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रविवार, 29 अगस्त 2010


टूट रहा है लाल दुर्ग का तिलिस्म


आखिरी मुगल बनने की ओर प्रकाश का प्रस्थान



माकपा जब पश्चिम बंगाल में चुनाव के जरिये सत्ता पर काबिज हुई तो इसे भारतीय राजनीति में एक अजूबा माना गया। देश में काफी लोग थे जिन्हे तब लगा कि जैसे भारतीय लोकतंत्र पर आफत आ गई हो। कईयों को बैलेट बॉक्स से निकला यह कम्युनिस्ट राज कौम नष्ट करने वाला लगा। आठवें दशक से लेकर बीसवीं सदी तक भारतीय मीडिया को बंगाल का यूं लाल होना अच्छा नहीं लगा और समय-समय पर वह इस पर लाल पीला होकर अपनी कम्युनिस्ट विरोधी ग्रंथि को उजागर भी करता रहा। माकपा की कामयाबी पर भारत के कम्युनिस्टों की संसदीय प्रजाति मुग्ध रही है। माकपा के लिए भले ही केरल को छोड़कर शेष भारत की राजनीति सहारा का मरुस्थल बनी रही हो पर बंगाल उनके लिए नखलिस्तान से कम नहीं रहा। अपने इस साम्राज्य पर देश भर के माकपा नेता और कार्यकर्ता छाती फुलाते रहे हैं। उन्हे बराबर लगता रहा है कि देश में सिर्फ वही हैं जो संसदीय राजनीति के खांचे में अजेय साम्राज्य स्थापित करने का हुनर जानते हैं। इस अहसास के अहंकार से लबालब होकर वे छलकते भी रहे हैं। बंगाल माकपाईयों का राजनीतिक मक्का बना हुआ है और वे मीटिंगों, बहसों और अपने लेखों में बंगाल सरकार की नीतियों का पाठ कुरान की आयतों की तरह करते रहे हैं। माकपा की धर्मपुस्तक में बंगाल सरकार के खिलाफ बोलना कुफ्र माना जाता रहा है। चार दशक से चला आ रहा यह दुर्ग अब मुगल साम्राज्य के आखिरी समय के दौर से गुजर रहा है। वामपंथ के इस किले की अजेयता का तिलिस्म टूट रहा है और किताबी मार्क्सवाद के पंडित प्रकाश करात आखिरी मुगल होने की त्रासदी की ओर प्रस्थान कर चुके हैंं।पहले केरल और आठवें दशक में पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों के चुनाव के जरिये सत्ता में आने से भारतीय राजनीति संसदीय कम्युनिज्म का उदय हुआ। नंबूदरिपाद और ज्योति बसु समेत भाकपा और माकपा के कम्युनिस्ट नेता इसके शिल्पकार रहे हैं। ज्योति बसु का दर्जा माकपा की राजनीति में कुछ वैसा ही माना जा सकता है जिस तरह मुगलों में अकबर को हासिल था। उन्होने पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार चलाने का अपना व्याकरण गढ़ा और संसदीय कम्युनिस्ट राजनीति को उस ऊंचाई तक पहुंुचाया जहां आकर वह खुद को अजेय मानने के स्वर्ग में विचर सकती थी। बसु एक करिश्माई नेता थे उसी तरह जैसे कांग्रेस में जवाहर लाल नेहरू और दक्षिणपंथी राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी थे। उनकी माकपा संसदीय कम्युनिज्म की बंगाली कलम थी। जो बंगाल की आबोहवा के मुताबिक विकसित की गई थी। यह बारीकी से बुना गया ऐसा राजनीतिक मिक्सचर था जिसमें बांग्ला उपराष्ट्रªªवाद और अभिजात्यवाद के रेशे भी मौजूद थे तो मार्क्सवाद के धागे भी। ऑपरेशन बर्गा ने अधिकांश ग्रामीण इलाकों में माकपा को लगभग अजेय बना दिया।लगातार जीतों से माकपा की कतारें खुद को अजेय मानने लगीं। ज्योति बसु बूढ़े हो चले थे और उनका बनाये राजनीतिक फॉर्मूले का असर अब कम हो रहा था। माकपा के अकबर ज्योति बसु आखिरकार रिटायर हो गए। उनकी जगह चुने गए बुद्धदेव भट्टाचार्य और उनके राजनीतिक कद के बीच जमीन और आसमान का फर्क था। बंगाल की राजनीति में एकाएक खालीपन आ गया। बुद्धदेव जननेता नहीं थे। वह न तो जनता की नब्ज के राजनीतिक वैद्य थे और न उनके पास ऐसा आला था जिससे वह लोगों दिल की धड़कन को महसूस कर सकते थे। वह ऐसे साहसी और प्रतिभा संपन्न नेता भी नहीं थे जो संसदीय राजनीति और मार्क्सवाद के इस घालमेल को सिंकारा जैसे टॉनिक में बदल पाते। ऊपर से निर्द्वंद सत्ता ने पार्टी का शाररिक और मानसिक तंत्र इतना बीमार कर दिया कि वह सत्ता के सन्निपात में अराजक हो गया। जनता और नेतृत्व के बीच का पुल टूट चुका था। ऐसे में ईश्वर ही उसे बचा सकता था। चूंकि मार्क्सवादी ईश्वर पर भरोसा नहीं करते इसलिए हो सकता है कि उसने भी उन्हे सद्बुद्धि देने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई हो। माकपा में कांग्रेस के जीन का रोपण तो बसु के जमाने में ही शुरू हो चुका था और बीसवीं सदी की शुरुआत से उसे लाल कांग्रेस के उपनाम से जाना जाने लगा था। उसका डीएनए कांग्रेस से मैच करने लगा था और लाल रंग वाले गुणसूत्रों को छोड़कर उसमें और कांग्रेस में फक करना मुष्किल था। बसु के बाद तो माकपा विचारधारा की ढ़लान पर जैसे लुढ़कने लगी। माकपा के बुद्ध ने मान लिया था कि उनका कोई विकल्प नहीं है। माकपा ने बंगाल में पूंजीपतियों के लिए सेज की सेज सजानी शुरू कर दी। लेकिन पहले नंदीग्राम और फिर सिंगूर में जनता ने बताया कि निर्विकल्प कुछ भी नहीं है। यह जनता का ही कमाल है कि उसने राजनीति की राख में से ममता बनर्जी को निकाला और उसे फीनिक्स में बदल दिया। अजेय माकपा को सड़क से लेकर पंचायतों और नगर निकायों तक पराजयों के सिलसिले से गुजरना पड़ा है। मार्क्सवाद को कंठस्थ रखने वाले कम्युनिस्ट ब्यूरोक्रेट प्रकाश करात आखिरी मुगल की तरह साम्राज्य को ध्वस्त होते देख रहे हैं। वह भी नेतृत्व की उन पांतों शामिल रहे हैं जिन्होने माकपा के पतन की गति को तेज किया है। दरअसल माकपा के नेतृत्व पर सालों से ऐसे लोगों का कब्जा चल रहा है जिसने उसे जनता की पार्टी बनाने के बजाय उसमें नौकरशाह दल में बदल दिया है। पूरे देश में संगठन के महत्वपूर्ण पदों पर अधिकांश वे नेता काबिज हैं जो किसी आंदोलन में जेल नहीं गए। उनकी योग्यता बस इतनी है कि वे किताबी मार्क्सवाद के पंडे हैं। माओवादी नेता आजाद की पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने पर माकपा ने जिस तरह से सवाल उठाए हैं उससे यह गलत फहमी भी दूर हो गई है कि उसमें कम्युनिस्ट होने का कोई लक्षण बाकी है। माओवादियों को लेकर भाजपा और माकपा एक साथ खड़ी है तो इस श्रेय के हकदार भी करात ही हैं। प्रकाश करात, सीताराम येचुरी, अरुण जेटली, चिदंबरम संसदीय लोकतंत्रा के सबसे बड़े वकील के रुप में उभरे हैं। संयोग ये सभी भारतीय कुलीन वर्ग के प्रतिनिधि हैं। माओवादियों के दमन पर भाजपा के सबसे करीब इस समय माकपा है।यह राजनीतिक विडंबना ही है कि माकपा का विकल्प ममता के रुप में सामने आया है। ममता बनर्जी जिस तरह से अविवेकपूर्ण लोकप्रियतावादी राजनीति कर रही हैं उससे उनसे कोई उम्मीद नहीं बंधती। उनकी राजनीति की सीमायें भी स्पष्ट हैं और उनके रंगढ़ंग ऐसे ही रहे तो पतन भी पटकथा भी दीवार पर लिख दी गई है। लोगों में उम्मीद के पहाड़ खड़े करना आसान भले ही हो पर यह शेर की सवारी है जिसमें शिकार होना तय है। ममता में जननेता के काफी गुण हैं पर दूरदर्शी नेता उम्मीदों के ऐसे पहाड़ खड़े नहीं करते जिनके नीचे दबकर वे मारे जायें।

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

महंगाई पर नीति में नहीं नीयत में खोट

महंगाई पर संसद में जबरदस्त बहस और केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के बयान के बावजूद मंहगाई की इस अंधी सुरंग से निकलने का कोई रास्ता निकलता नहीं दिख रहा। राजनीति की भूलभूलैया में यह मुद्दा बस बहस में ही समाप्त होकर रह गया। इस पूरी बहस से इतना तो पता चल ही गया कि महंगाई के मुद्दे पर राजनीतिक दलों की नीयत साफ नहीं है। सोनिया गांधी की गरीब फ्रैंडली मुद्रा के बावजूद इस समस्या की जड़ें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उस कुलीन आर्थिक राजनीतिक अवधारणा में है जो गरीब विरोधी और देश के सामाजिक आर्थिक ढ़ांचे को तहस नहस कर देने वाली है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ईमानदार और बेदाग प्रधानमंत्री के खिताब से नवाजे जाते रहे हैं। उनकी इस ईमानदारी के बावजूद कांग्रेस संसदीय चुनावों के लिए कई हजार करोड़ जुटाने में कामयाब रही। जाहिर है कि यह पैसा उस आम आदमी ने नहीं दिया जिसके साथ कांग्रेस हाथ होने की बात कही जा रही थी। यह पैसा उन लोगों ने दिया है जो इस देश को बाजार अर्थव्यवस्था के हिसाब से चलाने की आजादी चाहते हैं ताकि उनका मुनाफा कुलांचे भरता रहे। कहीं महंगाई का यह दौर उसी वर्ग के चुनावी कर्ज उतारने से तो नहीं पैदा हुआ। कांग्रेस के लोग इससे असहमत हो सकते हैं पर मंहगाई पर केंद्र जिस तरह से हाथ पर हाथ धरे हुए बैठा है उससे क्या इस आरोप का औचित्य साबित नहीं होता। इस पूरे प्रकरण से उन लोगों की आंखे खुल जानी चाहिए जो प्रधानमंत्री की ईमानदारी के कसीदे पढ़कर इसे कांग्रेस को वोट देने का सबसे बड़ा कारण बता रहे थे। साफ है कि व्यक्तिगत ईमानदारी का सवाल राजनीति में बहुत मायने नहीं रखता। भ्रष्टाचार के तंत्र को फलने-फूलने की आजादी देने वाला एक ईमानदार आदमी भी भ्रष्ट व्यवस्था के शिखर पर जमे रह सकता है। एक जनविरोध्ी तंत्र को भी अपनी साख बनाए रखने के लिए कुछ साफ सुथरा चेहरों की जरुरत होती है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के जिस आदमखोर पशु से हमारा पाला पड़ा है उसके सिद्धांतकारों में मनमोहन सिंह समेत कई ईमानदार और समर्पित हस्तियां हैं। लोकसभा में सुषमा स्वराज और राज्यसभा में अरुण जेटली ने इशारों- इशारों में इसे कहा भी। महंगाई के गणित के सूत्र मनमोहन के आर्थिक विकास दर वाले अर्थशास्त्र से भी निकलते हैं। लेकिन बीमारी सिपर्फ इतनी ही नहीं है बल्कि इससे ज्यादा गंभीर और चिंता में डालने वाली है। विदेशी स्वामियों को खुश करने के लिए भारत सरकार ने उदारीकरण और भूमंडलीकरण के रास्ते को चुनने में वे मूलभूत सावधानियां भी नहीं बरतीं जो अमेरिका समेत सभी विकसित देशों ने बरती। यह ऐसा देश है जिसके पास बाजार का नियमन करने के लिए न कड़े उपभोक्ता कानून हैं और न ही कोई नियामक संस्था। लाइसेंस राज तो खत्म हो गया लेकिन बाजार का अंधेर राज कायम कर दिया गया। आज एक आम आदमी के पास अनुचित मूल्य या घटिया सामग्री का प्रतिकार करने के लिए कोई प्रभावी तंत्र नहीं है। आम उपभोक्ता बाजार में असहाय और दयनीय आदमी है जिसके पास व्यापारी की बात मानने और जेब से दाम चुकाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उसके पास यह जानने का न साधन है और न अधिकार कि वह जो खरीद रहा है उसका लागत मूल्य कितना है। वह समझ पाने में असमर्थ है कि एक ब्रांड की मुहर लगने मात्रा से किसी वस्तु का दाम कैसे 500 से 700 गुना तक बढ़ जाता है। उसके पास नकली सामान, प्रदूषित और खतरनाक खाद्य पदार्थों से बचने का कोई रास्ता नहीं है। उसका सामना हर रोज ऐसे सर्वशक्तिमान और स्वेच्छाचारी बाजार से होता है जो देश के कानूनों से ऊपर एक संविधानेतर और संप्रभु सत्ता है। स्पष्ट है कि भारत की सरकार और भारतीय राज्य की सहमति के बिना देश में ऐसी असंवैधानिक सत्ता नहीं चल सकती। भारतीय बाजार का कोई तर्कशास्त्र नहीं है। वहां जंगल राज है।उसमें एक ओर बिना मांग के ही दामों को कई गुना बढ़ाने वाला सट्टा बाजार है तो दूसरी ओर मुनाफाखोरी में माहिर देशी रुप से विकसित ऐसा आढ़त बाजार है जिसमें भाव अकारण ही कई गुना बढ़ा दिए जाते हैं। आम लोगों तक कभी यह जानकारी सार्वजनिक नहीं की जाती कि खाद्यान्न वायदा कारोबारियों ने सिर्फ सट्टबाजी कर साल भर में कितने हजार करोड़ रुपए बना लिए या आढ़तियों के तंत्र ने सिर्फ दामों की हेराफेरी कर साल भर में कितना मुनाफा कमाया। जाहिर है कि सरकार नहीं चाहती कि लोग कभी यह जान पायें कि अनाज का एक दाना पैदा किए बिना ही कुछ बिचौलिए हजारों करोड़ कैसे कमा रहे हैं। पंजाब कृषि विवि के एक अध्ययन के अनुसार पंजाब के आढ़तियों ने बिना कुछ किए धरे 1990 से 2007 के बीच लगभग 8000 करोड़ रुपए कमाए। यह है बिचौलियों का तंत्र! सरकार में अहम पदों पर बैठे लोग भी स्वीकार करते हैं कि खाद्य पदार्थों के दाम उपभोक्ता तक पहुंचते-पहुंचते 700 गुना तक बढ़ जाते हैं लेकिन इस नपुंसक आत्मस्वीकृति से लोगों को राहत नहीं मिल सकती। आखिर लागत और विक्रय मूल्य के बीच कोई लॉजिकल सम्बंध क्यों नहीं होना चाहिए? यह इसलिए नहीं होता चूंकि देश के राजनीतिक दलों, नगर से लेकर विधानसभाओं और संसद तक मौजूद उनके कारिंदों को इस काली कमाई का एक बड़ा हिस्सा जाता है। चुनावों और महंगाई के बीच के अवैध संबंध जब तब जाहिर होते रहते हैं। इसलिए यह कहना कि सरकार के पास महंगाई से निपटने की कोई नीति नहीं है, एक अर्द्धसत्य है। केंद्र सरकार के पास ऐसे दिमागों की कमी नहीं है जो इसका हल चुटकियों में निकाल सकते हैं पर वे ऐसा चाहते नहीं हैं। इसके पीछे मनमोहनोमिक्स तो है ही साथ में ऐसी सरकार भी है जिसने अपनी अंतरात्मा और ईमान बाजार के हाथों गिरवी रख दिया है। यही कारण है कि सरकार के गोदामों में गेहूं चावल सड़ रहा है और देश का दरिद्रनारायण भूखों मर रहा है। क्योंकि सरकार जानती है कि यदि वह गोदामों के गेहूं और चावल को रियायती दरों पर बाजार में लाई तो खाद्यान्न के दाम गिर जायेंगे और उसके खेवनहार बिचौलिए और वायदा कारोबारी कंगाल हो जायेंगे। इसलिए लाखों टन अनाज सड़ता रहता है। वरना सरकार चाहती तो इन 63 सालों में पनपे बिचौलियों को एक ही झटके में खत्म कर देती तथा हर वस्तु पर लागत और विक्रय मूल्य दर्ज करना जरुरी कर देती। पूंजीवाद के तमाम दुर्गणों को अपनाने वाली सरकारों ने ही वायदा कारोबार के राक्षस को पैदा किया है। महंगाई से लेकर मिलावट तक फैले जनविरोधी तंत्र पर लगाम लगाने के लिए केंद्र सरकार ने न तो आवश्यक वस्तु अधिनियम को कड़ा बनाया और न मिलावट रोकने के लिए कोई सख्त कानून बनाने की कोशिश की। यही नहीं एनडीए ने जनवितरण प्रणाली को ध्वस्त करने का जो सिलसिला शुरु किया था उसे यूपीए वन और टू ने जारी रखकर साबित कर दिया कि वे एनडीए की सच्ची वारिस हैं। क्योंकि एक जनमुखी जनवितरण प्रणाली बाजार की अराजकता और स्वेच्छाचारिता पर लगाम लगाने का सबसे बड़ा साधन है। इसे नष्ट किए बिना बाजार अंधाधुंध मुनाफा नहीं कमा सकता। इसीलिए इससे पहले एपीएल के नाम पर निम्न मध्यवर्ग को अलग किया गया और अब इसे लुंजपुंज बनाकर गरीबों के लिए भी इसे निरर्थक बना दिया गया है। ये सारी बातें इसी सत्य को उजागर करती हैं कि खोट सरकार की नीयत में है। मनरेगा जैसे सांकेतिक उपाय कर वह इस पाप से पीछा नहीं छुड़ा सकती। पहले गरीबों की तादाद बढ़ाने जैसी महामारी पैदा करना और फिर मनरेगा का मानवीय चेहरा सामने लाने से बात नहीं बनेगी। सरकार में यदि थोड़ी भी लोकलाज बची है तो उसे गरीबी और भुखमरी पैदा करने वाले सामूहिक विनाश के अस्त्रों की अपनी फैक्टरियों को बंद करना होगा।