Powered By Blogger

मेरी ब्लॉग सूची

यह ब्लॉग खोजें

फ़ॉलोअर

पृष्ठ

कुल पेज दृश्य

लोकप्रिय पोस्ट

शनिवार, 26 नवंबर 2011

इस थप्पड़ को यहां से देखो


शरद पवार पर थप्पड़ मारे जाने की घटना को मीडिया और कुछ राजनीतिक दलों ने महंगाई से जोड़ दिया। यह एक तरह से इस घटना का औचित्य साबित करने की कोशिश है। अन्ना हजारे भी इस पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने से खुद को नहीं रोक पाए और बोले ,‘‘ बस!एक थप्पड!!’’ गोया उन्हे उम्मीद रही हो कि शरद पवार पर और थप्पड़ मारे जाने थे। टीम अन्ना ने भी राजनीतिक लाभ उठाने की नीयत से इसे नेताओं की साख की ओर मोड़ दिया। किरन बेदी और कुमार विश्वास की प्रसन्नतायें भी इसी कारण उनके ट्वीट से बाहर छलक रहीं थी। इस पूरे वाकये पर समझदारी और परिपक्वता की जो अपेक्षा मीडिया और राजनेताओं से थी वे पूरी नहीृ हुई। लेकिन गुस्से की इन व्यक्तिगत अभिव्यक्तियों को यदि इनके विस्तार और संक्रामक रुप में देखें तो समझ में आ जाएगा कि भविष्य में एक गैर जिम्मेदार और सनसनी प्रिय मीडिया, साख खोए नेता और अन्ना हजारे जैसे गैर जिम्मेदार आंदोलनकारी देश के लिए कितनी आफत खड़ी कर सकते हैं।
इस देश में बड़ी संख्या में लोग मीडिया से नाराज है।। क्या मीडिया पत्रकारों पर होने वाले हमलों का औचित्य इस आधार पर साबित करेगा कि मीडिया की रिपोर्टिंग सही नहीं हो रही है? क्या उन डाॅक्टरों,इंजीनियरों, वकीलों व्यापारियों और उद्योगपतियों पर थप्पड़ नहीं मारे जाने चाहिए जिन्होने आम लोगों का जीवन नर्क बना दिया है? क्या सरकारी अफसरों,एनजीओ के संचालकों को थप्पड़ नहीं मारे जाने चाहिए? अन्ना हजारे शरद पवार की पिटाई पर खुश हो रहे हैं तक प्रशांत भूषण और अन्ना समर्थकों की पिटाई करने का भी तो एक औचित्य भगत सिंह सेना के लोगों के पास है और उन्हे अपने औचित्य पर यकीन रखने का हक है।आप पीटे जांय तो लोकतंत्र को खतरा और दुश्मन पिटे तो लोगों का गुस्सा? यह कैसा कुतर्क है। यदि हरविदर के थप्पड़ का औचित्य है तो माओवादियों की हिंसा का औचित्य क्यों नहीं है? सरकारों ने करोड़ों लोगों का जीवन दूभर कर दिया है तो वे क्यों नहीं हथियार उठायें? एक विचारहीन थप्पड़ का औचित्य साबित करने में मीडिया के दिग्गजों से लेकर राजनीति और समाजशास्त्र,अर्थशास्त्र के सारे दिग्गज 12 घंटे तक न्यूज चैनलों पर जुटे रहे पर इसी दिन अपनी विचारधारा के कारण आदिवासियों के लिए हथियार उठाने वाले किशनजी की प्रतिहिंसा का औचित्य साबित करने के लिए एक भी आगे नहीं आया। क्या मीडिया और विपक्ष को विचारहीन अराजक हिंसा पसंद है और विचारधारा की हिंसा नापसंद है?किशनजी यदि मानते हैं कि क्रांतिकारी बदलाव के लिए हिंसा जरुरी है या राज्य की हिंसा का जवाब हिंसा ही है तो उसका भी औचित्य है। क्रांति का सपना देखने और उसे बंदूक के दम पर हासिल करने का सपना देखने का भी तो औचित्य है। क्या उनके औचित्य पर चर्चा करने से कारपोरेट मीडिया,संसदीय दल और टीम अन्ना इसलिए डरते हैं कि माओवादी उनकी राजनीति के लिए भी खतरनाक हैं? जबकि हरविंदर से शरद पवार के अलावा किसी को भी खतरा नहीं है। इसलिए सभी एक विचारहीन हिंसा का औचित्य साबित करने मंें जुटे हैं।
दरअसल टीम अन्ना और भारतीय मीडिया थप्पड़ को जिस तरह से महिमामंडित कर रही है और जिस चालाकी से उसे जनभावनाओं का प्रगटीकरण बता रही है वह एक खतरनाक खेल है। बाबरी ध्वंस को भी इसी तरह अटल विहारी वाजपेयी ने जनभावनाओं का प्रगटीकरण बताया था। इस देश में हर हिंसक घटना का एक औचित्य है। हर वो वर्ग जिसे साथ अन्याय हो रहा है उसे हिंसा के जरिये अपना गुस्सा अभिव्यक्त करने का औचित्य प्रदान करने का मतलब देश को एक अराजकता की ओर धकेलना हैं। ऐसे में तो मतदाता चुनावों में वोट के जरिये अपना गुस्सा व्यक्त करने के बजाय अपने विधायकों और सांसदों पर जूते फेंकेगा और थप्पड़ो उनकी पिटाई करेगा। भारत में एक भी ऐसा राजनेता नहीं है जिस पर लोगों को भरोसा हो,एक भी नेता ऐसा नहीं है जिस पर लोगों को यह यकीन हो कि वह उनकी नियति बदल सकता है। कांग्रेस-भाजपा से लेकर कम्युनिस्ट पार्टियों तक दलों का नेतृत्व कुलीन और कान्वेंटी नेताओं ने हाईजैक कर लिया है। तीन बड़ी राजनीतिक धाराओं में कोई मास लीडर ही नहीं है। भारतीय राजनीति जब इतनी दरिद्रता से गुजर रही है तब जनता में गुस्सा,मोहभंग और क्षोभ भी होगा।यह लगभग वैसे ही हालात हैं जैसे हिटलर के उदय के समय जर्मनी में थे। नाकारा नेताओं के खिलाफ फैली अराजकता के ज्वार पर ही चढ़कर हिटलर आया था। क्या मीडिया से लेकर टीम अन्ना तक नेताओं को गलियाने वाले सारे लोग हिटलर के लिए ही रास्ता तैयार नहीं कर रहे हैं? क्या यह याद नहीं रखा जाना चाहिए कि तानाशाह सिर्फ सैनिक विद्रोहों के चोर दरवाजों से ही नहीं आए हैं बल्कि वे लोकतंत्र के राजमार्ग से भी गाजे-बाजे और गले में फूलमालाओं के साथ भी दाखिल हुए हैं।चैरीचैरा की हिंसा के बाद सत्याग्रह वापस लेने वाले गांधी मूर्ख नहीं थे।वह जानते थे कि भारत जैसे विशाल देश में लोगों को अपनी मर्जी से हिंसक होने की आजादी देना का मतलब अंग्रेजों देश में सैनिक तानाशाही थोपने का अवसर देना होगा। क्या हम नहीं जानते कि हर असहमति यदि थप्पड़ मारने का यह सिलसिला चल पड़ा तो यह तमाचा किसी दिन पत्रकारों के गाल पर भी पड़ेगा तो किसी दिन अन्ना या किरन बेदी के गाल पर भी। इसे बदलाव और संगठित प्रतिरोध की सकारात्मक ऊर्जा में बदलने के बजाय एक अराजक और विचारहीनता की नकारात्मक ऊर्जा की वकालत करना खतरनाक औा सस्ती लोकप्रियता से प्रेरित प्रवृत्ति है। आज जब देश में किसी में इतना नैतिक बल नही है कि राज्य की हिंसा समेत हर हिंसा का विरोध कर सके तब हममें से हर एक को किसी न किसी के हाथ से तमाचा खाने को तैयार रहना होगा।
 ·  ·  ·  · 6 minutes ago

इस थप्पड़ को यहां से देखो


शरद पवार पर थप्पड़ मारे जाने की घटना को मीडिया और कुछ राजनीतिक दलों ने महंगाई से जोड़ दिया। यह एक तरह से इस घटना का औचित्य साबित करने की कोशिश है। अन्ना हजारे भी इस पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने से खुद को नहीं रोक पाए और बोले ,‘‘ बस!एक थप्पड!!’’ गोया उन्हे उम्मीद रही हो कि शरद पवार पर और थप्पड़ मारे जाने थे। टीम अन्ना ने भी राजनीतिक लाभ उठाने की नीयत से इसे नेताओं की साख की ओर मोड़ दिया। किरन बेदी और कुमार विश्वास की प्रसन्नतायें भी इसी कारण उनके ट्वीट से बाहर छलक रहीं थी। इस पूरे वाकये पर समझदारी और परिपक्वता की जो अपेक्षा मीडिया और राजनेताओं से थी वे पूरी नहीृ हुई। लेकिन गुस्से की इन व्यक्तिगत अभिव्यक्तियों को यदि इनके विस्तार और संक्रामक रुप में देखें तो समझ में आ जाएगा कि भविष्य में एक गैर जिम्मेदार और सनसनी प्रिय मीडिया, साख खोए नेता और अन्ना हजारे जैसे गैर जिम्मेदार आंदोलनकारी देश के लिए कितनी आफत खड़ी कर सकते हैं।
इस देश में बड़ी संख्या में लोग मीडिया से नाराज है।। क्या मीडिया पत्रकारों पर होने वाले हमलों का औचित्य इस आधार पर साबित करेगा कि मीडिया की रिपोर्टिंग सही नहीं हो रही है? क्या उन डाॅक्टरों,इंजीनियरों, वकीलों व्यापारियों और उद्योगपतियों पर थप्पड़ नहीं मारे जाने चाहिए जिन्होने आम लोगों का जीवन नर्क बना दिया है? क्या सरकारी अफसरों,एनजीओ के संचालकों को थप्पड़ नहीं मारे जाने चाहिए? अन्ना हजारे शरद पवार की पिटाई पर खुश हो रहे हैं तक प्रशांत भूषण और अन्ना समर्थकों की पिटाई करने का भी तो एक औचित्य भगत सिंह सेना के लोगों के पास है और उन्हे अपने औचित्य पर यकीन रखने का हक है।आप पीटे जांय तो लोकतंत्र को खतरा और दुश्मन पिटे तो लोगों का गुस्सा? यह कैसा कुतर्क है। यदि हरविदर के थप्पड़ का औचित्य है तो माओवादियों की हिंसा का औचित्य क्यों नहीं है? सरकारों ने करोड़ों लोगों का जीवन दूभर कर दिया है तो वे क्यों नहीं हथियार उठायें? एक विचारहीन थप्पड़ का औचित्य साबित करने में मीडिया के दिग्गजों से लेकर राजनीति और समाजशास्त्र,अर्थशास्त्र के सारे दिग्गज 12 घंटे तक न्यूज चैनलों पर जुटे रहे पर इसी दिन अपनी विचारधारा के कारण आदिवासियों के लिए हथियार उठाने वाले किशनजी की प्रतिहिंसा का औचित्य साबित करने के लिए एक भी आगे नहीं आया। क्या मीडिया और विपक्ष को विचारहीन अराजक हिंसा पसंद है और विचारधारा की हिंसा नापसंद है?किशनजी यदि मानते हैं कि क्रांतिकारी बदलाव के लिए हिंसा जरुरी है या राज्य की हिंसा का जवाब हिंसा ही है तो उसका भी औचित्य है। क्रांति का सपना देखने और उसे बंदूक के दम पर हासिल करने का सपना देखने का भी तो औचित्य है। क्या उनके औचित्य पर चर्चा करने से कारपोरेट मीडिया,संसदीय दल और टीम अन्ना इसलिए डरते हैं कि माओवादी उनकी राजनीति के लिए भी खतरनाक हैं? जबकि हरविंदर से शरद पवार के अलावा किसी को भी खतरा नहीं है। इसलिए सभी एक विचारहीन हिंसा का औचित्य साबित करने मंें जुटे हैं।
दरअसल टीम अन्ना और भारतीय मीडिया थप्पड़ को जिस तरह से महिमामंडित कर रही है और जिस चालाकी से उसे जनभावनाओं का प्रगटीकरण बता रही है वह एक खतरनाक खेल है। बाबरी ध्वंस को भी इसी तरह अटल विहारी वाजपेयी ने जनभावनाओं का प्रगटीकरण बताया था। इस देश में हर हिंसक घटना का एक औचित्य है। हर वो वर्ग जिसे साथ अन्याय हो रहा है उसे हिंसा के जरिये अपना गुस्सा अभिव्यक्त करने का औचित्य प्रदान करने का मतलब देश को एक अराजकता की ओर धकेलना हैं। ऐसे में तो मतदाता चुनावों में वोट के जरिये अपना गुस्सा व्यक्त करने के बजाय अपने विधायकों और सांसदों पर जूते फेंकेगा और थप्पड़ो उनकी पिटाई करेगा। भारत में एक भी ऐसा राजनेता नहीं है जिस पर लोगों को भरोसा हो,एक भी नेता ऐसा नहीं है जिस पर लोगों को यह यकीन हो कि वह उनकी नियति बदल सकता है। कांग्रेस-भाजपा से लेकर कम्युनिस्ट पार्टियों तक दलों का नेतृत्व कुलीन और कान्वेंटी नेताओं ने हाईजैक कर लिया है। तीन बड़ी राजनीतिक धाराओं में कोई मास लीडर ही नहीं है। भारतीय राजनीति जब इतनी दरिद्रता से गुजर रही है तब जनता में गुस्सा,मोहभंग और क्षोभ भी होगा।यह लगभग वैसे ही हालात हैं जैसे हिटलर के उदय के समय जर्मनी में थे। नाकारा नेताओं के खिलाफ फैली अराजकता के ज्वार पर ही चढ़कर हिटलर आया था। क्या मीडिया से लेकर टीम अन्ना तक नेताओं को गलियाने वाले सारे लोग हिटलर के लिए ही रास्ता तैयार नहीं कर रहे हैं? क्या यह याद नहीं रखा जाना चाहिए कि तानाशाह सिर्फ सैनिक विद्रोहों के चोर दरवाजों से ही नहीं आए हैं बल्कि वे लोकतंत्र के राजमार्ग से भी गाजे-बाजे और गले में फूलमालाओं के साथ भी दाखिल हुए हैं।चैरीचैरा की हिंसा के बाद सत्याग्रह वापस लेने वाले गांधी मूर्ख नहीं थे।वह जानते थे कि भारत जैसे विशाल देश में लोगों को अपनी मर्जी से हिंसक होने की आजादी देना का मतलब अंग्रेजों देश में सैनिक तानाशाही थोपने का अवसर देना होगा। क्या हम नहीं जानते कि हर असहमति यदि थप्पड़ मारने का यह सिलसिला चल पड़ा तो यह तमाचा किसी दिन पत्रकारों के गाल पर भी पड़ेगा तो किसी दिन अन्ना या किरन बेदी के गाल पर भी। इसे बदलाव और संगठित प्रतिरोध की सकारात्मक ऊर्जा में बदलने के बजाय एक अराजक और विचारहीनता की नकारात्मक ऊर्जा की वकालत करना खतरनाक औा सस्ती लोकप्रियता से प्रेरित प्रवृत्ति है। आज जब देश में किसी में इतना नैतिक बल नही है कि राज्य की हिंसा समेत हर हिंसा का विरोध कर सके तब हममें से हर एक को किसी न किसी के हाथ से तमाचा खाने को तैयार रहना होगा।
 ·  ·  ·  · 6 minutes ago

शुक्रवार, 17 जून 2011

जेपी, वीपी और अब रामादेव

राजेन टोडरिया
आडवाणी जब यह कह रहे थे कि रामदेव प्रकरण भारतीय राजनीति में टर्निंग प्वांइट हो सकता है तो वह यूंही नहीं कह रहे थे। संघ परिवार के ये भीष्म पितामह भले ही पिछले लोकसभा चुनाव के बाद कलियुगी और कांग्रेसी मनमोहन के कारण शरसैया पर लेटने को मजबूर हों लेकिन उनकी इस बात में इतिहास की अनुगूंजें भी हैं और अनुभव भी। आडवाणी आरएसएस की उस टीम के महत्वपूर्ण मेंबर रहे है जिसने 1974 के जेपी आंदोलन और 1989 के वीपी आंदोलन के लिए जमीन तैयार की। इसी टीम ने इन दोनों आंदोलनों के लिए जरुरी खाद-पानी और गोला बारुद जमा किया। इन दोनों आंदोलनों से सबसे ज्यादा लाभ भी संघ परिवार को हुआ क्योंकि उसके पास जनअसंतोष को भुनाने के लिए ग्रास रुट तक संगठन था जबकि इन आंदोलनों के नेताओं का अपना कोई सांगठनिक आधार नहीं था। 1974 और 1989 की वही राजनीतिक पटकथा इस समय भी मंचित की जा रही है। मंच पर दिखने वाले पात्र और नायक बदल गए हैं पर सूत्रधार संघ परिवार ही है।अब जरा 1974 और 1989 के कालखंड की यात्रा करने चलें। अतीत की यात्रायें इसलिए भी की जानी चाहिए कि वे हमें अपने समाजों को जानने का मौका तो देती ही हैं साथ ही वे भविष्य में झांकने का अवसर भी मुहैया कराती हैं। कहते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है लेकिन हिंदी फिल्मों या धारावाहिकों की तरह उबाऊ और नीरस तरीके से नहीं दोहराता। वह हर बार नएपन के साथ आता है ताकि उसका रहस्य और रोमांच बचा रहे। 1974 और 1989 भारतीय राजनीति के ऐसे कालखंड रहे हैं जब कांग्रेस अभूतपूर्व कामयाबी के साथ सत्ता में आई थी। सन् 1974। बैंकों के राष्ट्रीयकरण,बांग्लादेश विजय जैसी विराट उपलब्धियों और गरीबी हटाओं के करिश्माई नारे की पीठ पर सवार होकर 1971 में कांग्रेस को दैत्याकार कामयाबी मिली। लेकिन 1974 आते- आते सारा प्रभामंडल फीका हो गया।लेकिन अहंकार के मद में चूर कांग्रेस को लगा ही नहीं कि उसके पैरों के तले जमीन खिसक रही है। लोगों की जिंदगी के बुनियादी सवाल जस के तस थे और मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग असंतोष से लबालब था। 1989 का साल। इंदिरा गंाधी की हत्या की सहानुभूति और सिख आतंकवाद के खिलाफ हिंदू बैकलैश से 1984 की भयंकर जीत ने कांग्रेस को अजेय होने के अहंकार से फिर भर दिया था। लेकिन लोगों की समस्याओं का कोई समाधान सरकार के पास नहीं था। जनता अपने आर्थिक संकटों से परेशान थी। 1974 और 1989 दोनों ही जनआकांक्षाओं के ज्वार के बाद की हताशा से जनमे। जेपी और वीपी ने इस हताशा को संबोधित किया और वे मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग में एक उम्मीद की तरह उभरे और एक आंदोलन जड़़ पकड़ता दिखा। हिंदू मध्यवर्ग के एक हिस्से में पैठ रखने वाले अपने के जरिये आरएसएस को पता चल गया कि इन दोनों आंदोलनों के भीतर एक बड़े जनांदोलन की संभावना है। आरएसएस जानता था कि 1974 का जनसंघ और 1989 की भाजपा और उसके नेताओं के बूते देश भर में मध्यवर्ग का एक बड़ा आंदोलन नहीं चलाया जा सकता। इसलिए उसने अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को पृष्ठभूमि में सरका दिया और एक ही जैसे हालात में एक बार जेपी को आगे किया और इस घटना के ठीक 15 साल बाद बीपी सिंह को आगे कर दिया। इन दोनों के पीछे लोग जरुर थे और वे मध्यवर्ग के लोकप्रिय चेहरा भी थे लेकिन दोनों का अपना कोई सांगठनिक आधार नहीं था। आरएसएस यह जानता था कि जमीनी नेटवर्क न होने से इस आंदोलन से पैदा होने वाली ताकत से उसे नया विस्तार मिलेगा। उसने 1974 और 1989 के आंदोलनों के लिए देश भर में भीड़ जुटाने के काम में अपना कैडर झोंक दिया। इन दोनों आंदोलनों में एक और समानता है। ये दोनों आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरु हुए। इन दोनों ने सरकारी भ्रष्टाचार और कांग्रेस की लीडरशिप को निशाना बनाया। इस प्रकार महंगाई,बेरोजगारी,भुखमरी और गरीबी से जनमे गुस्से को सरकारी भ्रष्टाचार के राजनीतिक एजेंडे में बदल दिया गया। दिलचस्प बात यह है कि भ्रष्टाचार की इस लड़ाई में मुनाफाखोरों,कालाबाजारियों और नाजायज दाम वसूलने वाले निजी क्षेत्र के भ्रष्टाचार पर कोई उंगली नहीं उठाई गई। कटु सच यह है कि इसी वर्ग के गैर कांग्रेसी हिस्से ने इन आंदोलनों के लिए फंड जुटाया और गोयनका के मीडिया हाउस ने इसके प्रचार का जिम्मा उठाया। इन आंदोलनों का एक विशेषता और थी कि इन्होने बेहद चालाकी से महंगाई,गरीबी जैसे बुनियादी सवालों को बहस से हटाकर पूरी लड़ाई भ्रष्टाचार पर केंद्रित कर दी ताकि देश में बुनियादी बदलाव के लिए कोई आंदोलन पैदा होने से रोका जाय और जन असंतोष को सरकारी भ्रष्टाचार तक सीमित रखा जाय। इन दोनों आंदोलनों का लक्ष्य उत्तर भारत का मध्यवर्ग था। इन आंदोलनों को व्यापक बदलाव का औजार नहीं बनने दिया गया। इन आंदोलनों का निशाना साफ था। उनका लक्ष्य जनता की बुनियादी समस्याओं के हल के बजाय कांग्रेस की जगह चुनावी राजनीति में पराजित और पस्त दलों और नेताओं को पिछले दरवाजे से लाकर मंच पर प्रतिष्ठित करना था। दोनो आंदोलन मानते थे कि कांग्रेस के सत्ता से हटने से जनता की सारी मुश्किलें हल हो जाएंगी। दोनों आंदोलनों का सबसे ज्यादा लाभ संघ परिवार की राजनीतिक भुजा जनसंघ और भाजपा को हुआ। जबकि दोनों आंदोलनों से पहले इन्हे अपमानजनक हार झेलनी पड़ी थी। इससे साफ है कि आंदोलनों का राजनीतिक लाभ उठाने की क्षमता और योग्यता आरएसएस में सर्वाधिक है। हालांकि बीपी सिंह शातिर राजनेता थे उन्होने मंडल का अमोघ अस्त्र चलाकर संघ परिवार के कट्टर हिंदूवाद के रास्ते में पिछड़ावाद का स्पीड ब्रेकर लगा दिया। बावजूद इसके 1991 से लेकर 1999 तक भाजपा के उत्कर्ष की कहानी प्रस्तावना तो बीपी सिंह के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने ही लिखी।आज के हालात का जायजा लें तो कहा जा सकता है कि एक बार फिर भारत का मध्यवर्ग बेचैन है। उदारीकरण के बाद जितनी तेजी से देश बदला है उसने गरीबों और मध्यवर्ग के सामने नए संकट पैदा किए हैं। आर्थिक असुरक्षा, महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी के चजते देश के भीतर एक असंतोष घुमड़ रहा है। जाहिर है कि लोगों में सरकार के खिलाफ गुस्सा है लेकिन केंद्र की कांग्रेस सरकार अपने जीत के अहंकार में भी है और उसने तय कर लिया है कि चार साल तक वह लोगों के असंतोष की अनदेखी करने का जोखिम ले सकती है। चूंकि लोगों की नाराजी को संबोधित करने के लिए सरकार तैयार नहीं है और संसदीय विपक्ष जनता के मूल सवालों पर जनांदोलन छेड़ने की स्थिति में इसलिए नहीं है क्योंकि उसकी साख ही नहीं बची है। उसका चरित्र कांग्रेस से भी गया बीता है। इसलिए लोगों के भीतर जो गुबार है उसे निकासी का रास्ता चाहिए। यह असंतोष कहीं भट्टा परसोल के किसान विद्रोह के रुप में सामने आ रहा है तो कहीं माओवादी संघर्ष के रुप में। इस असंतोष को बुनियादी बदलाव की लड़ाई में बदलने से रोकने के लिए व्यवस्था का प्रतिरक्षा तंत्र सक्रिय हो गया है और उसने एंटीबॉडी बनानी शुरु कर दी हैं। अन्ना हजारे या बाबा रामदेव और तथाकथित सिविल सोसाइटी के नेता दरअसल यही एंटीबॉडी हैं। उदारीकरण से जनमे गरीबी,भुखमरी,बेरोजगारी,आर्थिक असुरक्षा और महंगाई के बुनियादी सवालों को सिर्फ सरकारी भ्रष्टाचार तक सीमित करने का यह पूरा आंदोलन उदारीकरण के जनविरोधी चेहरे से ध्यान हटाने की सोची समझी रणनीति है ताकि लोगों को बुनियादी बदलाव के क्रांतिकारी रास्ते पर जाने से रोका जा सके। 1974 और 1989 की तरह जनता की पूरी ऊर्जा को सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ मोड़ने से लाभ यह है कि लोगों का यकीन मनमोहन सिंह आडवाणी में भले ही न रहे पर वह अन्ना हजारे और बाबा रामदेव में बना रहेगा। इससे यह साबित नहीं होगा कि भ्रष्टाचार का यह चरम दरअसल उस उदारीकरण की उपज है जिसके विश्वकर्मा मनमोहन,चिदंबरम,यशवंत सिन्हा रहे हैं। भारतीय कारपोरेट की नजर में मनमोहन सिंह की उपयोगिता खत्म हो चुकी है और अब उसे नया चेहरा चाहिए। इसलिए अन्ना हजारे,रामदेव भारतीय कारपोरेट के सबसे दुलारे चेहरे हैं। इसलिए भी कि ये दोनों ही उस भारतीय मध्यवर्ग के लोकप्रिय आइकॉन हैं जो आईपॉड,कंप्यूटर, ब्रांडेडजीन्स,जूते जैसे उत्पादों का उपभोक्ता भी है। यह वही वर्ग है जो मोबाइल पर बतियाता है, कार,मोटर साइकिल पर सवार है। उदारीकरण से पैदा हुए इस अंधाधुंध उपभोक्तावाद में अन्ना हजारे गांधीवाद का और रामदेव धर्म का तड़का भी लगा देते हैं। इससे पूरी उपभोक्तावादी मध्यवर्गीय क्रांति थोड़ी और टेस्टी हो जाती है। भाजपा और आरएसएस को यह जायका इसलिए खास पंसद है क्योंकि वह जानते हैं कि अन्न्ना और रामदेव जो खीर पका रहे हैं वह आखिरकार उसी की प्लेट में आनी है। आरएसएस को तो बस इतना ही चाहिए कि जेपी और बीपी की तरह इस बार कांग्रेस का बिस्तर तो अन्ना हजारे और बाबा रामदेव बांध दें। मध्यवर्ग की क्रांति भी हो जाएगी और भ्रष्टाचार को जनम देने वाली उदारीकरण की व्यवस्था भी बची रहेगी। इसीलिए उसने रामदेव के पीछे एस गुरुमूर्ति, गोविंदाचार्य और आईबी के पूर्व चीफ अजीत डोबाल को लगाया। अब बाबा और अन्ना से जनता यह पूछने से तो रही कि कांग्रेस के सांपनाथ की जगह आप भाजपा के नागनाथ को क्यों ले आए?यह उनकी जवाबदेही भी नहीं है। ठगी हुई जनता खुद को कोसती हुई एक-दो दशक इसी अफसोस में गुजार देगी। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव का प्रभामंडल बनाने में चौबीसों घंटे जुटे न्यूज चैनलों की जिद है कि वे अपने बूते देश के मध्यवर्ग को सड़क पर उतार कर रहेंगे। कारपोरेट हितों के पहरुआ टीवी चैनलों के हाथों में मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग को अपना खिलौना बनाने की ताकत का आ जाना लोकतंत्र के लिए ही खतरनाक नहीं है बल्कि बुनियादी बदलाव के संघर्षों के लिए यह बुरी खबर है। न्यूज चैनलों का पूरा ध्यान इसी वर्ग पर है क्योंकि यह उपभोक्ता भी है और आंदोलनकारी भी। यह वर्ग चूंकि उदारीकरण और कारपोरेट के खिलाफ भी नहीं है इसलिए इसे लड़ाई का अगुआ बनाने में कोई जोखिम भी नहीं है। बाबा रामदेव के योगा समेत बाकी उत्पादों को भी इसी वर्ग की जरुरत है और अन्ना हजारे को चंदा देने वाली हिंदुस्तान लीवर को भी यही मध्यवर्ग रास आता है।
कैमरे पर पकड़े गए निशंक

रामदेव और भाजपा की मिलीभगत के सबूत

By Rajen Todariya
देश और अपने भक्तों को बाबा रामदेव ने किस तरह से अंधेरे में रखा यह अब छुपा हुआ तथ्य नहीं रहा। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक का जो नवीनतम स्टिंग आपरेशन सामने आया है उससे यह साफ हो गया है कि बाबा के अनशन के ड्रामे की पटकथा दरअसल आरएसएस, भाजपा और रामदेव के बीच बनी आपसी सहमति के बाद लिखी गई। केंद्रीय खुफिया एजेंसी आईबी के करीबी सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार अप्रैल माह में हरिद्वार मूें हुई एक गोपनीय बैठक में इस अनशन का पूरा तानाबाना बुना गया। इसमें आरएसएस के कुछ बड़े नेता भी मौजूद थे। इसकी पुष्टि बीते दिन निशंक का ताजा वीडियो मिलने से हो गई है। इस वीडियो में निशंक भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी को बाबा रामदेव के अनशन को तोड़ने के बारे में अपडेट कर रहे हैं। इसमें वह कह रहे हैं कि बाबा से उनकी बात बीती रात को हो गई है और वह आज सुबह तक अनशन तोड़ देंगे। साफ है कि जब देश भर का मीडिया अनशन पर खबर कर रहा था तब ही भाजपा के शीर्ष नेतृत्व, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और बाबा रामदेव ने अनशन तोड़ने के लिए पूरा खाका तैयार कर लिया था। इसी के तहत रविशंकर को बुलाया गया था। बताया जाता है कि रविशंकर के आर्ट ऑफ लिविंग को जमीन देकर निशंक अब रविशंकर के करीबियों की सूची में हैं। सूत्रों ने बताया कि मीडिया में अनशन को दिन भर की कवरेज दिलाने की नीयत से ही शनिवार की सुबह अनशन तोड़ने का निर्णय लिया गया। शुक्रवार की शाम को ही इसकी पूरी तैयारी कर दी गई थीं। खुफिया विभाग के सूत्रों ने अप्रैल माह में हीं आरएसएस और बाबा रामदेव के बीच पक रही खिचड़ी के बारे में केंद्र सरकार को आगाह कर दिया था।बाबा रामदेव और आरएसएस के बीच अन्ना हजारे को किनारे करने के लिए संघ के करीबी बाबा रामदेव को भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का अगुआ बनाने और इसे 1974 और 1989 के आंदोलनों की तर्ज पर चलाने को लेकर अभी तक जो भी बात कही जा रही थी वह आरएसएस की प्रतिनिधि सभा की बैठक में लिए गए फैसले और आईबी की रिपोर्ट के हवाले से की जा रही थी। लेकिन बीते दिन इस पूरी कथित साजिश का वीडियो रिकॉर्ड मिल गया है। यह वीडियो टेप दरअसल उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के स्टिंग ऑपरेशन से हासिल किया गया है। इस टेप में वह मोबाइल पर किसी बाबूजी से बात कर रहे हैं और उन्हे रामदेव के अनशन तोड़ने के कार्यक्रम की जानकारी दे रहे हैं।यह बातचीत पिछली 12 जून यानी शनिवार की सुबह रिकॉर्ड की गई है। इसमें वह बता रहे हैं कि बाबा रामदेव से सारी बातचीत हो चुकी है। चूंकि श्री रविशंकर को 12 बजे जाना है इसलिए अनशन तोड़ने का कार्यक्रम 11 बजे का रखा गया है। वह कह रहे है कि बाबा रामदेव के साथ वह बीती रात यानी शुक्रवार की शाम ही अनशन तोड़ने का पूरा प्रोग्राम तय किया जा चुका है। टेप की बातचीत में निशंक बता रहे हैं कि उन्होने इस बारे में पूरी जानकारी दीदी यानी सुषमा स्वराज को भी दे दी है। वह भाजपा के बाबूजी को यह भी बता रहे हैं कि मौसम खराब होने के कारण अनशन तोड़ते समय उपस्थित नहीं रह पायेंगे। पर दूसरी ओर से बात कर रहे बाबूजी उन पर अनशन तोड़ने के वक्त मौजूद रहने के लिए जोर डाल रहे हैं। भाजपा के सूत्रों के मुताबिक निशंक लालकृष्ण आडवाणी को बाबूजी कहकर बुलाते है।। दरअसल वह आडवाणी से बात कर रहे थे और उन्हे रामदेव से हो रही बातचीत से हर वक्त अवगत करा रहे थे। इस बातचीत से इतना साफ हो गया है कि अनशन के इस नाटक के एक अहम किरदार भाजपाई दिग्गज लालकृष्ण आडवाणी भी थे। काले धन को लेकर चुनाव में जो शोर आडवाणी ने मचाया उसके बुरी तरह से फ्लॉप हो जाने से निराश आडवाणी ने रामदेव के जरिये इस मुहिम को आगे खुफिया एजेंसी आईबी ने अर्पैल माह में ही इसकी जानकारी भारत सरकार को दे दी थी। आईबी के करीबी सूत्रों के अनुसार हरिद्वार में हुई बैठक में एनडीए के कार्यकाल में आईबी के एक पूर्व प्रमुख रहे एक कट्टर हिंदूवादी सीनियर आईपीएस अफसर, गोविंदाचार्य और संघ के कुछ वरिष्ठ रणनीतिकार इस बैठक में मौजूद थे। बताया जाता है कि इससे पहले आडवाणी से इस बारे में संघ के नेंताओं की पूरी बातचीत हो चुकी थी औा यह तय कर लिया गया था कि डीएमके द्वारा समर्थन वापस लेने की सूरत पैदा होने से पहले देश भर में एक बड़ा आंदोलन चलाया जाय ताकि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर यूपीए सरकार को गिराया जा सके ताकि सन् 2014 के बजाय 2012 में ही लोकसभा चुनाव हो सकें। इसके लिए रामदेव को चुना गया और उन्हे एक निश्चित योजना कें तहत अन्ना हजारे के आंदोलन में घुसाया गया। जब अन्ना का आंदोलन लोकप्रिय होने लगा तो उससे रामदेव को बाहर निकाल कर पूरे मुद्दे को कालेधन के उसी मुद्दे पर केंद्रित कर दिया गया जिस पर आडवाणी चुनाव में मात खा चुके थे। कालेधन के इस आंदोलन की चपेट में आने वाले अधिकांश उद्योगपति चूंकि कांग्रेस से जुडे़ हैं, यह सूचना तत्कालीन गृहमंत्री आडवाणी के पास थी इसलिए तय किया गया कि इस बहाने कांग्रेस की चुनावी मशीनरी की आर्थिक रुप से कमर तोड़ दी जाय। यूपीए सरकार ने के पास जो खुफिया जानकारी थी उसमें आशंका व्यक्त की गई थी कि रामदेव का आंदोलन अप्रिय मोड़ भी ले सकता है और यह गोधरा कांड या 1989 के वीपी सिंह आंदोलन की ओर मुड़ सकता है। इस पूरे आंदोलन का निशाना सोनिया गांधी और राहुल गांधी थे और मनमोहन पर कोई प्रहार नहीं किया जाना था। कांग्रेस ने इस रणनीति को विफल करने के लिए रामदेव को पटाने की कोशिश भी की। इसी रणनीति के तहत चार मंत्री उनकी अगवानी के लिए भेजे गए। जब रामदेव आनाकानी करने लगे तो सरकार ने उनके ट्रस्टों और कंपनियों से जुड़ी फाइलें उन्हे दिखाकर दबाव बनाने की कोशिश की । वह दबाव में आ भी गए होते यदि आरएसएस,बीजेपी उन पर दबाव नहीं डालती। रामदेव के अनशन से उठने से इंकार करते ही केंद्र सरकार ने रामलीला ग्राउंड पर हमला बोल दिया। चूंकि उसके पास खुफिया रिपोर्टें थी कि बाबा के समर्थक पुलिस से टकराव नहीं लेंगे और उन पर न्यूनतम बलप्रयोग में ही काबू किया जा सकता है। केवल विहिप,बजरंग दल और आरएसएस,बीजेपी से जुड़े लोगों द्वारा पुलिस प्रतिरोध की आंशका थी जिसके लिए पुलिस को आंसू गैस के गोले ,लाठीचार्ज समेत सख्त उपाय अपनाने के आदेश दिए गए थे पर सूत्रों का कहना है कि पुलिस को सख्ती से बता दिया गया था कि किसी भी सूरत में वे गोली न चलायें ताकि इस पर कोई वितंडा खड़ा न हो। कांग्रेस की रणनीति यह थी कि किसी तरह वह रामदेव के पीछे दुपे आरएसएस और भाजपा को सड़क पर लाने में कामयाब हो जाय ताकि यह सिद्ध किया जा सके कि रामदेव दरअसल आरएसएस की कठपुतली है। अपनी इस रणनीति में कांग्रेस कामयाब रही है और अब निशंक ने इसके सबूत के तौर पर अपना वीडियो टेप भी उसके हवाले कर दिया है।

बुधवार, 15 जून 2011

मकबूल फिदा हुसैन के बहाने नए भारत की खोज
By Rajen Todariya
मकबूल फिदा हुसैन की मौत पर देश भर में तीन तरह की प्रतिक्रियायें सामने आईं। पहली श्रेणी में वे लोग थे जिन्होने एक भारतीय की तरह उनके निधन पर शोक व्यक्त किया। दूसरी श्रेणी में वे लोग थे जिनके लिए हुसैन की मौत से ज्यादा दुखद यह था कि उनको हिंदू कट्टरपंथियों के दबाव में बुढ़ापे में देश छोड़कर जाना पड़ा । इस प्रतिक्रियाओं में कट्टरपंथ के खिलाफ गुस्सा भी था और चिंता भी कि कट्टरपंथ देश में कला,साहित्य के लिए भी उन्मादी हिंदू एजेंडा तय करने पर आमादा है।इन दोनों श्रेणियों के लोगों ने हुसैन के जीवित रहते हुए उनके साथ हुए सलुक पर कभी सड़क पर आने की जरुरत नहीं समझी। तीसरी श्रेणी में वे लोग हैं जो हुसैन की मौत पर खुश भी थे और उनके चित्रों के लिए उन्हे गलिया भी रहे थे। हिंदू उन्मादियों का यह तबका मरणोपरांत भी हुसैन को माफ करने के तैयार नहींे है। उन्हे 90 साल के एक अशक्त और निहत्थे बूढ़े कलाकार को परेशान कर उसे देश छोड़ने के लिए बाध्य करने के भगवा ब्रिगेडों के शौर्य और पराक्रम पर कोई पछतावा नहीं है उल्टे वे इस पर मुग्ध हैं।हम जिसे भारतीय लोकतंत्र कहते हैं वह इन्ही तीन ताकतों से मिलकर बनता है। क्योंकि बाकी लोग जो हुसैन को जानते और पहचानते नहीं। वे वोटर तो हैं पर भारतीय लोकतंत्र में उनकी कोई भूमिका नहीं है। उस हाशिए के भारत को छोड़ दंे तो यही तीन तबके वह भारत को बनाते हैं जो उदारीकरण के बाद तैयार हुआ है। यह नया भारत है जिसे बाबा रामदेव, अन्ना हजारे ,कारपोरेट कंपनियां और टीवी चैनल तक सारे खोज रहे हैं। हुसैन के बहाने इस भारत की खोज की जानी चाहिए । उदारीकरण के बाद जनमे इस भारत को समझना इसलिए भी जरुरी है क्योंकि भारतीय लोकतंत्र की दिशा भी यही भारत तय करता है। जिन लोगों ने हुसैन के निधन पर एक भारतीय के नाते दुख व्यक्त किया वे भारत की उस उदात्त परंपरा के प्रतिनिधि हैं जो विभिन्न धाराओं और प्रवाहों की स्वायतत्ता का सम्मान करती है। यह धारा मानती है कि भारतीय राष्ट इन्ही अनेकताओं और मतभिन्नताओं के सम्मान से बनता है। उनका भारत इकहरा भारत नहीं है बल्कि वह विभिन्न रंगों और परस्पर विरोधी स्वभाव और स्वार्थ वाले धागों की ऐसी जटिल बुनावट वाली संरचना है जो एक दूसरे से टकराती भी हैं और एक-दूसरे में गहरी गुंथी हुई भी है। इस तबके के लिए हुसैन भारत की उस मनीषी परंपरा के प्रतिनिधि हैं जो चार्वाक,कालिदास, बाणभट्ट से लेकर गालिब, रविंद्रनाथ टैगोर तक अनगिनत धाराओं से मिलकर बनती है। दूसरी श्रेणी में वह तबका आता है जो हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा हुसैन के साथ किए गये दुर्व्यवहार और उसके चलते उनके द्वारा देश छोड़े जाने की घटना से आहत है। यह वर्ग जानता है कि कला-साहित्य पर दलीय या सांप्रदायिक एजेंडा लागू करने के खतरे क्या हैं? ये लोग उस उन्माद के कारण लोकतंत्र के ताने-बाने पर पड़ने वाले असर से भली भांति वाकिफ हैं। मोटे तौर इन दोनो तबकों में भारत की विविधता की अकादमिक समझ रखने वाले लोग भी हैं और सतही समझ रखने वाले लोग भी हैं। वे भारत को उतना ही जानते हैं जितना वह किताबों,फिल्मों,वृत्तचित्रों समेत जनसंचार के विभिन्न माध्यमों से दिखाई देता है। इनके भारत का छोटा सा हिस्सा ही उनके अनुभवों से बनता है। इन दोनों तबकों की खासियत यह है कि उनको भारत से हुसैन का निर्वासन नागवार तो बहुत गुजरा है लेकिन वे तब बिल्कुल निष्क्रिय रहे जब संघ परिवार उच्चस्तर पर तय की गई अपनी रणनीति के तहत एम।एफ के खिलाफ देश के विभिन्न कस्बों,शहरों में मुकदमे दर्ज करवा रहा था। वे तब भी चुप थे जब हुसैन की प्रदर्शनियों पर भगवा ब्रिगेडों की अर्द्धविक्षिप्त भीड़ हमला कर रही थी। टीवी बहसों के लोकप्रिय चेहरे, सेकुलरवाद के धुरंधर पहरुए और कैंडिल मार्चों के संभ्रांत योद्धा तब सड़कों पर नहीं उतरे। उन्होने हस्तक्षेप करने के बजाय कला का मैदान उपद्रव कला में माहिर भगवा ब्रिगेडों की वानर सेना के लिए खुला छोड़ दिया था। जाहिर है कि जुबानी विरोध और कागजी चिंताओं के बूते सांप्रदायिक फासीवाद को पराजित नहीं किया जा सकता। हुसैन का आत्मनिर्वासन भगवा ब्रिगेडों के इन्ही हमलों से उपजी एक असहाय बूढ़े आदमी की हताश प्रतिक्रिया थी।इन दोनों तबकों से बिल्कुल अलग वह तबका है जो मुखर है और आक्रामक भी। उदारीकरण के बाद शहरी भारत और ग्रामीण अभिजात्य के मेल से जो भारत बना है उसमें यह तबका सबसे ज्यादा प्रभावी है। इसके पास उच्च मध्यवर्गीय और उच्च वर्गीय आर्थिक आधार भी है तो इसके पास उपद्रवों के जरिये विध्वंस के लिए दीक्षित निम्नमध्यवर्गीय वानर सेना भी है। यानी इसका सामाजिक आधार दो तरह के वर्गों से तैयार होता है। जहां उसे सांप्रदायिक युद्धों के लिए मानव बल की आपूर्ति निम्नमध्यवर्ग से होती है वहीं उसे सांप्रदायिकता और कट्टरता को फाइनेंस करने का धनबल उच्च मध्यवर्ग और उच्चवर्ग से मिलता है। आर्थिक कारणों से पैदा हो रहे असंतोष को सांप्रदायिक आधार पर मुस्लिमों और ईसाईयों की ओर मोड़ने से उच्चवर्ग के हित सुरक्षित रहते हैं। दरअसल भगवा ब्रिगेडें आर्थिक आधार पर विभाजन रोकने के लिए सांप्रदायिक विभाजन का एक बफर जोन तैयार करती हैं ताकि उच्च वर्ग के सेठ लोग मध्यवर्ग के उस गुस्से से बचे रहें जो आर्थिक असुरक्षा,महंगाई और बेरोजगारी से जमा हो रहा है। उदारीकरण के बाद जो विशाल मध्यवर्ग तैयार हो रहा है वह लोकतंत्र में मौजूद सारे लोकतांत्रिक स्पेस को तेजी से झपटता जा रहा है। इसका बड़ा हिस्सा स्वभाव से आक्रामक, बेचैन, रातोंरात अमीर बनने को उतावला और अंधविश्वासी है। भगवा ब्रिगेडों का प्रचार तंत्र इसके दिमाग में अपनी सूचनायें भरने में कामयाब रहा है। इसी प्रचार का कमाल है कि वे इस देश की दुर्दशा के लिए या तो मुसलमानों को जिम्मेदार मानते हैं या फिर आरक्षण का लाभ लेने वाले दलितों और पिछड़ों को। ये दोनों तबके लालू,मुलायम,मायावती से उनके भ्रष्टाचार से ज्यादा उनकी जाति के कारण नफरत करते हैं। इनका भ्रष्टाचार उनकी जातीय श्रेष्ठता की अवधारणा को तर्क और औचित्य प्रदान करता है। ये वर्ग नीतिश कुमार की आड़ में अपने सवर्ण कैनाइन टीथ छुपाए रखने में माहिर भी हैं ताकि उन पर सवर्णवाद का ठप्पा न लग सके। उन्हे पिछड़ों और दलितों के वे नेता पसंद हैं जो सवर्णों के साथ मेलमिलाप कर चलने में यकीन रखे न िकवे जो आक्रामक जातीय गोलबंदी में यकीन रखते हैं। आक्रामक हिंदूवाद में यकीन रखने वाले ये इन लोगों में अधिकांश नियमित पूजा करने के कायल भी हैं तो रात की शराब पार्टियों के शौकीन भी हैं। राजनीतिक रुप से इनमें से अधिकांश कांग्रेस विरोधी हैं पर इनमें से कई अपने सांप्रदायिक कलर के साथ कांग्रेस समर्थक भी हैं। कांग्रेस की जो नरम हिंदू सांप्रदायिकता है वह इन्ही तत्वों के प्रभाव से पैदा होती है।दिलचस्प यह है कि उदारीकरण से समृद्ध हुए इन लोगों में से भारत की उदात्त परंपरा से कोई लेना देना नहीं है। वे मुसलमानों से इस कदर नाराज हैं कि चार्वाक या कालिदास को नहीं जानना चाहते। वे मतभिन्नता की आजादी की सदियों पुरानी भारतीय विचार परंपरा को भी नहीं जानना चाहते। संघ परिवार की तरह वे भी अहिंसा और मतभिन्नता की आजादी या धर्मनिरपेक्षता को हिंदुओं की कायरता मानते हैं।यह ऐसा भारत है जो देश की सारी समस्याओं के लिए बाबर, मुसलमानों, महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरु को जिम्मेदार मानता है। ये भगत सिंह और सुभाष बोस को उनकी समाजवादी विचारों के लिए नहीं पूजते बल्कि गांधी विरोध के लिए पूजते हैं। कम्युनिस्ट होने कारण वे चीन से नफरत भी करते हैं और ताकतवर होने के कारण उसके प्रशंसक भी हैं।उनका सबसे बड़ा और दिलचस्प अंतर्विरोध यह है कि वे इस्लाम से नफरत भी करते हैं और उसकी कट्टरता के कायल भी हैं। हिंदुओं का कोई राजनीतिक और धार्मिक सत्ता केंद्र न होने से वे परेशान हैं इसलिए वे इस्लाम और सिख धर्मो पर फिदा हैं। आक्रामक सांप्रदायिकता के कायल ये लोग इस्लाम और सिखिज्म की तरह हिंदुओं में भी एक अर्द्ध धार्मिक,अर्द्ध राजनीतिक सत्ताकेंद्र विकसित करना चाहते हैं ताकि साधु-संतों और संघ परिवार के मध्ययुगीन सामंती गिरोहों को हिंदुओं के लौकिक जीवन को भी नियंत्रित करने का अधिकार मिल सके। दरअसल उन्हे लोगों के लौकिक व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए फतवा देने का इस्लामी अधिकार चाहिए। हुसैन के खिलाफ फतवा देकर उन्होने बताया भी कि उनके पास अपने फतवों को लागू करने की ताकत भी है। इनमें से कई लोग अक्सर तर्क देते हुए मिल जायेंगे कि क्या एमएफ हुसैन मोहम्मद साहब के चित्र बना सकते थे? चूंकि इस्लाम हुसैन को यह आजादी नहीं देता इसलिए हिंदूधर्म को भी उन्हे यह आजादी नहीं देनी चाहिए। जाहिर है कि वे इस्लाम के इसी कट्टरपन के कायल हैं। यह भले ही अजीब लगे लेकिन सच्चाई यही है कि मुसलमान बिरादरी के बाहर इस्लामी कट्टरता का अनुसरण करने वाला यह सबसे बड़ा तबका है। इस मायने में वे अयातुल्ला खुमैनी और तालिबानी मुल्ला उमर के सबसे करीबी सहोदर हैं। ये भी उमर और खुमैनी की तरह अपने धर्म के उदारवादियों के खून के प्यासे हैं और सबसे पहले इन्हे ही कत्ल करने का हक हासिल करना चाहते हैं। यदि उनके धार्मिक और राजनीतिक डीएनए का परीक्षण किया जाय तो वे भारतीय मनीषी परंपरा के बजाय अरबी नस्ल के ज्यादा करीब हैं। अंतर बस इतना है कि यदि खुमैनी और मुल्ला उमर का ब्लड ग्रुप ‘ओ पॉजीटिव’ मान लिया जाय तो इनका ब्लड ग्रुप शर्तिया ‘ओ नेगेटिव’ ही निकलेगा। उनका हिंदू धर्म दरअसल इस्लाम का नेगेटिव संस्करण है। कोई भी नेगेटिव मौलिक नहीं होता बल्कि अपने पॉजिटिव का ही उल्टा होता है। यह तबका खुद तो लोकतंत्र के सारे लाभ लेना चाहता है पर जब बाकी लोग इनके खिलाफ अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का उपयोग करना चाहते हैं तब ये बिदक जाते हैं। इस्लाम के नक्शे कदम पर चलते हुए ये भी यही चाहते हैं कि हिंदू देवी-देवता, अवतारों के लौकिक व्यवहार पर कोई सवाल न उठे। सदियों से भगवान राम, कृष्ण समेत अन्य देवताओं पर उठाए जा रहे सवाल अब न उठाए जांय। शंबूक की हत्या से लेकर बालि वध और सीता को निकाले जाने तक जो सवाल हैं वे आज न पूछे जांय।जाहिर है कि वे एक तर्क पर आधारित समाज नहीं बल्कि अंधविश्वासी भेड़ों की जमात चाहते हैं ताकि धर्म के गडरिये भारतीय जनता को अपने हिसाब से हांकते रहें।वे चाहते हैं कि खरबों रुपए जमा करने वाले साधु-संतों,पंडे-पुजारियों के गिरोहों को गाय की तरह पवित्र, अवध्य और अलौकिक घोषित कर दिया जाय ताकि उनकी लूट जारी रहे।उदारीकरण ने भारतीय समाज के परंपरागत उदात्त स्वरुप को बुरी तरह से प्रभावित किया है। भारतीय समाज में उन्मादी और आलोचना बर्दाश्त न कर सकने वाली राजनीति का एक स्पेस विकसित हो चुका है। इसे एमएफ हुसैन के बहाने भी समझा जा सकता है और बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आंदोलनों से भी। क्योंकि लोकतांत्रिक अधिकार के नाम पर शुरु किए गए इन दोनों मध्यवर्गीय आंदोलनों के भीतर भी नेतृत्व पर सवाल उठाने का जनतांत्रिक स्पेस गायब है।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

छोटे अखबारों की बड़ी लड़ाई
एस0राजेन टोडरिया
आने वाला इतिहास जब कभी मौजूदा मुख्यमंत्री के राजनीतिक सफर को बयां करेगा वह यह भी दर्ज करेगा कि उन्होने अपनी राजनीति का ककहरा भले ही शिशु मंदिर के शिक्षक के रुप में सीखा हो पर राजनीति में उनकी उड़ान की शुरुआत टूटे अक्षरों की इबारत वाले एक चार पेजी अखबार से हुई थी। विडंबना यह है कि वही इतिहास उन्हे पूरी शक्ति,सामर्थ्य और जुनून के साथ छोटे अखबारों के गला घोंटने के लिए भी याद करेगा। भविष्य मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक के व्यक्तित्व को इस विरोधाभास की रोशनी में पढ़ेगा और इस अजूबे से विस्मय में भी पड़ेगा। वह शायद इतिहास में अकेले ऐसे पत्रकार राजनेता होंगे जो मात्र कुछ सैकड़ा बंटने वाले छोटे-छोटे अखबारों में भी असहमति और आलोचना के स्वर बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं। यह इस बात का भी सबूत है कि सत्ता आदमी को किस हद तक दुर्बल,दयनीय और असहिष्णु बना देती है।उत्तराखंड में बड़े अखबारों और क्षेत्रीय चैनलों को मिलाकर मीडिया की कुल जमा जो तस्वीर बनती है वह चारण अखबारों और चमचा चैनलों की बनती है। काश! हमारे समय में भी कोई भारतेंदु हरिश्चंद्र होते तो मीडिया की इस दुर्दशा पर कोई नाटक जरुर लिखते। फिर भी मीडिया की इस दुर्दशा का पूरा श्रेय सिर्फ मौजूदा मुख्यमंत्री के पुरूषार्थ को देना ठीक नहीं होगा। एनडी तिवारी ने अपने राजनीतिक जीवन के पूरे अनुभव को झोंकते हुए करोड़ों रु0 की खनक के बूते मीडिया की इन कुलीन कुलवधुओं को नगरवधू बना दिया। तिवारी की ही परंपरा पर चलते हुए मौजूदा मुख्यमंत्री ने इन्हे हरम पहुंचा दिया है। विज्ञापन का बजट हर रोज छलांगें मार रहा है। अंतःपुर के कारिंदे रोज किसी न किसी को लाख-दो लाख से लेकर तीस-तीस लाख के पैकेजों की बख्शीशें दिला रहे है। राजा ने अपना खजाना खोल दिया है, ‘‘लूट सके तो लूट’’। प्रदेश में अभूतपूर्व आपदा है, पहाड़ के गांवों में लोग एक-एक पैसे और एक टाइम के खाने के लिए जूझ रहे हैं पर सरकार है कि चैनलों में प्राइम टाइम में दस साल का जश्न पर करोड़ों के विज्ञापन लुटा रही है। विधानसभा चुनाव से पहले की इस लूट में मीडिया मस्त है और पत्रकारिता पस्त है। यह सुनकर अजीब लगे पर सच यही है कि आपदा के दौरान भी उत्तराखंड के दैनिक अखबारों और क्षेत्रीय चैनलों के लिए विज्ञापन कम नहीं हुए उल्टे बढ़ गए । आपदा को लेकर दिए गए विज्ञापनों के आंकड़े इस उलटबांसी के गवाह हैं। अखबारों ने आपदा के नाम पर भी विज्ञापन कमाई के जरिये निकाल लिए।एक हिंदी अखबार ने राहत कार्यों पर सरकार की चमचागिरी का नया रिकार्ड कायम कर दिया। ऐसा घटियापन कि कल्पना करना मुश्किल है कि खरबों रु0 का मीडिया हाउस चलाने वाली कंपनी का एक अखबार मात्र 28 लाख रु0 के पैकेज के लिए इस हद तक गिर जाएगा!लेकिन यह कोई अपवाद नहीं है। ऐसे वाकये अक्सर होते रहते हैं सिर्फ अखबारों के नाम बदल जाते हैं। कुछ अखबार चमचागिरी में शऊार बरतते हैं तो कुछ नंग-धड़ंग होकर 17 वीं सदी के भांडों की तरह इसे अंजाम दे रहे हैं। उत्तराखंड में बड़े दैनिकों ने संपादक को ऐसे प्राणी में बदल दिया गया है जो सरकारी विज्ञापनों के लिए मुख्यमंत्री को रिझाने और पटाने के वे सारे गुण जानता हो जो एक समय गणिकाओं के लिए जरुरी माने जाते थे। माहौल ऐसा है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग सुबहो शाम समाचार माध्यमों में ‘तन डोले मेरा मन डोले’ की धुन ही सुनना चाहते हैं। मुख्यधारा के इस रवैये ने राज्य की पत्राकारिता को भांडगिरी में बदल दिया है। एक अखबार ने मुख्यमंत्री के पुतले जलाने की घटनाओं की खबरें छपने से रोकने के लिए संवाददाताओं को पुतलादहन की खबरें न भेजने का फरमान जारी कर दिया तो दूसरे ने राजनीतिक खबरें छोटी और बाजार से जुड़ी खबरें बड़ी छापने की आचार संहिता लागू कर दी है। अखबार और चैनलों के दफ्तरों में ऐसी खबरों का गर्भपात कर दिया जाता है जिनमें थोड़ा भी मुख्यमंत्री विरोध की गंध आती हो। मंत्रियों और अफसरों के खिलाफ छापिए पर उतना ही जितने में मुखिया की छवि पर असर न पड़े, यह अलिखित आचार संहिता अखबारों और चैनलों के ऑफिसों में लागू है। खबरें न छापना आज सबसे बड़ा कारोबार बन गया है। पत्रकारिता की पेशेवर ईमानदारी का हाल यह है कि पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी की खबरें अखबारों और चैनलों से सिर्फ इसलिए गायब कर दी गई हैं क्योंकि सत्ता के शिखर पुरूष को चैनलों और अखबारों में जनरल नाम तक देखना पंसद नहीं है। समाचार माध्यम इस संकीर्णता और अनुदारता के राजनीतिक एजेंडे के एजेंट बने हुए हैं। गौरतलब है कि ये वही अखबार और चैनल हैं कि जो जनरल के मुख्यमंत्रित्व काल में उनकी ईमानदारी के कसीदे पढ़ रहे थे। वह वक्त चला गया जब बड़े अखबार सरकारी दबाव झेलने के लिए ज्यादा बेहतर माने जाते थे और तमाम दबावों के बावजूद वे सत्ता की दौलत और ताकत के आगे तने दिखते थे। अब ऐसा समय है जब ये अखबार सरकारी विज्ञापनों के बिना जिंदा ही नहीं रह सकते हैं। पहले छोटे अखबार अपनी आर्थिक संसाधनों की सीमाओं के चलते ज्यादा नाजुक माने जाते थे। बाजार की महिमा देखिये कि उसने कई हजार करोड़ के बड़े-बड़े मीडिया हाउसों को छुईमुई बना दिया है। चारणों और चमचों की पांत में सबसे आगे वे ही हैं जो सबसे बड़े हैं।लेकिन क्षेत्रीय चैनलों और बड़े अखबारों के पतित होने से सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध की आवाजें दबी नहीं हैं। उत्तराखंड के स्थानीय और छोटे अखबारों के एक हिस्से ने सरकार के आगे घुटने टेकने से इंकार कर दिया है। यह एक सकारात्मक बदलाव है। इस हिस्से में लगातार घोटाले छप रहे हैं, मुख्यमंत्री के खिलाफ खबरें और विश्लेषण छप रहे हैं। इससे हैरान और परेशान मुख्यमंत्री ने पहले घोषणापत्र की आड़ में इन छोटे अखबारों को धमकाने की कोशिश की, सूचना विभाग के अफसर खबरों पर संपादकों के जबावतलब करने की हद तक चले गए। इस पर शर्मिंदा होने के बजाय एक छोटे अखबार के स्वामी,प्रकाशक और संपादक रहे राज्य के मुखिया की छाती गर्व से फूलती रही कि उन्होने छोटे अखबारों को उनकी औकात बता दी। उनके मुंहलगे अपफसर और कांरिंदे हर रोज विरोध में लिखने वाले अखबारों का आखेट करने के तौर तरीके खोजने में लगे हैं। इसी के तहत सचिवालय और विधानसभा में छोटे अखबारों के घुसने पर पाबंदी लगा दी है। जबकि बड़े अखबार वहां बांटे जा सकते हैं। सत्ता के इन शुतुरमुर्गों को यह समझ नहीं आ रहा है कि सरकार के कुछ अफसरों और कर्मचारियों के न पढ़ने से क्या मुख्यमंत्राी के खिलाफ आए दिन छपने वाली खबरों और घोटालों की मारक क्षमता कम हो जाएगी? जाहिर है कि आम लोगों तक तो वे पहुंचेंगी ही। ऐसे कदम एक सरकार की बदहवासी और डर को जाहिर करते हैं और उस पर कमजोर सरकार का बिल्ला भी चस्पा कर देती हैं। तानाशाही सनकों से भरे ऐसे फैसलों के बावजूद न छोटे अखबार डर रहे हैं और न मुख्यमंत्री के खिलाफ खबरें छापने से बाज आ रहे हैं। यह एक तरह से छोटे प्रेस की गुरिल्ला लड़ाई है जो सत्ता के महाबली शिखर पुरुष पर हमले कर उसे बेचैन किए हुए है। जिसने मुख्यधारा के मीडिया को लौह कपाट वाले अपने काले-कलूटे गेट पर चौकीदारी के लिए बांध दिया है, ऐसे शिखर पुरुष के खिलाफ छोटे अखबारों की यह लड़ाई महत्वपूर्ण भी है और सत्ताधारियों के लिए चेतावनी भी है कि वे समूचे प्रेस को दुम हिलाने वाला पालतू पशु में नहीं बदल सकते। कुछ लोग हर समय रहेंगे जो सत्ता के खिलाफ सच के साथ रहने का जोखिम उठायेंगे। यह सिलसिला चलता रहेगा। उल्लेखनीय यह है कि चारणकाल में सच कहने की जुर्रत करने वाले इन सारे छोटे अखबारों,पत्रिकाओं की कुल प्रसार संख्या मुश्किल से कुछ हजार ही है। जो लाखों छपने और बंटने वाले दैनिक अखबारों की दस फीसदी भी नहीं है लेकिन इतनी कम संख्या के बावजूद राज्य के मुखिया इनसे घबराये हुए हैं। लाखों पाठक और दर्शक संख्या वाले अखबार और चैनलों सुबह-शाम प्रशस्ति वाचन के कर्मकांड में लगे हुए हैं तब भी विरोध की इन तूतियों से राजा क्यों हैरान हैं? दरअसल इन अखबारों ने खबरों के असर के उस तिलिस्म को तोड़ दिया है जो बड़े अखबार प्रचारित करते रहे हैं। खबरों पर बड़े अखबारों का एकाधिकार ही नहीं टूटा है बल्कि उनकी सीमायें, दरिद्रता और दयनीयता भी उघड़ गई है। पत्रकारिता के इस समर में वे कागजी शेर साबित हो रहे हैं,उनकी कथित ताकत का मिथक टूट रहा है। जनमत को प्रभावित करने में उनकी भूमिका अब सिफर हो गई है। उनकी हर खबर पर उंगलियां उठती हैं और उसे सत्ता या स्थानीय ताकतवर लोगों के हाथों बिकी हुई खबर मान लिया जाता है। उन्हे खबरों का सौदागर करार दिया जा रहा है। उनके दफ्तरों में सच को कत्ल करने के लिए जो कसाईबाड़े बने हैं उनकी दुर्गंध अब जनता तक पहुंचने लगी है। राज्य के लोग समझ रहे हैं कि राजा नंगा है पर खबरों के ये दुकानदार उसके कपड़ों के डिजायन की तारीफ में पन्ने रंग रहे हैं। मुख्यधारा के समाचार माध्यमों की साख के इस तरह निम्नतम स्तर पर पहुंच जाने से ही आम लोग खोज-खोज कर सरकार विरोधी खबरें पढ़ रहे हैं। इससे इतना तो पता चल ही जाता है कि लोगों का रूझान बदल रहा है,जिस पाठक को मीडिया के महारथी ‘विचारविहीन उपभोक्ता’ प्राणी घोषित कर चुके हैं उसका मिजाज बदल रहा है। वह बदलाव के मोर्चे पर भले ही लड़ाई नहीं लड़ रहा हो पर वह सत्ताधरियों के काले सच को विचार के साथ जानना चाहता है। उत्तराखंड कभी भी वैचारिक रुप से गंजे लोगों की नासमझ भीड़ नहीं रहा है। उसके भीतर सच जानने को उत्सुक समाज है। लोकप्रियता में आये इस उछाल से छोटे अखबारों को भी मुगालते में नहीं रहना चाहिए। यह उनका नहीं उस सच का चमत्कार है जो वे छाप रहे हैं। छोटे अखबार यदि अपने हीनताबोध से उबर सकें तो वे साबित कर सकते हैं कि अखबार बड़े या छोटे नहीं होते, ये खबरें हैं जो अखबारों को बड़ा बनाती हैं तो उन्हे छोटा भी साबित कर देती हैं। खबरों की मारक सीमा और क्षमता हर साल जारी होने वाले प्रसार संख्या के निर्जीव और गढ़े गए आंकड़ों से तय नहीं होती। खबरों में सच और दम होता है तो वे एक मुख से दूसरे मुख तक होते हुए या फोटोस्टेट होकर भी कई गुना घातक हो जाती हैं। सच और अपने समाज की समझ मामूली माने जाने वाली खबरों को भी कालजयी बना देती है।उत्तराखंड के पत्रकारिता क्षितिज पर घट रही यह छोटी सी घटना बताती है कि देश के स्तर पर पत्रकारिता को समर्पित छोटे अखबारों,चैनलों और इंटरनेट अखबारांें के बीच यदि राष्ट्रीय स्तर पर तालमेल और संवाद स्थापित हो सके तो जनपक्षीय पत्रकारिता का एक बड़ा गठबंधन भविष्य में उभर सकता है। यह कठिन है पर इस दिशा में गंभीर प्रयास शुरू किए जाने चाहिए। मीडिया हाउसों के एकाधिकारवादी भस्मासुरों के खिलाफ यह पत्रकारिता के जनतंत्राीकरण और विकेंद्रीकरण की शुरूआत हो सकती है।

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

21000 करोड़ का झूठ

बरसात का कहर अभी थमा भी न था कि मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार से 21हजार करोड़ का राहत पैकेज मांगकर अपने अफसरों से लेकर भाजपा के बड़े नेताओं को हैरत में डाल दिया। विशेषज्ञ सशंकित थे कि नौकरशाही मुख्यमंत्री के भारी भरकम आंकड़े के बराबर की आपदा को फाइलों में कैसे डिजायन कर सकेगी। राजनीतिक दबाव में सरकारी अमले ने 21000 करोड़ रुपए की आपदा को फाइलों में पैदा कर दिखा दिया कि आंकड़ेबाजी की कला में वे देश के सबसे बेहतरीन सरकारी तंत्र हैं। केंद्र में कई जिम्मेदारियां निभा चुके एक रिटायर्ड आईएएस अफसर ने इस आंकड़े पर टिप्पणी करते हुए कहा,‘ अविश्वसनीय! विचित्र!! और बचकाना!!! उन्होने आगे कहा,‘ लगता है आपके मुख्यमंत्री पिस्तौल पाने के लिए तोप का लाइसेंस मांग रहे हैं।’ आपदा राहत के इतिहास के दस सबसे बड़े राहत पैकेजों में से एक के लिए इतना भारी भरकम आंकड़ा खोजकर खुद को कोलबंस मान रही सरकार को शायद पता भी न हो उसके आंकड़े ही इस फर्जीवाड़े की पोल खेल रहे है। इन आंकड़ों का विश्लेषण साबित कर देता है कि इसमें बुनियादी बातों का भी ध्यान नहीं रखा गया। सारे कामों की वीडियोग्रापफी कराने के केंक्त के अभूतपूर्व फैसले ने इन आंकड़ों की साख पर सवालिया निशान लगा दिया है। विडंबना यह है कि इस महाकाय राशि में में आपदा पीड़ितों के हिस्से बस एक फीसदी ही आएगा । उनमें से अधिकांश को 2,250 रु0 से ज्यादा नहीं मिलेंगे । राहत की मलाई सरकारी विभागों के लिए आरक्षित होगी।राज्य सरकार द्वारा केंद्र को भेजे गए 21000 करोड़ रुपए की राहत की डिमांड का विश्लेषण करने से पहले यह जानना उचित होगा कि यह आंकड़ा किस तरह से तैयार हुआ। दैवी आपदा के आकलन का ग्रास रूट पर पटवारी ही एकमात्र सरकारी कर्मचारी है। इस समय पहाड़ में 1,220 पटवारी हैं जिनमें से हरेक को औसतन सात गांव देखने पड़ते हैं। इन्ही पटवारियों से मिली सूचना के अनुसार सरकार से उन्हे 25 सितंबर को आपदा से हुए पूरे नुकसान की रिपोर्ट भेजने का आदेश मिला और अक्तूबर के पहले सप्ताह में उन्होने रिपोर्ट जिला प्रशासन को भेज दी। इन रिपोर्टों को संकलित करने में यदि दो दिन भी लगे हों तब भी यह रिपोर्ट दस अक्तूबर को ही राज्य मुख्यालय पहुंच पाई होगी। लेकिन मुख्यमंत्री ने 21000 करोड़ के नुकसान का बयान 22-23 सितंबर को हुए विधानसभा सत्र के दौरान ही दे दिया था। सचिव आपदा डा0राकेश कुमार के अनुसार नुकसान के इस आकलन को केंद्रीय राहत दल के आने से पहले 30 सितंबर को अंतिम रुप दे दिया गया था। क्या मात्रा एक सप्ताह में लगभग एक लाख 20 हजार लंबी सड़कों, नहरों और बिजली लाइनों, साढ़े सात लाख हेक्टेयर कृषि भूमि, दो लाख हेक्टेयर बगीचों,23 लाख मकानों और लगभग 22 हजार स्कूल भवनों का सर्वे किया जा सकता है? वह भी सिर्फ दो हजार कर्मचारियों द्वारा? 670 कृषि कर्मी एक सप्ताह में 7 लाख 16 हजार हैक्टेयर यानी एक कर्मचारी ने प्रतिदिन 4 गांवों की 7600 नाली जमीन पर खड़ी फसल का सर्वे किया। एक उद्यानकर्मी ने प्रतिदिन में 6 गांवों में जाकर 2300 नाली में स्थित बगीचों का सर्वे कर लिया। यदि ऐसा हुआ है तो यह चमत्कारिक है। आश्चर्यजनक यह भी है कि सार्वजनिक संपत्तियों और कृषि भूमि को हुई क्षति के आकलन के लिए सरकार ने ग्राम स्तर पर समितियों के गठन का शासनादेश 13 अक्तूबर को जारी किया। इस आदेश में सभी जिलों के डीएम को ग्राम प्रधान, क्षेत्र पंचायत सदस्य, ग्राम विकास अधिकारी और स्थानीय प्राइमरी विद्यालय के शिक्षक की चार सदस्यीय समिति गठित करने का निर्देश दिया गया। समितियों को क्षतियों के विवरण भेजने के लिए एक सप्ताह का समय दिया गया। जाहिर है कि यह ब्यौरा 20 अक्तूबर तक जिलाधिकारियों तक पहंुचा होगा और जिलों से संकलित होकर 23 अक्तूबर तक यह सचिवालय आया होगा।अब सवाल यह उठता है कि जब 23 अक्तूबर तक अंतिम रिपोर्ट नहीं आई तब मुख्यमंत्री ने एक माह पहले, सचिवालय ने तीन सप्ताह पहले कैसे 21000 करोड़ रु0 के नुकसान का सटीक पूर्वानुमान लगा दिया और यही नहीं इस अनुमान को आंकड़ों में ढ़ालकर केंक्तीय दल और प्रधनमंत्राी को भी सौंप दिया। गजब यह कि ऐसा पटवारियों द्वारा भेजी गई पहली रिपोर्ट से भी पहले ही कर दिया गया। इसी संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि सरकार में आपदा के आकलन को लेकर खासा कन्फ्यूजन व्याप्त है। इसी कारण से नुकसान के आकलन को लेकर शासन में रिपोर्टों के प्रारूप बदलते रहे। 4 सितंबर को शासन ने सभी विभागों को पत्र भेजकर केंद्र के मानकों के आधार पर रिपोर्ट तलब की फिर 14 सितंबर को नया प्रारुप भेजकर आंकड़ों को नये सिरे से मंगाया गया। इस प्रारूप में मानक बदल दिए गए। सूत्रों का कहना है कि नुकसान के सूचकांक को 21000 करोड़ रु0तक पहुंचाने का ड्रीम प्रोजेक्ट इसी प्रारूप के साथ शुरू हुआ। अब एक बार फिर समितियां बनाकर नुकसान का जायजा लिया जा रहा है। इस प्रकार विभागों से तीन बार रिपोर्टें मंगाई गईं। यह कन्फ्यूजन आंकड़ों के पीछे चल रहे खेल को उजागर कर देता है।भूस्खलन से प्रभावित गांवों को लेकर केंद्र को भेजी गई रिपोर्ट से भी यही जाहिर होता है। सर्वे के लिए अभी भूविज्ञानियों के दल बाद में गठित किए गए और उनका सर्वे अभी तक पूरा नहीं हुआ पर सरकार सितंबर में ही इस नतीजे पर पहुंच गई कि 233 गांव अब लोगों के रहने के लिए खतरनाक हो चुके हैं और इनके पूर्ण विस्थापन के अलावा कोई विकल्प नहीं है। चंूकि मांगी गई राहत का 57 फीसदी इन गांवों के ही पुनर्वास पर खर्च किया जाना है इसलिए इस आंकड़े की विश्वसनियता मायने रखती है। इसका न केवल वैज्ञानिक आधार होना चाहिए बल्कि राज्य और केंद्र द्वारा प्रति परिवारके लिए निर्धरित पुनर्वास राशि के मानक पर इस आंकड़े को खरा उतरना चाहिए पर सच्चाई यह है कि सरकार के इस आंकड़े का कोई वैज्ञानिक आधार अभी तक स्थापित नहीं हो पाया है और यह केवल प्रथम दृष्ट्या सतही अनुमान मात्र है।अब जरा तथ्यों और तर्क पर सरकार के आंकड़ों को परखा जाय। राज्य सरकार के आंकड़े के हिसाब से 233 गांवों के 3049 परिवारों के पुनर्वास के लिए 12000 करोड़ रूपए उसे चाहिए। यानी वह पुनर्वास के लिए प्रति परिवार पर 4 करोड़ रुपए खर्च करेगी। यदि ऐसा है तो देश की सबसे बेहतरीन पुनर्वास नीति और मानक तय करने के लिए उसकी पीठ थपथपाई जानी चाहिए। क्या वह निजी और सरकारी क्षेत्र के बिजली प्रोजेक्टों के विस्थापितों को वह इसी दर से मुआवजा देगी? टिहरी बांध के नए विस्थापितों के लिए सरकार जमीन इत्यादि का इंतजाम करने के बजाय एकमुश्त 38 लाख रु0 देने पर विचार कर रही है जो कि केंद्र को भेजे गए प्रति परिवार पुनर्वास खर्च का मात्र दसवां हिस्सा है। सरकार यदि एक करोड़ रु0 भी प्रति परिवार एकमुश्त भुगतान करने को तैयार हो तो इन 233 गांवों के लोग अपने लिए खुद ही जमीन का इंतजाम कर लेंगे। सरकार को उन पर 12000 करोड़ के बजाय सिर्फ 3000 करोड़ ही खर्च करने हैं। जाहिर है कि पुनर्वास पर आने वाला खर्च अव्यवहारिक और बढ़ाचढा कर पेश किया गया है। इसके पीछे इन गांवों को बसाने की मंशा नहीं बल्कि केंद्र को इस प्रस्ताव को नामंजूर करने के लिए बाध्य करने की रणनीति है।नुकसान दूसरा सबसे बड़ा आंकड़ा पीडब्लूडी का है जिसकी 13,600 किमी सड़कें तबाह हुई बताई गई हैं। इसके लिए केंद्र से पांच हजार पांच सौ 17 करोड़ रु0 मांगे गए हैं। यह कुल राहत का लगभग एक चौथाई है। यह आंकड़ा इसलिए चकित करता है कि राज्य में सड़कों की कुल लंबाई 26000किमी के आसपास है। इस आंकड़े के हिसाब से राज्य की आधी सड़कें पूरी तरह से नष्ट हो गई हैं। दूसरी ओर लोनिवि का दावा है कि उसने 90 फीसदी सड़कों पर यातायात बहाल कर दिया है। इस आंकड़े में केंद्र से हर सड़क के लिए प्रति किमी 37 लाख रु0 मांगे गए हैं। लोनिवि के सूत्र बताते हैं कि बिलकुल नई सड़क बनाने के लिए भी खर्च 30-35 लाख रु0 आता है। यदि बिल्कुल चट्टान काटकर बनानी है तो यह खर्च अधिकतम 45 लाख रु0 आएगा। तो क्या लोनिवि ये 13600 किमी पहले बन चुकी सड़कें चट्टानें काटकर बनाने वाली है। जाहिर है कि आंकड़े इतने बड़े कर दिये गए हैं कि एस्टीमेट की साख गिरकर शून्य हो गई है।विभागीय सूत्रों का कहना है कि यदि इतने ही किमी सड़कें वाकई प्रभावित हुई हैं तो भी पहले बनी सड़कों को ठीक करने पर अल्पकालीन और दीर्घकालीन खर्च 1000 करोड़ रु0 से ज्यादा नहीं आएगा। यानी केंद्र को पांच गुना ज्यादा का आंकड़ा भेजा गया है। शहरी क्षेत्रों में एक किमी सड़क बनाने के लिए 39 लाख 14 हजार रु0 की दर से 327 किमी सड़कें पूरी तरह से नई बनाने के लिए 128 करोड़ रु0 की डिमांड की गई है। क्या शहरों में 470 किमी सड़कें बह गई हैं? क्या सरकार शहरी निकायों को 39 लाख रु0 की इसी दर पर रखरखाव का खर्च दे रही है? जबकि इतनी ही किमी सड़कों को फिर से ठीक-ठाक करने पर वास्तविक व्यय 22 करोड़ आएगा। इसी प्रकार सिंचाई विभाग में यदि 1813 किमी नहरें और 470किमी तटबंध यदि पूरी तरह बह भी गए हैं तब भी 18 लाख प्रति किमी की दर से नहर और 60 लाख प्रति किमी की दर से बाढ़ सुरक्षा ढ़ांचे को तैयार करने में भी 611 करोड़ रु0 का खर्च आएगा जबकि सरकार ने इसका तिगुना 1522 करोड़ रु0 का एस्टीमेट केंद्र को भेजा है। बिजली विभाग की क्षति सरकारी आकलन के अनुसार एक किमी बिजली की लाइन का खर्च 15 लाख रु0है। सरकार के हिसाब से 1369 किमी बिजली की लाइनें पोल सहित नष्ट हो गई हैं। यानी हर जिले में 100 किमी बिजली की लाइनें पूर्ण नष्ट हो चुकी हैं। उस पर तुर्रा यह कि यूपीसीएल भी दावा कर रहा है कि सभी शहरी इलाकों और अधिकांश ग्रामीण इलाकों में बिजली आपूर्ति सामान्य है। सरकार के आंकड़ों का यकीन करें तो राज्य की पांच हजार पेयजल योजनायें नष्ट हो चुकी हैं। इन पर प्रति योजना 20 लाख 60 हजार रु0 का एस्टीमेट केंद्र को भेजा गया है। प्रधनमंत्री को दिए गए पत्र में दिए क्षति के आंकड़ों के अनुसार राज्य के 2356 विद्यालय नष्ट हुए हैं। इसके लिए राज्य सरकार हर विद्यालय के लिए 15 लाख 28000रु0 मांगे हैं। जबकि विश्वबैंक परियोजना के तहत बनने वाले प्राथमिक विद्यालयों के लिए केंद्र सरकार के मानक 3 लाख रु0प्रति विद्यालय और राज्य सरकार के मानक दो लाख रु0 प्रति विद्यालय है। केंद्रीय मानकों के अनुसार 2,356 विद्यालयों को फिर से नया बनाने के लिए 70 करोड़ और राज्य के मानकों के हिसाब से 47 करोड़ रु0 चाहिए पर डिमांड पांच से आठ गुना ज्यादा 360 करोड़ रु0 की है। इस प्रकार राज्य सरकार द्वारा की गई इस 20,336 करोड़ रु0 की डिमांड की असलियत यह है कि उसके नुकसान के आंकड़ों में छेड़खानी किए बगैर उन सुविधाओं को पहले जैसा करने और 233 गांवों को शानदार ढंग से बसाने पर भी 5000 करोड़ रु0ही खर्च आएगा जबकि सरकारी आंकड़ों में यह चार गुना बढ़ा दी गई है।सवाल उठता है कि सरकार ने राहत के मानकों को जानते हुए भी ऐसे आंकड़े क्यों पेश किये जो मानकों से तो कई गुना ज्यादा थे ही पर वास्तविकता से भी परे थे। यह सही है कि देश की लगभग हर राज्य सरकार प्राकृतिक आपदाओं के लिए केंद्रीय मदद मांगती हैं तो वे नुकसान के आंकड़ों को कुछ हद तक बढ़ा चढाकर पेश करती हैं। यह सामान्य प्रवृत्ति है। लेकिन हर राज्य सरकार यह भी ध्यान रखती हैं कि उनके द्वारा दिये गये आकलन की विश्वसनियता बनी रहे। यह राज्य और सरकार दोनों की साख के लिए जरुरी होता है। यदि आंकड़ा बेसिरपैर का हो तो शर्मिंदगी सरकार को ही उठानी पड़ेगी। ऐसा हुआ भी है। केंद्र सरकार ने अभूतपूर्व फैसला लेते हुए राज्य सरकार को निर्देश दिए हैं कि वह प्रत्येक निर्माण कार्य से पहले और बाद की स्थिति की वीडियोग्राफी कराये। पहली बार किसी राज्य सरकार के कामकाज पर केंद्र ने इस तरह का खुला संदेह व्यक्त किया है। जाहिर है कि राज्य सरकार की साख सवालों के घेरे में है।ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि राज्य सरकार ने ऐसा आंकड़ा क्यों प्रचारित किया जो पहली ही नजर में अविश्वसनीय लग रहा हो। जिससे और तो दूर खुद भाजपा ही नहीं पचा पा रही हो। दरअसल यह राजनीतिक आंकड़ा है जो सन् 2012 के विधानसभा चुनाव की जरुरत से पैदा हुआ है। मुख्यमंत्री और उनके रणनीतिक सलाहकार जानते हैं कि केंद्र कुछ भी कर ले पर 21000 करोड़ रु0 की राहत मंजूर नहीं करेगा। ऐसे में भाजपा यह प्रचार कर सकेगी कि कांग्रेस ने आपदा में भी लोगों की पर्याप्त मदद नहीं की और जरुरत से बहुत कम सहायता दी। मुख्यमंत्री चालाक राजनेता हैं और चुनावी शतरंज की बिसात पर अपना एक-एक मोहरा शातिर तरीके से चल रहे हैं। यही वजह है कि 500 करोड़ रुपये की केंद्रीय मदद के बावजूद कांग्रेस बचाव की मुद्रा में है और एक धेला खर्च किए बगैर राज्य सरकार हमलावर है। बारीकी से बुनी गई इस रणनीति के तहत ही ग्राम स्तर पर मौजूद सरकारी अमला आपदा पीड़ितो को समझा रहा है कि उन्हे पर्याप्त राहत इसलिए नहीं मिल सकती क्योंकि केंद्र सरकार के मानक यही हैं। लोगों का गुस्सा कांग्रेस की ओर मोड़ने के इस नायाब तरीके के लिए ही 21000 करोड़ की राहत का फार्मूला निकाला गया है। इसे राजनीतिक रुप से कैश करने का बाकी काम जिला स्तर पर बन रही भाजपा की राहत कमेटियां करेंगी जो सरकारी राहत से अपने वोटबैंक का भला भी करेंगी और नाकाफी राहत से पैदा होने वाले गुस्से को कांग्रेस की ओर भी मोड़ेंगी।इसका एक और कोण है जो कांग्रेस देख रही है। कांग्रेस उपाध्यक्ष सुबोध उनियाल का कहना है कि विभागों को मिलने वाली केंद्रीय मदद का इस्तेमाल सरकार चुनावी फंड एकत्र करने में करना चाहती है। राज्य के आपदा पीड़ित इलाकों में आजकल आम चर्चा है कि निर्माण और मरम्मत कार्यों से जुड़े हर विभाग को दस लाख रु0 प्रति डिवीजन के हिसाब से ऊपर पहुंचाने को कहा गया है। गांवों की चौपालों पर यह भी खबर उड़ाइ जा रही है कि राजस्व, कृषि, उद्यान जैसे विभागों को 6 प्रतिशत ऊपर देने को कहा गया है। इन चर्चाओं का आधार तो पता नहीं पर इतना जरुर है कि इनसे गांवों की राजनीति गूंज रही है।आपदा में भ्रष्टाचार को लेकर आने वाले समय में जबरदस्त बबंडर उठने वाला है। खुद सरकारी अफसरों का कहना है कि यदि सरकार को फर्जी कामों से बचना है तो हर सिंचाई,लोनिवि, लघु सिंचाई, प्राथमिक विद्यालयों, शहरी निकायों और बिजली विभागों से जुड़ी सभी क्षतियों की वीडियोग्राफी गैर सरकारी स्वयंसेवी संगठनों और निष्पक्ष एजेंसियों से कराई जाय और सभी निर्माण एजेंसियों के कामों का सोशल ऑडिट कराया जाय ताकि भ्रष्टाचार की संभावना को न्यूनतम किया जा सके। उधर कांग्रेस का कहना है कि किसी भी हालत में कुंभ को दोहराने का मौका नहीं देंगे। कांग्रेस नेता केंक्त से यह भी मांग कर सकते हैं कि केंद्रीय मदद पर नजर रखने के लिए उसी तरह के इंतजाम किए जांय जिस तरह कॉमनवेल्थ के निर्माणकार्यों की जांच के लिए किए गए हैं।