जब से बाईपास सर्ज्ञरी हुई है तब से सुस्त और उदासीन से दिखने वाले मनमोहन सिंह पूरी फारम में लौट आए हैं। उनके दिल को खून की आपूर्ति क्या बहाल हुई कि वह ताबड़तोड़ हमले करने में जुट गए हैं। दिल जब आपका साथ देता है तो मनमोहन भी आडवाणी को ललकार सकते हैं। चुनावी ललकारों के बीच मनमोहन ने क्षेत्रीय दलों को देश के लिए नुकसानदेह बताकर एक नई बहस को जन्म दिया है। यह मनमोहन का राजनीतिक अग्यान भी है कि वह इस देश और उसके विभिन्न समाजों के बारे में कितना कम जानते हैं।
पीएम की इस टिप्पणी के जवाब में देश भर से कई प्रतिक्रियाएं आईं जिनमें मनमोहन की आलोचना की गई थी। दरअसल क्षेत्रीय दलों के चरित्र पर बहस शुरू करने से पहले मनमोहन के इस बयान के निहितार्थ समझे जाने चाहिए। भारतीय राजनीति में 1966 को एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जाना चाहिए। 1962 के भारत चीन युध्द में हुई हार से नेहरू और कांग्रेस का पतन शुरू हो गया। विकल्प के अभाव और नेहरू जैसे व्यक्तित्व के कारण कांग्रेस की लोकप्रियता में पड़ रही दरारें दिखाई नहीं दे रहीं थी लेकिन वक्त की धूप, हवा और पानी ने इस किले को भीतर और बाहर दोनों ओर से खाना शुरू कर दिया था। 1964 में नेहरू के अवसान के साथ कांग्रेस की रक्षा करने वाली उनकी विराट छवि भी न रही। १९६७ आते-आते उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक कांग्रेसी किले में पड़ रहीं दरारें दिखने लगी थी। इंदिरा गांधी के उदय से कांग्रेस की विशाल इमारत का दरकना रूक गया। इंदिरा के करिश्मे ने कांग्रेस से मोहभंग की प्रक्रिया को रोक दिया। लेकिन यह इतिहास की विडंबना ही है कि उसी इंदिरा गांधी की इमरजेंसी ने इस प्रक्रिया को आंधी में बदल दिया। 1977 में कांग्रेस की अजेयता को जो चुनौती मिली वह 1989 में दोहराई गई और फिर लगातार दोहराई जा रही है। बीसवीं सदी के आखिरी दशक को भारतीय राजनीति में आये सबसे बुनियादी बदलाव के लिए रेखांकित किया जाना चाहिए। यह वही दशक था जब न केवल भारत का प्राकृतिक मौसम बदल रहा था बल्कि देश की राजनीतिक आबोहवा भी बदल रही थी। देश की राजनीति की भाषा व्याकरण में भी बुनियादी बदलाव तो आए ही साथ ही राष्ट्रीय राजनीति से एकाधिकार का युग भी विदा हो गया।
21वीं सदी में हम जिस राजनीतिक भारत का नक्शा देख रहे हैं वह न तो कांग्रेसी और न ही भगवा रंग में रंगा हुआ है। यह ऐसा बहुरंगी भारत है जिसमें पूर्वोतर से लेकर सुदूर दक्षिण तक मौजूद जातियां और क्षेत्र अपने-अपने रंगों के साथ उपस्थित हैं। मनमोहन सिंह की मुश्किल यह है कि वह ऐसा भारत चाहते हैं जो भले ही जातियों क्षेत्रों और आर्थिक आधार पर विभिन्न स्तरों पर विभाजित हो लेकिन राजनीतिक रूप से वह एक रूप हो। दरअसल कांग्रेस को 1952 वाला भारत चाहिए तो भाजपा कांग्रेस वाले भारत में भगवा रंग भरकर अपने वाला एक रूप भारत चाहती है। यानी ठीक वैसा भारत जैसा आरएसएस के बंच आफ थाट्स में लिख दिया गया है। लेकिन इस देश के साथ मुश्किल यह है कि यह न तो कांग्रेस और न भाजपा की राजनीतिक भाषा, व्याकरण में बोल रहा है। 21वीं सदी के राजनीतिक भारत की सामाजिक- राजनीतिक आकांक्षाएं अपने-अपने सुरों में बोल रही हैं। अगर ये सुर मनमोहन को रास नहीं आ रहे हैं तो यह उनकी राजनीति और समझ की समस्या है न कि भारतीय समाज की। मनमोहन को जानना चाहिए कि भारत को यदि एक संघीय गणराज्य बनाने का संविधान निमार्ताओं का निर्णय आखिर यूं ही हवा-हवाई नहीं था। वे जानते थे कि भारतीय समाज जापानियों अंग्रेजों या जर्मनों की तरह सपाट समाज नहीं है। भाषा, जातियां, धार्मिक विश्वास़, भूगोल और संस्कृतियां भारतीय समाज को कई राष्ट्रीयताओं और उपराष्ट्रीयताओं में बांटते हैं। हम भारत नाम के जिस राष्ट्र राज्य को प्रशासनिक तौर पर देख रहे हैं वह दरअसल इन्हीं विभिन्न वर्णी समाजों का संघीय रूप है। भारतीय संविधान ने इस सच्चाई को स्वीकार कर इसे एक प्रशासनिक ईकाई बनाया है। इससे पहले भी अंग्रेजों से लेकर अकबर तक और उससे पहले के मध्यकालीन भारत में भी जो भी साम्राज्य आए उन्होंने अपने माताहत रियासतों की पहचान में कोई छेड़खानी नहीं की। इसलिए मनमोहन सिंह को यह जानना चाहिए कि वह भारत के विभिन्न समाजों की राजनीतिक पहचानों में जिन विविधताओं से हैरान हैं वह दरअसल भारत के डीएनए में है। 1952 से 1962 के एक दशक में यह विविधता भले ही नेहरू गांधी के करिश्मे में ढंक गई हो लेकिन तब भी इसकी अंतर्धाराएं लगातार मौजूद रहीं। कांग्रेस के पुण्यों और करिश्मे का ग्लेशियर जैसे ही पिघलने लगा तो द्रविड़ से लेकर मलयाली बंगाली तक सारी अंतर्धाराएं दिखने लगीं। मनमोहन जिन राजनीतिक शक्तियों के उभार से परेशान हैं वे सारी की सारी गैर कांग्रेसवाद की कोख से जनमी हैं। कांग्रेस की विफलताओं ने ही गैर कांग्रेसवाद जैसी नकारात्मक राजनीति को विचारधारा में बदल दिया। छोटे दलों के उभार पर मनमोहन को शिकायत करने का नैतिक अधिकार नहीं है। मनमोहन छोटे दलों के उभार से इसलिए भी नाराज हैं क्योंकि इन दलों के कारण ही वह अपने उस आर्थिक एजेंडे को पूरी तरह लागू नहीं कर पा रहे हैं जो विश्व बैंक़, डब्लूटीओ और बहुराष्ट्रीय कंपनियां चाह रही हैं। हालांकि वह काफी हद तक भारत की परंपरागत अर्थव्यवस्थाकी रीढ तोड़ने में कामयाब रहे हैं लेकिन यह उतनी तेजी से नहीं हो पा रहा है जितना कि उदारीकरण के मालिक लोग अपने भारतीय कर्मचारियों से चाह रहे हैं।
दरअसल उदारीकरण की सबसे बड़ी चैंपियन पार्टियां कांग्रेस और भाजपा देश में अमेरिका की तरह दो दलीय लोकतंत्र चाहती हैं। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि विश्व बैंक़ डब्लूटीओ भी यही चाहते हैं क्योंकि दो दलीय लोकतंत्र को अमेरिका की तरह कारपोरेट लोकतंत्र में बदला जा सकता है। कांग्रेस और भाजपा कारपोरेट हितों की रक्षा करने में अपने कौशल को साबित कर चुकी हैं। इसलिए भारतीय हो या विदेशी कारपोरेट जगत यही चाहता है कि चुनाव कांग्रेस और भाजपा के बीच सीमित हो जाए ताकि ऐसे दल सत्ता में न आ सकें जिन पर वोटर का करीबी नियंत्रण है। छोटे दलों का अस्तित्व ही चूंकि लोकप्रियतावादी नीतियों पर टिका है इसलिए समर्थकों की प्रतिक्रियाओं से भी इन दलों की नीतियां बनती-बिगड़ती रहती हैं। तो मनमोहन अकेले नहीं है और न ही हेडगेवार अकेले थे जिन्हे गंजे की तरह सपाट भारत चाहिए था वह अकेले नहीं जिन्हें गरीब और अमीर की वर्गीय विविधता वाला भारत तो चाहिए लेकिन राजनीतिक रूप से सपाट देश चाहिए। लेकिन इन महानुभावों की त्रासदी यह है कि वे देश नहीं चुन सकते इसलिए विधवा विलाप करते हुए भी उन्हें इसी भारत में रहना है।
लेकिन इन तर्कों में देश के छोटे दलों की राजनीति का औचित्य साबित करने का खतरा भी छुपा है। दरअसल भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का उभार दक्षिण भारत से शुरू हुआ जहां द्रविड़ राजनीति के सूत्रधार के रूप में डीएमके, एआईडीएमके, टीडीपी ने अपना सफर शुरू किया। लेकिन अब भारतीय राजनीति में छोटे दलों की भरमार है। बीसवीं सदी के नवें दशक और 21वीं सदी के पहले दशक में इन छोटे दलों में से अधिकांश ने केंद्र और राज्य स्तर पर गठबंधन की जो राजनीति की है वह भारतीय राजनीति में अवसरवाद की पराकाष्ठा है। भारतीय राजनीति के बहुध्रुवीय और विकेंद्रीयकृत होने की जो उम्मीद इन छोटे दलों से जगी थी उसे इस अवसरवाद ने चूर-चूर कर दिया। इनमें से कई छोटे दलों ने यह भी साबित कर दिया की बौने नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की निकृष्ट अभिव्यक्ति हैं। इनमें से अधिकांश दलों ने अपने आचार- व्यवहार और राजनीति से ऐसा कुछ भी साबित नहीं किया जिससे यह लगे कि देश और दुनिया के बारे में इन दलों का अपना कोई नजरिया है। देश और दुनिया के बारे में न कोई समझ, न कोई सपना, अधिकांश छोटे दलों के बारे में सच्चाई यही है। इसलिए इन दलों को कभी भाजपा, कभी कांग्रेस तो कभी कम्युनिस्टों के साथ गठबंधन करने में न झिझक महसूस होती है और न शर्म ही आती है। इस वैचारिक अराजकता और परले दर्जे की सत्तालिप्सा ने ही कांग्रेस और भाजपा को छोटे दलों के खिलाफ माहौल बनाने का मसाला दिया है। देश में मध्यवर्ग के एक हिस्से में कांग्रेस और भाजपा का यह प्रचार असर भी दिखा रहा है। छोटे दलों की यह विफलता देश को दो दलीय राजनीति की ओर ले जाएगी जिसके नतीजे देश के लिए खतरनाक होंगे । क्योंकि आर्थिक नीतियों से लेकर भ्रष्टाचार सत्ता के चरित्र तक ये दोनों दल एक दूसरे के क्लोन हैं। अंतर इतना ही है कि भाजपा में भगवा रंग वाला डीएनए थोड़ा गाढे रंग और कांग्रेस में यह डीएनए हल्के भगवे रंग का है।
दुर्भाग्य से यदि राजनीति कांग्रेस और भाजपा तक सीमित हुई तो ये दोनों दल सड़क से लेकर संसद तक फ्रेंडली मैच खेलेंगे और हर पांच वर्ष दल तो बदलेंगे लेकिन हालात वही रहेंगे। देश को यदि बड़े दलों की आपदा से बचना है तो उसे सही मायनों में क्षेत्रीय या आंचलिक सवालों पर राजनीति करने वाले दलों की जरूरत है। तब जाकर ही भारतीय संसद और राजनीति का चरित्र सही मायनों में संघीय हो सकेगा।
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