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बुधवार, 6 जनवरी 2010

छोटे राज्यों के बड़े सवाल

लगभग समूचा देश अलग राज्यों की आग और बहस से गुजर रहा है । इसे भारतीय राष्ट्र राज्य की सीमा भी मान सकते हैं और बिडंबना भी कि आजादी के 62 वर्षों बाद भी हम विकास का ऐसा रास्ता नहीं खोज पाए हैं जो विकास के नक्शे से बाहर कर दिए गए क्षेत्रों और लोगों को पिछड़ेपन और उपेक्षित रह जाने के अहसास से मुक्ति दिला सकें । न हमने ऐसी राजनीति और राजनीतिक प्रक्रिया को ईजाद किया जो निर्णय लेने की परिधि से बाहर रह रहे लोगों की राजनीतिक भागीदारी तय कर सके । छोटे राज्यों की आग यदि बड़ी दिखाई दे रही है तो इसकी बुनियाद में भारतीय राष्ट्रराज्य की विफलताओं के शव हैं । ऐसी स्थिति में छोटे राज्यों की कामयाबी और नाकामी की बहस का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि यह भूगोल का नहीं बल्कि राजनीतिविज्ञान का सवाल है ।
हम एक बार फिर छठे और सातवें दशक की उस बहस में वापस लौट रहे हैं जो तब महाराष्ट्र से लेकर आंध्र प्रदेश तक गठन को लेकर चली थी । मजेदार बात यह है कि बीसवीं सदी के मध्य के उस दौर में भी देश की हवाओं राज्यों के विभाजन को लेकर वही भय और आशंकायें तैर रही थीं जो आज 21 वीं सदी के इस पूर्वार्द्ध में गूंज रही हैं । राज्यों के विभाजन के प्रेत से देश के बाल्कनीकरण का भस्मासुर पैदा होने की आशंका में दुबले होने वाले चिंतक और नेताओं की फौज तब भी थी और आज भी है । लेकिन देश की जनता ने साबित किया कि उसे राज्य की जरुरत और अलगाव के बीच मौजूद नियंत्रण रेखा की समझ हमारे नेताओं से कहीं ज्यादा है । इसीलिए देश के भीतर समय - समय पर चलने वाले अलगाववादी आंदोलन आए और कुछ घावों को छोड़कर विदा हो गए । छठे दशक की चिंताओं को छोड़कर ये राज्य आगे बढ़ गए । इनमें से कई तो विकसित राज्यों की पांत में भी षामिल हैं । सातवें और आठवें दशक की शुरुआत में बने छोटे राज्यों ने कामयाबी के झंडे गाड़े तो लगा कि लोगों की खुशहाली का रास्ता इसी माॅडल में निहित है । पंजाब, हरियाणा और हिमाचल की उपलब्धियों को तो जैसे विकास की बाइबिल मान लिया गया । मानव विकास मानकों , प्रति व्यक्ति आय ,विकास दर और सकल घरेलू उत्पाद के नजरिये से इन राज्यों की उपलब्धियां चमत्कृत करने वाली रही हैं । विकास अपने आप में एक संक्रामक प्रक्रिया है । इसलिए सदियों से दमित और उपेक्षित समाजों को लगा कि नियति बदलने का रास्ता छोटे राज्यों से होकर जाता है । इन राज्यों की उपलब्धियों ने पूरे देश में छोटे राज्यों के समर्थकों को तर्क और औचित्य के हथियार के साथ - साथ आंदोलन का ईंधन भी मुहैय्या कराया । इन राज्यों में हुए विकास के हवाले से उत्तराखंड , झारखंड जैसे पिछड़े इलाकों और उपेक्षित इलाकों में आम लोगों में बदलाव की उम्मीदें जगाए जाने लगीं । ये इलाके देश के ऐसे हिस्से थे जहां राष्ट्रीय राजनीतिक दल जनाकांक्षाओं की कसौटी पर नाकाम साबित हो चुकीं थी और उनकी जगह जो दल आए वे अपने - अपने जातीय घेरों के बंदी थे । ऐसे यूपी और बिहार के इन हिस्सों में अलगाव का अहसास बढ़ा । झारखंड और उत्तराखंड के आंदोलनों के गर्भ से तीन नये राज्यों का जन्म हो गया । संयोग से इन राज्यों की बहुसंख्या सांस्कृतिक और नृवंशीय नजरिये से अपने पूर्ववर्ती राज्यों से काफी अलग थे । इसलिए ये मूलतः सांस्कृतिक पहचान के आंदोलन थे जिन्हे पिछड़ेपन के आर्थिक कारणों और यूपी - बिहार की अधीनता के राजनीतिक कारणों ने हवा दी ।
जाहिर है कि अब छोटे राज्यों के दो माॅडल सामने हैं । एक ओर सत्तर के दशक में बने हरियाणा, पंजाब और हिमाचल हैं जिन्हे फलने - फूलने के लिए हरित क्रांति का दौर तो मिला ही साथ ही वह कालखंड भी मिला जब राजनीति और सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार न्यूनतम था । लेकिन विकास का यह माडल भी 20 वीं सदी के आखिरी दशक ठहराव की ओर है , या यूं कहें कि चरमरा रहा है तो गलत नहीं होगा । हिमाचल में सेब क्रांति चरम पर पहुंचने के बाद जमीन की कमी , अत्यधिक कीटनाशकों ,खादों के प्रयोग और ग्लोबल वार्मिंग के कारण झटके झेल रही है तो पंजाब और हरियाणा में भी जमीन की ताकत और भूजल दोनों ही चुकने जा रहे हैं ।विकास के इन स्वर्गों में मरुस्थल दिखने लगे हैं । दूसरी ओर उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ हैं जिन्हे बने नौ साल बीत चुके हैं । झारखंड एक ओर नक्सलवाद के उभार के लिए चर्चा में है नीम पर जा चढ़े करेले की तरह अब वह मधु कौड़ा के पराक्रम के बहाने राजनीतिक भ्रष्टाचार के लिए भी पूरे देश में जाना जा रहा है । छत्तीसगढ़ नक्सलवाद , सलवां जुड़म और कीमती खनिजों के लिए थोक के भाव से हो रहे एमओयू के लिए सुर्खियों में है । उसके आदिवासी बहुल जिलों के सकल घरेलू उत्पाद में बृद्धि नहीं हो रही है । उत्तराखंड में भी इन नौ सालों में ऐसा कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं है जो छोटे राज्यों के औचित्य को साबित करे उल्टे नौकरशाही का कार्यकुशलता का ग्राफ यूपी से बदतर हो गया है । भ्रश्टाचार और राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते सरकारी तंत्र चरमरा गया है । हालात यह हैं कि पहाड़ के स्कूलों में तैनात शिक्षकों को पढ़ाने के लिए स्कूल भेजने के लिए सरकार को अपने डीएम,एसडीएम से लेकर पटवारी तक मोर्चे पर तैनात करने पड़ रहे हैं । मैदानी जिलों को छोड़ दे ंतो पहाड़ी जिलों में सकल घरेलू उत्पाद गिर रहा है । राज्य की अर्थव्यवस्था कर्ज से ही नहीं चरमरा रही है बल्कि उसमें बुनियादी दोश आ गए हैं । सर्विस सेक्टर का योगदान 50 फीसदी तक जा पहुंचा है । कृषि सेक्टर का योगदान निरंतर उतार पर है ।
छोटे राज्यों की राजनीति की खासियत यह है कि सरकार के फैसलों को प्रभावित करने की जनता की ताकत बढ़ जाती है । मात्र एक हजार वोटों के इधर - उधर हो जाने से जब विधानसभा सीट के नतीजे बदल सकते हों तब लोगों के छोटे समूहों के जनमत भी महत्वपूर्ण होंगे ही । लेकिन हाल में बने राज्यों की बिडंबना यह है कि वहां सत्ता का विकेंद्रीकरण के जरिये निर्णय लेने की प्रक्रिया में जनता की भागीदारी तो बढ़ी नहीं उल्टे राजनीतिक और प्रशासनिक सत्ता का केंद्रीयकरण राज्य की राजधानी में हो गया । इसलिए नौ साल पहले बने राज्य हिमाचल, पंजाब और हरियाणा की तरह विकास के बजाय अपनी विफलताओं के लिए याद किए जा रहे हैं । इन हालातों में जब छोटे राज्यों को खुशहाली का रामवाण नुस्खा नहीं कहा जा सकता । किसी राज्य की कामयाबी भूगोल से नहीं बल्कि शासन चलाने की गुणवत्ता सत्ता के विकेंद्रीकरण और निर्णय लेने की प्रक्रिया में आम लोगों की भागीदारी से तय होगी ।
कामयाबी और नाकामी के इस शास्त्रीय बहस से बहस से निकलकर देखें तो लोकतंत्र लोगों को अपने भाग्य और भविष्य चुनने की आजादी देता है । यदि जनाकांक्षायें अलग राज्य मांगती हैं तो उसे लेकर क्यों किसी सरकार या राजनीतिक दल को अपने पूर्वाग्रह या राजहठ पर अड़़ा रहना चाहिए ? आखिर देश की संसद का काम भी तो जनाकांक्षाओं के अनुरुप ही देश का निर्माण करना ही तो है । इस नजरिये देखें तो आंध्र प्रदेश के बाकी हिस्सों में चल रहा अखंड आंध्र का आंदोलन अलोकतांत्रिक और अपने मिजाज में तानाशाही पूर्ण है । क्षेत्र विशेष की आबादी अपनी इच्छा को किसी और पर थोपने की जिद कैसे कर सकती है ? क्षेत्रीय पहचानों का जो विस्फोट हम देख रहे हैं वह दरअसल 62 साल की हमारी राजनीति की विफलता से उपजी निराशा है । इस देश की राजनीति और कर्णधार चकरा देने करने वाली विविधताओं से भरे इस देश के समाजों को संबोधित तक नहीं कर पाए हैं । विकास से लेकर न्याय तक फैली राज्य की ममतापूर्ण भुजायें उन समाजों तक नहीं पहुंची अलबत्ता शोषण और दमन से लैस सहस्त्रबाहु राज्य जरुर उन तक पहुंच गया । नए राज्यों की जरुरत यहीं से पैदा हुई है । एक अर्थ में यह भारतीय राष्ट्र और समाज के संघीय चरित्र की वापसी भी है जिसे हमने कृत्रिम तरीके से बड़े राज्यों में कैद कर दिया था । जिस देश में इतने सारे समाज पहचान के संकट से दो चार हों और इतनी सारी जनांकाक्षायें आर्थिक सामाजिक न्याय की तलाश कर रही हों उस देश को अपनी पूरी राजनीतिक यात्रा पर चिंता और चिंतन करना चाहिए कि उसकी सत्ता की परिधि के बाहर बेचैन समाजों की तादाद क्यों बढ़ रही है । इसमें कोई शक नहीं कि नए राज्य बनें लेकिन वे अपने पूर्ववर्ती राज्यों के छोटे भौगोलिक संस्करण न बनकर जनाकांक्षाओं के साथ न्याय करें इसके लिए कोई मैकेनिज्म होना चाहिए । साथ किसी राज्य का निर्माण सामान्य जनइच्छा है या कुछ महत्वाकांक्षी नेताओं का खेल है, इसे जांचने के लिए जनमतसंग्रह के लोकतांत्रिक औजार को आजमाने में कोई बुराई नहीे होनी चाहिए । इस बात को ध्यान में रखना होगा कि कोई राज्य एक अदद मुख्यमंत्री, कुछेक मंत्रियों और कुछ सैकड़ा अफसरों का वनविहार न बन जाय ।

1 टिप्पणी:

  1. बहुत दिनों बाद आज आपको पढ़ना संभव हुआ। अच्छा आलेख है। छोटे राज्यों का सवाल - एक अच्छी बहस छेड़्ता हुआ।

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