
टूट रहा है लाल दुर्ग का तिलिस्म
आखिरी मुगल बनने की ओर प्रकाश का प्रस्थान
माकपा जब पश्चिम बंगाल में चुनाव के जरिये सत्ता पर काबिज हुई तो इसे भारतीय राजनीति में एक अजूबा माना गया। देश में काफी लोग थे जिन्हे तब लगा कि जैसे भारतीय लोकतंत्र पर आफत आ गई हो। कईयों को बैलेट बॉक्स से निकला यह कम्युनिस्ट राज कौम नष्ट करने वाला लगा। आठवें दशक से लेकर बीसवीं सदी तक भारतीय मीडिया को बंगाल का यूं लाल होना अच्छा नहीं लगा और समय-समय पर वह इस पर लाल पीला होकर अपनी कम्युनिस्ट विरोधी ग्रंथि को उजागर भी करता रहा। माकपा की कामयाबी पर भारत के कम्युनिस्टों की संसदीय प्रजाति मुग्ध रही है। माकपा के लिए भले ही केरल को छोड़कर शेष भारत की राजनीति सहारा का मरुस्थल बनी रही हो पर बंगाल उनके लिए नखलिस्तान से कम नहीं रहा। अपने इस साम्राज्य पर देश भर के माकपा नेता और कार्यकर्ता छाती फुलाते रहे हैं। उन्हे बराबर लगता रहा है कि देश में सिर्फ वही हैं जो संसदीय राजनीति के खांचे में अजेय साम्राज्य स्थापित करने का हुनर जानते हैं। इस अहसास के अहंकार से लबालब होकर वे छलकते भी रहे हैं। बंगाल माकपाईयों का राजनीतिक मक्का बना हुआ है और वे मीटिंगों, बहसों और अपने लेखों में बंगाल सरकार की नीतियों का पाठ कुरान की आयतों की तरह करते रहे हैं। माकपा की धर्मपुस्तक में बंगाल सरकार के खिलाफ बोलना कुफ्र माना जाता रहा है। चार दशक से चला आ रहा यह दुर्ग अब मुगल साम्राज्य के आखिरी समय के दौर से गुजर रहा है। वामपंथ के इस किले की अजेयता का तिलिस्म टूट रहा है और किताबी मार्क्सवाद के पंडित प्रकाश करात आखिरी मुगल होने की त्रासदी की ओर प्रस्थान कर चुके हैंं।पहले केरल और आठवें दशक में पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों के चुनाव के जरिये सत्ता में आने से भारतीय राजनीति संसदीय कम्युनिज्म का उदय हुआ। नंबूदरिपाद और ज्योति बसु समेत भाकपा और माकपा के कम्युनिस्ट नेता इसके शिल्पकार रहे हैं। ज्योति बसु का दर्जा माकपा की राजनीति में कुछ वैसा ही माना जा सकता है जिस तरह मुगलों में अकबर को हासिल था। उन्होने पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार चलाने का अपना व्याकरण गढ़ा और संसदीय कम्युनिस्ट राजनीति को उस ऊंचाई तक पहुंुचाया जहां आकर वह खुद को अजेय मानने के स्वर्ग में विचर सकती थी। बसु एक करिश्माई नेता थे उसी तरह जैसे कांग्रेस में जवाहर लाल नेहरू और दक्षिणपंथी राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी थे। उनकी माकपा संसदीय कम्युनिज्म की बंगाली कलम थी। जो बंगाल की आबोहवा के मुताबिक विकसित की गई थी। यह बारीकी से बुना गया ऐसा राजनीतिक मिक्सचर था जिसमें बांग्ला उपराष्ट्रªªवाद और अभिजात्यवाद के रेशे भी मौजूद थे तो मार्क्सवाद के धागे भी। ऑपरेशन बर्गा ने अधिकांश ग्रामीण इलाकों में माकपा को लगभग अजेय बना दिया।लगातार जीतों से माकपा की कतारें खुद को अजेय मानने लगीं। ज्योति बसु बूढ़े हो चले थे और उनका बनाये राजनीतिक फॉर्मूले का असर अब कम हो रहा था। माकपा के अकबर ज्योति बसु आखिरकार रिटायर हो गए। उनकी जगह चुने गए बुद्धदेव भट्टाचार्य और उनके राजनीतिक कद के बीच जमीन और आसमान का फर्क था। बंगाल की राजनीति में एकाएक खालीपन आ गया। बुद्धदेव जननेता नहीं थे। वह न तो जनता की नब्ज के राजनीतिक वैद्य थे और न उनके पास ऐसा आला था जिससे वह लोगों दिल की धड़कन को महसूस कर सकते थे। वह ऐसे साहसी और प्रतिभा संपन्न नेता भी नहीं थे जो संसदीय राजनीति और मार्क्सवाद के इस घालमेल को सिंकारा जैसे टॉनिक में बदल पाते। ऊपर से निर्द्वंद सत्ता ने पार्टी का शाररिक और मानसिक तंत्र इतना बीमार कर दिया कि वह सत्ता के सन्निपात में अराजक हो गया। जनता और नेतृत्व के बीच का पुल टूट चुका था। ऐसे में ईश्वर ही उसे बचा सकता था। चूंकि मार्क्सवादी ईश्वर पर भरोसा नहीं करते इसलिए हो सकता है कि उसने भी उन्हे सद्बुद्धि देने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई हो। माकपा में कांग्रेस के जीन का रोपण तो बसु के जमाने में ही शुरू हो चुका था और बीसवीं सदी की शुरुआत से उसे लाल कांग्रेस के उपनाम से जाना जाने लगा था। उसका डीएनए कांग्रेस से मैच करने लगा था और लाल रंग वाले गुणसूत्रों को छोड़कर उसमें और कांग्रेस में फक करना मुष्किल था। बसु के बाद तो माकपा विचारधारा की ढ़लान पर जैसे लुढ़कने लगी। माकपा के बुद्ध ने मान लिया था कि उनका कोई विकल्प नहीं है। माकपा ने बंगाल में पूंजीपतियों के लिए सेज की सेज सजानी शुरू कर दी। लेकिन पहले नंदीग्राम और फिर सिंगूर में जनता ने बताया कि निर्विकल्प कुछ भी नहीं है। यह जनता का ही कमाल है कि उसने राजनीति की राख में से ममता बनर्जी को निकाला और उसे फीनिक्स में बदल दिया। अजेय माकपा को सड़क से लेकर पंचायतों और नगर निकायों तक पराजयों के सिलसिले से गुजरना पड़ा है। मार्क्सवाद को कंठस्थ रखने वाले कम्युनिस्ट ब्यूरोक्रेट प्रकाश करात आखिरी मुगल की तरह साम्राज्य को ध्वस्त होते देख रहे हैं। वह भी नेतृत्व की उन पांतों शामिल रहे हैं जिन्होने माकपा के पतन की गति को तेज किया है। दरअसल माकपा के नेतृत्व पर सालों से ऐसे लोगों का कब्जा चल रहा है जिसने उसे जनता की पार्टी बनाने के बजाय उसमें नौकरशाह दल में बदल दिया है। पूरे देश में संगठन के महत्वपूर्ण पदों पर अधिकांश वे नेता काबिज हैं जो किसी आंदोलन में जेल नहीं गए। उनकी योग्यता बस इतनी है कि वे किताबी मार्क्सवाद के पंडे हैं। माओवादी नेता आजाद की पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने पर माकपा ने जिस तरह से सवाल उठाए हैं उससे यह गलत फहमी भी दूर हो गई है कि उसमें कम्युनिस्ट होने का कोई लक्षण बाकी है। माओवादियों को लेकर भाजपा और माकपा एक साथ खड़ी है तो इस श्रेय के हकदार भी करात ही हैं। प्रकाश करात, सीताराम येचुरी, अरुण जेटली, चिदंबरम संसदीय लोकतंत्रा के सबसे बड़े वकील के रुप में उभरे हैं। संयोग ये सभी भारतीय कुलीन वर्ग के प्रतिनिधि हैं। माओवादियों के दमन पर भाजपा के सबसे करीब इस समय माकपा है।यह राजनीतिक विडंबना ही है कि माकपा का विकल्प ममता के रुप में सामने आया है। ममता बनर्जी जिस तरह से अविवेकपूर्ण लोकप्रियतावादी राजनीति कर रही हैं उससे उनसे कोई उम्मीद नहीं बंधती। उनकी राजनीति की सीमायें भी स्पष्ट हैं और उनके रंगढ़ंग ऐसे ही रहे तो पतन भी पटकथा भी दीवार पर लिख दी गई है। लोगों में उम्मीद के पहाड़ खड़े करना आसान भले ही हो पर यह शेर की सवारी है जिसमें शिकार होना तय है। ममता में जननेता के काफी गुण हैं पर दूरदर्शी नेता उम्मीदों के ऐसे पहाड़ खड़े नहीं करते जिनके नीचे दबकर वे मारे जायें।