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शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010
युद्ध है या गृहयुद्ध ?
दंतेवाड़ा में मारे गए सीआरपीएफ के जवानों के परिजनों का विलाप किसी भी आदमी के लिए एक विचलित करने वाला अनुभव है । कोई भी मौत हर उस आदमी की संवेदनशीलता को झकझोरती है जो मानता है कि हर परिजन को अपनों का न रहना एक ही तरह से दुख देता है। आदमी बुरा हो सकता है, उसके मकसद हमसे जुदा हो सकते हैं लेकिन उसके परिजनों के दुख उतने ही असली और विचलित करने वाले हो सकते हैं जितने कि उनके जिनके पक्ष में हम होते हैं । इसीलिए महान सैनिक और युद्धों के नायक अपने खिलाफ बहादुरी से लड़ने वालों को सलाम करते हैं।इसी भावना से मृत दुश्मन से गरिमापूर्ण व्यवहार करने की युद्ध आचार संहिता भी निकली है । उत्तराखंड से लेकर असम तक माओवादियों के हमले में मारे गए सीआरपीएफ के जवानों के परिजनों के विलाप के दुख और शोक में डूबे दृश्यों ने पूरे देश को हिलाया है । इन जवान मौतों ने लाखों लोगों को विचलित किया है । टीवी चैनलों में देशभक्ति के ज्वार के बीच जिन दृश्यों को दिखाया गया है उससे केंद्र और राज्य सरकारों को आपरेशन ग्रीन हंट के लिए जो जनमत की जो हरी झंडी चाहिए थी वह मिल गई लगती है । इन दृश्यों से पैदा हुआ जनमत दोनों सरकारों को यह अधिकार देता है कि वे भी माओवादियों को उसी तरह मार डालें जिस तरह उन्होने सीआरपीएफ के जवानों को मारा है । टीवी चैनलों को इस बात का श्रेय दिया ही जाना चाहिए कि वे इस देश को ऐसी भीड़ में बदलने की कूव्वत रखते हैं जो खून के बदले खून मांगती हो। आदिवासी इलाकों को तबाही की कगार पर पहुंचाने वाले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह और केंद्रीय गृहमंत्री चिदंबरम को ऐसी ही भीड़ पसंद है और उन्हे ऐसी भीड़ की सर्वाधिक जरुरत भी है। आने वाले समय में हम राज्य और केंद्र के सुरक्षा बलों को माओवादियों का इसी तरह संहार करते हुए भी देखेंगे । हममें से जो भी इन मुठभेड़ों पर सवाल उठायेगा वह देशद्रोही करार दे दिया जाएगा । यानी न अदालत, न मुकदमा सीधे ऑन द स्पॉट सफाया !! लेकिन तब कोई न्यूज चैनल मुठभेड़ में मारे गए माओवादियों के बिलखते परिजनों के विचलित करने वाले विजुअल्स इसलिए नहीं दिखाएगा कि कहीं इससे उनके प्रति सहानुभूति पैदा न हो जाय । किसी चैनल ने यह खबर दिखाने का कष्ट नहीं किया कि दंतेवाड़ा कांड से पहले किस तरह से निर्दोष आदिवासियों को पकड़कर बुरी तरह पीटा गया और उनकी स्त्रियों को सरेआम अपमानित किया गया । पूछा जा सकता है कि खबरनवीस खबेसों की यह कैसी संवेदनशीलता है जो सिर्फ सरकारी पक्ष के लिए आरक्षित है ? इस रवैये के संदर्भ में जॉर्ज बुश का वह बहुचर्चित बयान याद करना उचित होगा जो उसने 9/11 के हमले के बाद दिया था । जबरदस्त गुस्से और गम से विचलित अमेरिकी समाज से वादा करते हुये तब बुश ने कहा था कि 9/11 के हमले के दोषियों चाहे वे कहीं भी क्यों न हों ,को न्याय की चौखट पर लाया जाएगा । गौर करें कि बुश ने यह नहीं कहा कि अमेरिकी फौजें दोषियों का सफाया कर देंगी । लोकतांत्रिक होने का अर्थ सिर्फ चुनाव जीतना नहीं होता बल्कि लोकतांत्रिक संस्थाओं की पवित्रता बनाए रखना भी होता है । दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले देश का दुर्भाग्य यह है कि उसका गृहमंत्री कभी माओवादियों को न्याय की चौखट पर लाने का नहीं बल्कि हर तीसरे दिन उनका सफाया करने की धमकी देता है। जिस लोकतंत्र का गृहमंत्री ही कानून के राज और न्यायपालिका में यकीन न रखता हो वह लोकतंत्र भयभीत करता है। वह जनमत इसे और भी खतरनाक बना रहा है जिसे इस देश के न्यूज चैनल रोज तैयार कर रहे हैं । वे ‘‘खून के बदले खून’’ और ‘‘जान के बदले जान’’ का उन्मादी जनमत बनाने में जुटे हैं।जाने अनजाने में वे लोकतंत्र के भीतर एक जुनूनी फासीवाद के लिए रास्ता साफ कर रहे हैं।मानवाधिकारों की रक्षा के मामले में दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में फिसड्डी देश के शासकों को ऐसे ही उन्मादी जनमत की जरुरत है जो मानवाधिकारों से छूट देकर उन्हे आदिवासी इलाकों में मुठभेड़ों के निर्द्वंद अधिकार को वैधता प्रदान करता हो। कानून के दायरे बाहर जाकर सफाया करने के चिदंबरम के माओवादी विरोधी सिद्धांत और मोदी के मुस्लिम विरोधी सिद्धांत में कोई बुनियादी फर्क नहीं है । क्योंकि दोनों ही अपने विरोधी समूह के सफाये में यकीन रखते हैं । इस पूरे वाकये को जिस तरह से माओवादी बनाम देश की लड़ाई के रुप में पेश किया जा रहा है वह क्या सच है या सरकारी लड़ाई को देश की लड़ाई बनाने का खेल खेला जा रहा है ? क्या वाकई यह देश की लड़ाई है?उत्तराखंड आंदोलन के दौरान मसूरी गोलीकांड में एक पुलिस अफसर मारा गया था और कई आंदोलनकारी भी मारे गए थे । सरकार के लिए उसका अफसर शहीद था पर आम लोगों के लिए उत्तराखंड के लिए मर मिटने वाले लोग शहीद थे ।आज इन्हे उत्तराखंड की सरकार भी शहीद मानती है । तब सरकार की ओर से गोलीबारी कराने वाले बुआ सिंह और ए0पी0 सिंह आज भी उत्तराखंड की जनता के बीच सबसे बड़े खलनायक हैं । ऐसा अनेक आंदोलनों में होता है जब जनता के नायक सरकार के लिए अपराधी होते हैं लेकिन इतिहास में जिंदा तो जनता के नायक ही रहते हैं सरकार के नायक नहीं । देश के भीतर जब भी संघर्ष होंगे तब शहादतों पर भी राय बंटी रहेगी । जाहिर है कि बाहरी दुश्मनों का हमला और देश के भीतर सरकारी नीतियों के खिलाफ होने वाले संघर्ष अलग - अलग घटनायें हैं । जिसे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री देश की लड़ाई का नाम दे रहे हैं वह दरअसल दो अलग-अलग व्यवस्थाओं में यकीन रखने वाले समूहों के बीच का गृहयुद्ध है। क्योंकि माओवादी सरकार के खिलाफ हैं न कि देश की अखंडता के । अलबत्ता इतना जरुर कहा जा सकता है कि वे मौजूदा तंत्र का तख्तापलट कर अपनी विचारधारा पर आधारित तंत्र कायम करना चाहते हैं। इस लड़ाई की त्रासदी यह है कि इसमें दोनों ओर से साधारण लोगों के बेटे ही मारे जा रहे हैं । इस युद्ध का ऐलान करने वाले नेताओं और अफसरों को खरोंच तक नहीं आ रही है।देश के मात्र आदिवासी हिस्सों तक सिमटे माओवादियों से वास्तविक खतरा कितना असली है यह तो पता नहीं पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि देश की 85 से 90 फीसदी जनता इसकी चपेट में नहीं है।फिर इतना हल्ला और युद्ध का शोर मचाये जाने पर शक होता है कि कहीं इसके पीछे और कारण तो नहीं हैं? वह भी तब जब इस आदिवासी बहुल इलाके की खनिज संपदा के दोहन के लिए 200 से ज्यादा एमओयू साइन किए जा चुके हैं। इससे सवाल उठता है कि कहीं केंद्रीय और राज्यों के सुरक्षा बलों को पास्को सहित बहुराष्ट्रीय कंपनियों और मित्तलों और जिंदलों के लिए रास्ता साफ करने के लिए तो युद्ध में नहीं झोंका जा रहा है ? जिसे देश की लड़ाई बताया जा रहा है वह कहीं इन खरबपतियों की लड़ाई तो नहीं है ? देश की राजनीति और राजनेताओं का जो चरित्र है उसे देखते हुए यह आशंका निराधार नहीं है । वर्ना सरकार आदिवासी इलाकों में किए गए खनन के एमओयू रद्द कर राजनीतिक हल की कोशिश कर सकती थी । छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार और केंद्र सरकार दोनों ही नहीं चाहती कि इस इलाके में कोई लोकतांत्रिक आंदोलन जिंदा रहे इसलिए उसने सभी आंदोलनों और संस्थाओं को माओवादियों के साथ सहानुभूति रखने वाला करार देकर वहां लोकतांत्रिक प्रतिरोध का स्पेस खत्म कर दिया गया।हिंसक आंदोलनों से निपटने में पुलिस और सरकारों को दमन का लाइसेंस मिल जाता है इसलिए एक रणनीति के तहत यह सब किया गया । यह रणनीति माओवादियों को भी रास आती है । इससे आम तौर पर हिंसा से दूर रहने वाले लोगों के पास भी हथियार उठाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता । इस तरह की सीधी लड़ाई से माओवादियों को नया कैडर मिल जाता है । हिंसक संघर्ष दोनों ही पक्षों की जरुरत है न कि देश की । एक ओर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री माओवादियों को सरकार का सबसे बड़ा खतरा बता रहे हैं तो दूसरी ओर भाजपा नेता अरुण जेटली भी उनके सुर में सुर मिलाकर इसे संसदीय लोकतंत्र के लिए घातक करार दे रहे हैं । अचरज यह है कि देश को बाजार अर्थव्यवस्था के अंधेरे कुयें में धकेलने वाले मनमोहन,चिदंबरम की जोड़ी गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई को देश के लिए खतरा नहीं मानती उनकी तरफदारी कर रहे जेटली को लोकसभा में मौजूद तीन सौ करोड़पति सांसदों और कई हजार करोड़ के चुनाव खर्चे से संसदीय लोकतंत्र को कोई खतरा नजर नहीं आता । जिस देश में 76 फीसदी लोग 20 रु0 रोज पर गुजारा कर रहे हों वहां यदि कुछ लोग हथियार उठाकर बदलाव करना चाहते हैं तो किसका दोष है? सरकार का या भूखे लोगों का ? वह भी तब जब महंगाई जैसे ज्वलंत सवाल पर देश के राजनीतिक दल आंदोलन की औपचारिकता निभा रहे हों ।भाजपा से लेकर सीपीएम तक इस देश के नेता होने का दावा करने वालों से पूछा जाना चाहिए कि उनमें गरीबी,बेरोजगारी और महंगाई के !सवाल पर देश की जेलें भर देने का साहस क्यों नहीं है ? इतिहास गवाह है कि जब -जब समाज से लोकतांत्रिक संघर्ष गायब हुए हैं तब -तब आम लोग हिंसक संघर्षों की ओर आकृष्ट हुए हैं । मौजूदा दौर भी उसी ओर जा रहा है । समाज में राजनेताओं की साख बनाए रखने व लोकतांत्रिक संघर्षों के लिए स्पेस बचाए रखने का काम पुलिस और फौज नहीं कर सकती । राजनीतिक नालायकी और निकम्मेपन से उपजे जन असंतोष का फौजी हल संभव नहीं है ।
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