिला उत्तराखंड की झोली में डाल दिया गया , पर आम लोगों ने इसे केंद्र की कृपा मानने के बजाय पहाड़ के मूल निवासियों की आबादी को संतुलित करने वाले क्षेत्रवाद के रुप में देखा । भाजपा को कोई पहाड़ी मुख्यमंत्री तक न मिला और पहला ही मुख्यमंत्री हरियाणवी मूल का बना दिया गया । राजधानी पहाड़ में घोषित करने के बजाय वह भी मैदान में बना दी गई । राज्य पहाड़ी और मुख्यमंत्री से लेकर राजधानी तक सब कुछ मैदान का , ऐसा सलूक शायद ही किसी और समाज के साथ हुआ होगा ! इन सारे कदमों और राज्य पुनर्गठन अधिनियम की व्यवस्थाओं में क्षेत्रवाद का डंक छिपा हुआ था । राज्य तो बन गया लेकिन उत्तराखंड में संदेश यह गया कि केंद्र ने राज्य नहीं दिया बल्कि उन्हे आंदोलन के लिए दंडित किया है । भाजपा को इसका दंड भी भुगतना पड़ा । राज्य निर्माण करने के राजसी अभिमान पर इतरा रही भाजपा को उत्तराखंड की जनता ने वनवास का दंड देकर बताया कि प्रछन्न क्षेत्रवादी एजेंडे को वह भी समझती है । असली खेल तो राज्य बनने के बाद शुरु हुआ । जो मंत्री बने वे पहाड़ के सादेपन के प्रतिनिधि बनने के बजाय यूपी की राजनीतिक कल्चर के इतने उत्साही वारिस साबित हुए कि यूपी के नेता भी उनकी ठसक के आगे पानी भरने लगे । शांत पहाड़ों में रातोंरात गनर वाली प्रजाति के नेता प्रगट हो गए । राजनीति की ये अधभरी गगरियां भौंडेपन के साथ सरेआम छलकने लगीं तो लोगों को लगा कि यह तो यूपी से भी गया- गुजरा प्रदेश बन रहा है । राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के विस्फोट का सिलसिला शुरु हो गया । कारों और टैक्सियों पर नेमप्लेटधारी नेताओं की फौज सड़कों पर उतर आईं । उन्हे सरकारी योजनाओं में अपना हिस्सा चाहिए था । यह नए राज्य में कमीशन के खेल को नए सत्ताधारियों का ग्रीन सिग्नल था । । नए राज्य की जमीन एकाएक नेताओं के लिए उपजाऊ हो गई । इस छोटे राज्य में पैदावार के मामले में नेताओं ने कुकरमुत्तों को पछाड़ दिया । पहले ही विधान सभा चुनाव में उम्मीदवारों की भीड़ नामांकन के लिए उमड़ पड़ी ।
आंदोलन से जनमे राज्य की इससे बड़ी बिडंबना क्या होगी कि सरकार का पहला ही शासनादेश मूल निवासियों के हितों को दूरगामी नुकसान पहुंचाने के इरादे से जारी किया गया । बाद में यह नियुक्तियों में उत्तराखंड के मूल निवासियों के खिलाफ सबसे बड़ा अस्त्र साबित हुआ । जब गैर मूल निवासी को मुख्यमंत्री बनाने पर भाजपा में भी बबाल हुआ तो आलाकमान ने कमान कोश्यारी को सौंप दी । लोगों को हिंदू राष्ट्र की घुट्टी पिलाने वाले व संघ के प्रचारक रहे कोश्यारी भाजपा में ठाकुरवाद की सोशल इंजीनियरिंग के प्रणेता बनकर उभरे । राज्य सरकार की खुफिया एजेंसी एलआईयू के जरिये विधानसभा क्षेत्रवार जातीय गणना कर इस विचार को आंकड़ों के जरिये सिद्धांत का जामा पहना दिया गया । पहले ही साल में नए राज्य में भ्रष्ट और विघटनकारी राजनीति का उदय हो चुका था । इस मैदानी क्षेत्रवाद और जातिवाद की इस राजनीति को जनता ने पूरी तरह खारिज कर दिया । प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री समेत भाजपा के अधिकांश बड़े नेता खेत रहे । भाजपा और कोश्यारी की सोशल इंजीनियरिंग बुरी तरह पिट गई ।भाजपा के खिलाफ उठी लहर से कांग्रेस 1989 के बाद उत्तराखंड में जिंदा हुई । यह वक्त की बिडंबना ही है कि कभी ‘‘ मेरी लाश पर उत्तराखंड बनेगा ’’ जैसा कठोर जुमला कहने वाले नारायण दत्त तिवारी उसी राज्य के मुख्यमंत्री बन गए पर वह बुढ़ापा बिताने पहाड़ आए थे । उनके पास मैदान का विजन था ,जिससे नौएडा तो बन सकता था पर हिमाचल नहीं । वह खांटी पहाड़ी वाईएस परमार या वीरभद्र सिंह नहीं थे । वह छोटे राज्य के बड़े राजा थे । उन्होने 16 वीं सदी के राजा की तरह दोनों हाथों से राजकोश लुटाया । उनका शासनकाल ऐसा दुर्लभ समय था जब मीडिया से लेकर विपक्ष तक सब चारणकाल में पहुंच चुके थे । विधानसभा से लेकर अखबार के पन्नों तक राग दरबारी की धुन बज रही थी । ऐसा करिश्मा बस तिवारी ही कर सकते थे ।चार्वाक का ‘‘कर्ज लो और घी पियो’’दर्शन सरकार का सूत्रवाक्य बन चुका था । लीडर तब डीलर बन चुके थे । रोज कहीं न कहीं घोटाला हो रहा था । देहरादून के ढ़ाबे वाले हों या पंचतारा होटल वाले उन दिनों को याद कर उसे स्वर्णयुग बताते नहीं थकते । बावजूद इसके कांग्रेस सरकार नहीं बच पाई । भ्रष्टाचार की तोहमत उसे ले डूबी । मिस्टर आनेस्ट जनरल बीसी खंडूड़ी के हाथ सत्ता आई तो पहाड़ के लोगों को लगा कि अब राज्य में खांटी पहाड़ी राज स्थापित होगा और 6 सालों में पनपे दलाल राज का खात्मा इसी रिटायर्ड जनरल के हाथों होगा । उनकी तनी हुई झबरीली मूंछें, सख्त चेहरा और फौजी पृष्ठभूमि मिलकर जो छवि बनाते थे उससे लोगों में इस यकीन ने जड़ें भी जमाईं । जनरल सत्ता के घेरे में ऐसे कैद हुए कि वह कैंट रोड के अपने काले लौह दरवाजों के उस पार जनता के लिए ईश्वर की तरह अगम्य बन गए । सिर्फ इतना ही पता चल पाया कि वह सारंगी कुलनाम के किसी मायावी आईएएस के मोहपाश में हैं । मात्र डेढ़ साल में जनरल का करिश्मा और केंद्रीय सड़क मंत्री के रुप में बटोरा पुण्य चुक गया । लोकसभा चुनाव में अपमानजनक हार के रुप में जनता ने उनकी बर्खास्तगी के पत्र पर दस्तखत कर दिए । इसे राज्य स्तर पर कांग्रेस और भाजपा की राजनीतिक कंगाली भी कह सकते हैं कि उनके पास न तो दूर तक देखने वाली दृष्टि है , न ऐसे नेता हैं और न ही वह साहस जो एक नए राज्य की बुनियाद के लिए जरुरी है । यही कारण है कि उत्तराखंड नए राज्यों में अकेला राज्य है जिसके पास अपनी स्थायी राजधानी तक नहीं है । उसके नेताओं में न तो इतनी हिम्मत है कि देहरादून को ही राजधानी घोषित कर दें और न इतना साहस कि गैरसैंण को राजधानी बना दें । ऐसा ही हाल परिसीमन का भी है । परिसीमन का रस्मी विरोध करने के अलावा कोई गंभीर सवाल नहीं उठाया गया । जबकि एक राज्य के रुप में यह उत्तराखंड के जीवन और मरण का सवाल है ।सन् 2012 के विधानसभा चुनाव में पहाड़ की आधा दर्जन सीटें कम हो चुकी हैं । उत्तराखंड विधानसभा का संतुलन अब मैदान की ओर झुक गया है । उत्तराखंड आंदोलन को पराजित करने की जो साजिश राज्य के गठन के समय की गई थी , परिसीमन से वह अब ज्यादा स्पष्ट हो गई है । सन् 2032 में होने वाले परिसीमन के बाद पहाड़ी राज्य का भ्रम पूरी तरह टूट जाएगा और विधानसभा में 51 सीटें मैदानी क्षेत्रों की होंगी और पहाड़ी क्षेत्रों की सीटें घटकर मात्र 19 रह जायेंगी । पहाड़ी राज्य की पूरी अवधारणा को नेस्तनाबूद करने वाला परिसीमन का यह खतरा हो या राजधानी और पलायन के ज्वलंत सवाल उत्तराखंड के नेताओं के पास राजनीतिक चिंता और चिंतन दोनों नहीं हैं अलबत्ता रातों - रात नोटों के ढे़र पर बैठने के हुनर में वे किसी भी मधु कौड़ा या सुखराम का मुकाबला करने की प्रतिभा रखते हैं । प्रदेश में 50 करोड़ से 400 करोड़ रुपए की हैसियत रखने वाले नेताओं की तादाद एक दर्जन से कम नहीं है और करोड़पति नेताओं की तादाद तो सैकड़ों में है । करोड़पति अफसरों की तादाद 1000 से ज्यादा है । राजनीति और सरकारी क्षेत्र में समृद्धि का यह विस्फोट राज्य बनने के बाद हुआ है । बेहतरीन मानव संसाधन और प्राकृतिक संसाधनों का खजाना होने के बावजूद उत्तराखंड नौ वर्ष के अपने सफर में विकास के बुनियादी मानकों पर भी खरा नहीं उतरा । जलवायु में हो रहे बदलावों के कारण राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था बेहाल है । पहाड़ में आय और जीवन निर्वाह के परंपरागत साधन ढ़ह रहे हैं , नए साधन हैं नहीं । राज्य बनने के बाद पलायन रुका नहीं बल्कि बढ़ गया । तेजी से बियाबान होते जा रहे गांव बता रहे हैं कि आने वाले दशक इतिहास के सबसे बड़े विस्थापन की गवाही देंगे । बेरोजगारी खतरनाक स्तर को छू रही है । केंद्र द्वारा घोषित औद्योगिक पैकेज राज्य की कीमती भूमि की लूट, करों की चोरी का जरिया और श्रम कानूनों की कब्रगाह बनकर रह गया है । अरबों रुपए की जमीनें कौड़ियों में लुटाकर राज्य सरकार कुछ हजार रोजगार जुटा पाई । इसमें में भी मूल निवासियों के हिस्से मजदूरी या सुपरवाइजरी स्तर तक नौकरी ही आ पाई तो अधिकांश नदियां, गाड ,गधेरे सरकार बेच चुकी है ,पर पनबिजली प्रोजेक्टों में भी बड़े पदों पर पहाड़ के लोगों को नियुक्त करने पर अघोषित पाबंदी हैं । आयकर विभाग के आंकड़े गवाह हैं कि राज्य बनने के बाद सर्वाधिक समृद्धि मैदानी जिलों में ही आई ।यदि प्रतिव्यक्ति कार व दुपहिया वाहन और प्रतिव्यक्ति इलेक्ट्रानिक गुड्स के आंकड़े देखे जांय तो मैदान और पहाड़ के जीवन स्तर और उपभोग स्तर की विषमता साफ- साफ नजर आ जाती है । जबकि शिमला में ये दोनों ही सूचकांक पूरे देश में सबसे बेहतर हैं । जाहिर है कि इन नौ सालों में जैसा उत्तराखंड राजनेताओं ने बनाया है वह दिल, दिमाग ,आचार और व्यवहार से तो पहाड़ी कतई नहीं है । इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि उसकी विधानसभा पहाड़ की मेधा,भावना,सामान्य बुद्धिमत्ता और सरोकारों का प्रतिनिधित्व तक नहीं करती । यह बिडंबना ही है कि आज का उत्तराखंड पहाड़ और उसके लोगों के तात्कालिक और दीर्घकालिक हितों के खिलाफ है । एक पहाड़ी राज्य के रुप में उत्तराखंड नाकाम हो चुका है । राज्य के पहाड़ विरोधी रंगढंग देखते हुए ही उत्तराखंड जनमंच जैसे आंदोलन में हिस्सा लेने वाले संगठन उत्तराखंड राज्य को विसर्जित करने की मांग उठाने लगे हैं ।

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