मानव के आदिम इतिहास में महाद्वीपों के इस छोर से उस छोर को नंगे पैरों से नापने वाले कितने काफिलों, कितने लश्करों अपने डेरे पानी से लबालब नदियों किनारे डाले तो फिर हिले नहीं । दुनिया की महान सभ्यतायें इन नदियों के पानी में स्नान कर या वजू कर खुद को धन्य मानती रहीं । इन आदिम काफिलों में से अनेक जब एंडीज, आल्प्स से लेकर हिंदूकुश और हिमालय के पहाड़ों से गुजरे तो उनके कदम वहीं थम गए और पहाड़ी झरनों और चश्मों के करीब उन्होने अपनी बस्तियां बसा डालीं । वे कबीले थे और आदिम भी मगर हजारों साल पहले वे मानव अस्तित्व का मूलमंत्र जानते थे । उन्हे पता था कि जहां पानी है , जीवन भी वहीं है । पानी के करीब, पानी की सरपरस्ती में सभ्यतायें सरसब्ज होकर फलती - फूलती रहीं । उन्होने नदियों की शान में जटिल काव्यमय ऋचायें, मंत्र रचकर उनके प्रति अपनी कृतज्ञता भी जताई । नदियां बची रहें , पानी न सूखे इसलिए वे नदियों और पानी को पवित्र घोषित कर गए । सफर आगे बढ़ा तो पनघटों में गीत गूंजने लगे । प्यार की कितनी ही कहानियों ने पानी भरने के दौरान अंगड़ाईयां लीं ,पनघटों की शीतलता के बीच ये कहानियां जवान भी होती रही होंगी । वे किस्से फिर गीत बनकर अगली पीढ़ियों को कभी दर्द से भिगोती रहीं तो कभी रोमांस के रोमांच से गुदगुदाती रहीं । तब पनघट पर मीठी ठिठोलियां या छेड़खानियां हुआ करती थीं ।इसी माहौल पर जब ‘‘मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे’’ जैसे गीत आया तो पनघट जैसे और भी रुमानी हो गए ।
लेकिन सभ्यता का सफर अब नाजुक मुकाम पर पहुंच गया है । पानी को लेकर जो रुमानी संसार 19 वीं और 20 वीं सदी में रचा गया था वह खंड-खंड होकर बिखर गया है । गीतों की गूंज के बदले गालियों का शोर है । पानी भरने के दौरान प्यार श् नहीं झगड़े हो रहे हैं । पहाड़ ऊपर से चाहे कितने सख्त और रुखे क्यों न लगते रहे हों लेकिन सबसे ज्यादा पानी उन्ही के पास रहा है । यहां तक कि वे नंग-धड़ंग काले कलूटे पहाड़ भी,जो अपनी छाती पर पेड़ तो दूर नाजुक-नरम घास को भी जड़ें जमाने की इजाजत नहीं देते, उनके भीतर भी पानी के असंख्य सोते छलछलाते रहे हैं । हजारों-हजार झरनों,चश्मों के संगीत से गंूजने वाला गंगा और यमुना का यह मायका भी जल अभाव से होने वाले कलह से अछूता नहीं रहा । पहाड़ी समाज को आम तौर पर लड़ाई-झगड़े से दूर रहने वाला और शांतिप्रिय माना जाता रहा है, पर पानी के संकट से इसका मिजाज बदल रहा है । संयम टूट रहा है , लोग चिड़चिड़े और परले दर्जे के स्वार्थी होते जा रहे हैं । वहां भी पानी को लेकर सर फूट रहे हैं । गाली-गलौच के बीच लगता ही नहीं कि आप उस पहाड़ में हैं जिसके लोगों की भलमनसाहत का कायल सात संमदर पार से आया अंग्रेज एटकिंशन भी रहा,जिसने 19 वीं सदी में लिखे अपने ‘‘एटकिशन गजेटियर’’ यहां के लोगों की सज्जनता की शान में कसीदे पढ़े थे ।
लगभग 170 साल की लंबी यात्रा में पौड़ी के लिए यह पहला मौका है जब उसे एक-एक बूंद पानी के लिए तरसना पड़ा। यह सचमुच एक कठोर और कठिन साल रहा जब पौड़ी के लोगों को पानी के लिए रतजगा करना पड़ा । बात यहीं तक होती तो गनीमत थी । पानी के लिए वहां झगड़े भी हुए,सर भी फूटे । लोगों का गुस्सा आपस में भी फूटा तो प्रशासन पर भी । नगर पालिका के चेयरमैन से लेकर पानी बांटने वाले विभाग के अफसर तक पिटे ।
बद्रीनाथ के रास्ते पर एक कस्बा है गौचर । 19 वीं सदी के उत्तरार्ध में दो-चार घरों की इस चट्टी में बद्रीनाथ के यात्री अपनी थकान उतारते थे । 25-30 साल पहले भी यह छोटी सी बस्ती हुआ करती थी । दूर-दूर तक फैले समतल खेत इसे सुंदर भी बनाते हैं और बसने के लिए एक माकूल जगह भी । इसलिए हाल के वर्शों में गौचर में आबादी बढ़ी और पानी की खपत भी बढ़ी पर पुराने सोते एक-एक कर सूखते रहे । अब हर गर्मियों में पानी के लिए जूझना, भिड़ना गौचर के जीवन का हिस्सा बन चुका है । लेकिन ये गर्मियां गौचर पर भी भारी गुजरीं । पानी को लेकर यह तस्वीर सिर्फ इन दो कस्बों की नहीं है । राज्य के दो दर्जन से ज्यादा कस्बों में पानी को ले कर हाहाकार मचा । पानी को लेकर सर फुटव्वल, लड़ाई, झगड़े धरना,प्रदर्शन और अफसरों का घेराव जैसे वाकये आम होते जा रहे हैं । पर तस्वीर इससे ज्यादा भयावह और चिंताजनक है । उत्तराखंड की एक तिहाई बस्तियां जल संकट से ग्रस्त हैं । हजार से ज्यादा गांवों में पानी बिल्कुल सूख गया है । लगभग सात हजार गांव ऐसे हैं जिनमें जल श्रोतों का प्रवाह आधे से लेकर 70 फीसदी तक कम हो गया है । राज्य में ऐसा कोई गांव नहीं है जिसमें पानी के श्रोत में पानी कम न हुआ हो । अपने वेग और गर्जना से डराने वाली भागीरथी इतनी दुबली-पतली हो गई है कि उसे देखकर तरस आता है कि आदमी ने एक भरी-पूरी नदी की क्या गत बना दी है । यही हाल अलकनंदा जैसी पानी से लबालब धीर गंभीर नदी का भी है भागीरथी में पानी कम होने से दस हजार करोड रुपए़ की लागत और एक लाख की आबादी को उजाड़ कर बना टिहरी बांध तीन सालों में ही दम तोड़ने लगा है । वनों से पोषित नदियां ही नहीं बल्कि ग्लेसियरों से पैदा होने वाली नदियों में भी पानी तेजी से घट रहा है । पनबिजली परियोजनाओं के बूते अपनी अर्थव्यवस्था को बेहतर करने का सपना खतरे में है ।
यदि पानी के श्रोतों के सूखने की रफ्तार यही रही तो भी अगले दस वर्षों में पहाड़ के अस्सी फीसदी गांवों में पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची होगी लेकिन इन सुदूर गांवों में पानी पहुंचाने में सरकार के पसीने छूट जायेंगे । प्रदेश में पानी को लेकर दंगों के हालात बन जायेंगे । एक ओर शहरी आबादी के लिए पेयजल योजनायें बनाने में सरकार को अपने अधिकतम संसाधन झोंकने होंगे । नदियों का पानी चिंताजनक रुप से कम हो जायेगा । वन पोषित अधिकांश नदियां या तो सूख चुकी होंगी ।
सन््् 1970 के बाद समय बदलने लगा था । जो प्रकृति हिमालय के इन पहाड़ों पर मेहरबान थी,हमारे लालचों और लुटेरे मानव गिरोहों की हरकतों के चलते वह रूठने लगी थी । हर समय छलछलाते रहने वाली जलधारायें चुपके-चुपके दम तोड़ रही थीं । सदियों से हमारी प्यास के ये साथी बीमार थे और इस कारण कमजोर होते जा रहे थे । लेकिन हम कभी समझ ही नहीं पाए कि हमारा सबसे करीबी दोस्त और पहाड़ की जीवनरेखा बीमार है । हम एक सोते के सूख जाने पर दूसरे श्रोत तक जाते रहे । लेकिन पहले वाला क्यों रुठकर गायब हो गया ,यह हमें कभी पता भी नही चला । सातवें-आठवें दशक तक पानी गांव से दूर भागने लगा था । गांव से दूर होते इस पाणी को लेकर बहुओं का दुख अब लोकगीतों में बोलने लगा था । मुझे अपने बचपन का वह समय याद आता है जब माॅं पानी लेकर लौटती थी तो उसके चेहरे पर थकान साफ-साफ बोल रही होती थी । निरंतर दूर होते जा रहे पानी के कारण ही बरसात होने पर वह पतनालों के नीचे बड़े बर्तन रख देती थी । इनके भर जाने के बाद पतीलियां,लोटे भी लगे हाथ भर लिए जाते थे । इन बर्तनों में गिरती बारिश की बंूदों का भी एक संगीत होता था । हर बर्तन का अपना खास संगीत ! खाली बरतन पर गिरती बंूदों का संगीत अधभरे बर्तन से अलग होता था । ज्यांे-ज्यों बर्तन भरता जाता था वह गुरु गंभीर आवाज में गूंजने लगता था । बर्तन आकंठ भर कर पानी अब बाहर बहने लगा है ,इसका पता भी बारिश का यही संगीत देता था । हम नींद में भी इस संगीत का मजा लेते थे , वे बरसातें और उनका वह संगीत आज भी स्मृतियों में गूंजता है । बूंदों की भाषा में खाली और भरे बर्तन का फर्क बताने वाला वह संगीत बेहद याद आता है ।
पहले पानी के श्रोत गायब हुए पर अब ऐसा वक्त आ गया है कि हैंडपंप भी संकट में हैं। पानी की तलाश में उन्हे हर साल धरती की कोख में और गहरे धंसना पड़ रहा है । बावजूद इसके एक-दो साल में ही उनका गला भी सूखने लगता है और देखते ही देखते वे दम तोड़ देते हैं । पहाड़ों पर सैकड़ों हैंडपंपों के अस्थिकलश बता रहे हैं कि कभी यहां भी पानी था ।
प्रख्यात कवि,कथाकार रसूल हमजातोव के ‘‘मेरा दागिस्तान’’ के एक किस्से में झुकी हुई कमर और झुर्रीदार चेहरे वाली एक बुढ़िया है जो पानी की उम्मीद में हर रोज फावड़े से जमीन खोदती है । हर सुबह वह उम्मीद से खोदना शुरु करती है और हर तलाश के बाद निराश कदमों से लौटती है । रसूल के किस्सों की वह बुढ़िया कहीं मेरा पहाड़ तो नहीं जो पानी खोज रहा है और उसे पानी का श्रोत ढंूढे नहीं मिल रहा ! गढ़वाल की लोककथाओं में प्यास से बेचैन एक चिड़िया का जिक्र आता है जो कातर स्वर में आसमान से पानी मांगती रहती है । गरमियों की उदास दोपहर में इस चिड़िया के स्वर की कातरता विचलित करती है । आने वाले सालों में क्या पूरा पहाड़ इस चिड़िया में बदलने वाला है, कौन जानता है ? रहीम बहुत पहले चेता गए थे कि बिना पानी के सब सूना है । हम इन पंक्तियों की संदर्भ सहित व्याख्या करने और विद्वान उन पर पोथी लिखने में लगे रह गए और उधर पानी सिधार गया ।
सभ्यता की इस यात्रा में हमने बहुत कुछ ऐसा खोया जो हमारे वजूद के लिए जरुरी थे । इनमें अधिकांश प्राकृतिक रुप से हमारे मित्र और करीबी रिश्तेदार भी थे । पेड़-पौधे, पशुू-पक्षी और बर्फ जैसी असंख्य नेमतें हमसे रुठ रही हैं । हर साल बर्फ आती और धरती की सारी खुश्की को अपने आॅंचल में समेट लेती । झक सफेद बालों वाली यह बर्फ किसी बुजुर्ग की तरह कभी नरम तो कभी सख्त रुप में पेश आती पर महीनों तक खेत,खलिहान और आॅंगन को अपने स्नेह से भिगोती रहती थी । लाख हटाने के बाद भी जीम रहती थी । अब वही बर्फ मेहमानों की तरह फिल्मी नायिकाओं के नाज-नखरों के साथ आती है और सरकारी कर्मचारियों के अंदाज में ड्यूटी बजा कर गायब हो जाती है । हमने हिरन के करीबी बंधु-बांधवों घुरड़,काखड़ जैसे मासूम जानवरों से उनके जंगल छीन लिए । रंग-बिरंगी नाजुक चिड़ियाओं से उनके गीत गाने की वजह छीन ली । अपने सबसे करीबी बुजुर्गों पीपल, बरगद और नीम को हमने आऊट डेटेड घोषित कर उन्हे दरवाजा दिखा दिया । शीतल हवा और बर्फ सा ठंडा पानी देने वाले बांज जैसे सबसे अनमोल मित्र को हमने अच्छी क्वालिटी के कोयले के लिए लालच की भट्टी में झोंक दिया । जिन दुर्लभ और अनमोल प्रजातियों की रचना करने में प्रकृति ने हजारों-हजार साल खपा दिए उन्हे मिटाने में हमने एक सदी भी नहीं लगाई । हमारी इन निर्ममताओं और आत्मघाती हरकतों पर कुदरत भला क्यों खफा न हो । उसके दंड कीशुरुआत हवा और पानी से हो चुकी है ।
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