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शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

चिदंबरम के भारत को चाहिए गुलाम आदिवासी



देश के न्यूज चैनलों में इन दिनों एक बच्चे का रुदन है और उसका गुस्सा भी है, जिसमें वह बड़ा होकर पुलिस बनने की शपथ ले रहा है। आज से लगभग 10 साल बाद वह बच्चा जब पुलिस में भर्ती होने लायक होगा तब तक पुलिस कांस्टेबल के पद पर भर्ती होने की घूस कितनी होगी, यह कड़वा सच वह बच्चा नहीं जानता पर चैनल वाले जानते हैं लेकिन बताते नहीं क्योंकि सच बताने से उनकी नक्सलवाद विरोधी मुहिम की पोल खुल सकती है ।
न्यूज चैनलों के खबरनवीस और मालिक लोग चूंकि चिदंबरम के भारत के गणमान्य नागरिक हैं इसलिए ऐसे समय में जब पूरा देश मंहगाई और आर्थिक असुरक्षा से त्राहिमाम कर रहा है तब वे नक्सलवाद से परेशान हैं । हम सबको याद है कि नक्सलवाद के खिलाफ चैनलों के दुलारे चिदंबरम दरअसल इस देश और पाश्चत्य दुनिया में उदारीकरण के पोस्टर ब्वाय रहे हैं । वह भारतीय भद्रलोक के सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली प्रतिनिधियों में से एक हैं । अपने लोकसभा क्षेत्र में चमत्कारिक ढंग से हारते - हारते बचे चिदंबरम के नक्सलवाद विरोधी अभियान के गहरे अर्थ हैं । एक तो यह है कि यूपीए सरकार महंगाई के मोर्चे पर बुरी तरह विफल हुई है । समूचा मध्यवर्ग मंहगाई की मार से त्राहिमाम कर रहा है और केंद्र सरकार और राज्य सरकारें जमाखोरों और मुनाफाखोरों के आगे नतमस्तक हैं । आम लोगों में नौकरियां जाने और मंहगाई की दोहरी मार से गुस्सा है । यह गुस्सा लोगों को नक्सलवाद की ओर धकेल सकता है इससे चिदंबरम और उनका प्रभुवर्ग डरा हुआ है । नक्सलवादियों को तालिबानी टाइप के आतंकवादी के रुप में प्रचारित करने से उनके प्रति आम लोगों के झुकाव को रोका जा सकता है । तीसरा कारण यह है कि मध्यवर्ग आम तौर पर भावुक किस्म का देशभक्त होता है जिसके लिए देशभक्ति सीमा पर लड़ने और आतंकवाद के खिलाफ झंडा बुलंद करने तक सीमित होती है । नक्सलवाद के प्रति मध्यवर्ग के एक छोटे से हिस्से की सहानुभूति रही है । इसमें गांधीवादी, समाजवादी और विभिन्न आदर्शवादी विचारों से जुड़े वे लोग शामिल हैं जो देश के वंचित तबकों के मौजूदा हालातों में बुनियादी बदलाव लाने का सपना देखते हैं । मध्यवर्ग का यही हिस्सा है जो आदिवासियों और गरीबों के साथ पुलिस-प्रशासन,सरकार की ज्यादतियों को एक्सपोज कर देता है। इसलिए भी चिदबंरम चाहते हैं कि मध्यवर्ग में नक्सलियों की छवि देशद्रोही के रुप में स्थापित की जाय। ताकि इस वर्ग में नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाले सीमित रहें। यह इसलिए है कि भारत का भद्रलोक देश में विशाल मध्यवर्ग के उभार से चिंतित भी है। उसके लिए यह वर्ग तभी तक प्रिय है जब तक वह उसके उत्पादों को खरीदता रहता है लेकिन यह वर्ग जैसे ही विचारधारा और बुनियादी बदलाव की बात पर आता है तो भद्रलोक चौकन्ना हो जाता है । उसे अपनी रोजी-रोटी कि चक्कर में घनचक्कर बना विचारहीन मध्यवर्ग तो चाहिए लेकिन समाज के मौजूदा ढ़ांचे को सर के बल खड़ा करने वाला सरफिरे(!) विचार के साथ नहीं।
एक और कारण है जिसके चलते माओवादी चिदंबरम और उनके भारत को सबसे ज्यादा चुभ रहे हैं । भारत के झारखंड , छत्तीसगढ़ और उड़ीसा जैसे राज्यों के आदिवासी इलाके संयोग से खनिज संपदा के खजाने भी हैं । इन इलाकों पर सदियों से बाहरी लुटेरों की नजर रही है। इस दौड़ में मल्टीनेशनल कंपनियां भी शामिल हैं । इन इलाकों में माओवादियों के वर्चस्व के चलते सरकार चाहकर भी इन कंपनियों को जमीन से लेकर सुरक्षा तक जरुरी सुविधायें नहीं उपलब्ध करा पा रही है। हाल ही में स्टील किंग लक्ष्मी निवास मित्तल द्वारा फैक्टरी न लगाने की धमकी को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए । यदि आदिवासी इलाकों को मल्टीनेशनल की चारागाह के रुप में विकसित किया जाना है तब आदिवासी प्रतिरोध को जड़मूल नष्ट करना चिदंबरम के भारत की जरुरत है। यह भारत दरअसल कई खतरों से दो चार है। मजदूर आक्रामक हो रहे हैं और वे उद्योगों के आला अफसरों पर हमला कर रहे हैं । शहरी भारत गरीबी के महासागर से घिरा है । आर्थिक विषमता भयावह रुप से बढ़ रही है जिसके परिणामस्वरुप आम जीवन में हिंसा बढ़ रही है। मामूली विवाद भी हिंसक रुप ले रहे हैं । यह फुटकर और निजी किस्म हिंसा है जो कि सरकारी आर्थिक नीतियों की अप्रत्यक्ष हिंसा का काउंटर प्रोडक्ट है। यह सब उस भारत को संकटग्रस्त कर रहा है जो आर्थिक कुंठाओं की सुनामी के बीच एक टापू बनकर रह गया है ।
इसीलिए कारपोरेट न्यूज चैनलों से लेकर चिदंबरम तक इलीट भारत नक्सलवाद का ऐसा हौवा खड़ा कर रहा है जिससे भारत की एक फीसदी जनता भी प्रभावित नहीं है और जिससे भारत के दो प्रतिशत समृद्ध आबादी के अलावा किसी को खतरा नहीं है। जब जनता के नाम पर नक्सलियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई हो सकती है तो चिदंबरम और राज्यों की पुलिस कालाबाजारियों व जमाखोरों के खिलाफ उतना सख्त रुख क्यों नहीं अपनाती । जबकि ये लोग देशद्रोही और जनता के दुश्मन नं0 1 हैं । क्या हम ऐसे अभिजात्य लोकतंत्र में रह रहे हैं जिसमें देश के सर्वशक्तिमान दो प्रतिशत हिस्से के दुश्मनों के खिलाफ तो कार्रवाई होती है पर 98 फीसदी लोगों के शत्रुओं को जनद्रोह करने की आजादी है।
माओवादियों की हिंसा पर अनेक सवाल उठाए जा सकते हैं और उठाए जाते रहेंगे । शायद माओवादियों को भी भविष्य में इस सवाल से जूझना पड़े । जैसा विषम और अन्यायपूर्ण भारत मनमोहन, चिदंबरम और उनका प्रभुवर्ग बना रहा है उसमें हिंसक टकराव होते रहेंगे। सेना को नक्सलियों के मैदान में उतारने से सेना की छवि को तो नुकसान होगा ही साथ ही यह कदम आने वाले 25-30 सालों में गृहयुद्ध की पटकथा भी लिख देगा । चिदंबरम भारत को सीमित नागरिक आजादी वाला पुलिस राज्य बनाने की ओर चल पड़े हैं । पहला हमला आदिवासियों पर हो रहा है । यदि यह कामयाब रहा तो आदिवासी तीरकमान के साथ फिर कभी लड़ते नहीं दिखाई देंगे । चिदंबरम के भारत का आदिवासी उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र के मंच पर तीर कमान थामे तो दिखेगा पर बस्तर से लेकर संथाल और अबूझमाड़ की अपनी धरती पर हक के लिए तीर कमान के साथ नहीं बल्कि मजदूर के रुप में मल्टीनेशनल कंपनियों के अफसरों के सामने घुटने टेके दिखेगा । यदि यह हमारे सपनों का भारत है तो पाश के शब्दों को दोहराते हुए कहना चाहूंगा कि इस देश से मेरा नाम काट दो ।


3 टिप्‍पणियां:

  1. महंगाई का इलाज चिदंबरम के पास नहीं है, कालाबाजारी-जमाखोरी पर मनमोहन का बस नहीं चलता, रोजगार ये लोग मुहैया करा नहीं सकते; अब नक्‍सलवाद-मुस्लिम आतंकवाद ही तो बचते हैं, जनता का ध्‍यान बंटाने के लिए...

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  2. अनायास ही आपके ब्लॉग पर नज़र पड़ी। शानदार सटीक विवेचना।
    आपकी कलम को सलाम।

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  3. क्या लिख रहे हैं आप?

    आदिवासियों को वह सब मिलना चाहिए जिसके वे हकदार हैं, लेकिन, क्या अच्छी शिक्षा, चिकित्सा सेवाएं, यातायात के साधन (भले ही ये कितनी ही बुरी दशा में क्यों न हों) नहीं मिलना चाहिए?

    और सीधे-सादे भूखे, दरिद्र आदिवासियों के पास अत्याधुनिक हथियार कहाँ से आये?

    सारे पुलिसवाले घूस देकर नौकरी नहीं पाते! सबसे आसान टार्गेट वही हैं जो अपनी रोजी-रोटी के लिए ही सही लेकिन खतरा उठाते हैं.

    भ्रष्टाचारियों और कालाबाजारी करनेवालों पर नकेल कसना इसलिए कठिन नहीं है कि वे ताकतवर हैं, बल्कि इसलिए कि उनके विरुद्ध खड़े होने का साहस कोई नहीं जुटा पाता. आपने आज तक कितनी शिकायतें की हैं?

    यही एक देश है जहाँ सभी कम-सेकम अपनी आवाज़ तो बुलंद कर सकते हैं. जघन्तम काण्ड करने वालों के लिए सहानुभूति जतानेवाले लोग भी यहाँ मिल जायेंगे. माओवादी और नक्सलवादियों के प्रेरणा पुंज पूर्व सोवियत रूस और वर्तमान चीन का बर्बर शासन आपको दीखता है या नहीं? आदमी की खाद बनाने के लिए कुख्यात हैं वामपंथी विचारधारा वाले.

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