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मंगलवार, 25 मई 2010

कुंभ के बहाने संतों का सच


कुंभ के बहाने संतों का सच कुंभ और उसके बाद यह सवाल लगातार उठ रहा है कि जिन्हे भारतीय समाज सन्यासी,साधु और संत जैसे सम्मानपूर्ण पदवियों से नवाजता रहा है वे लोग क्या वाकई इन विशेषणों के योग्य हैं भी कि नहीं ।कहीं वे गृहस्थ जीवन की कठिनाईयों या दुखों से भागने वाले कुंठित और अतृप्त लोग तो नहीं हैं ? भारतीय जीवन दर्शन में सन्यासी होने का तात्पर्य गृहस्थ जीवन के भगोड़ों से नहीं है।जिंदगी की मुश्किलों से डरे, घबराए और भागे हुए लोग वीतरागी नहीं हो सकते। असफल गृहस्थ सन्यासी नहीं हो सकता क्योंकि सन्यास पलायन नहीं है बल्कि जीवन की निस्सारता से एक व्यक्ति का व्यक्तिगत साक्षात्कार है। वैराग्य के इस दर्शन से असहमति या सहमति हो सकती है पर सन्यास अहंकारी, अतृप्त, असंतुष्ट और कुंठित लोगों का सम्प्रदाय तो कतई नहीं है । यह अपने प्रियजनों से नाराज या घर से भागे हुए लोगों की छुपने की जगह भी नहीं है । यह परजीवियों के धार्मिक दुर्ग या मठ भी नहीं है। यह धर्म की सतह के नीचे बदबू मार रहे ऐयाशी के अंधेरे तहखाने नहीं है। सिद्धार्थ का बुद्ध हो जाना ही सन्यास है।लेकिन सन्यासी बुद्ध ने न आश्रम बनाया, मठ भी नहीं बनाया। स्वामी विवेकानंद ने सन्यासी जीवन को ‘ करतल भिक्षा,तरुतल वास’ में देखा । अपरिग्रह यानी कि कुछ भी संचित न करना सन्यास की पहली शर्त है। सत्कर्म के अलावा कुछ भी संचय करना सन्यासी के लिए वर्जित है। सांसारिक सुखों का निषेध उसकी आचार संहिता का सबसे जरुरी हिस्सा है । सूरदास ने कहा ,‘संत का सीकरी से क्या लेना-देना ?’ जो सत्ता से दूर अपनी फक्कड़ी में मस्त है वही सन्यासी है। इसीलिए कबीर कहते हैं,‘ माया महाठगिनी हम जानी।’ आज सन्यासियों की नई प्रजाति से हमारा सामना हो रहा है। यह एक तरह से परजीवियों की जमात है जो लोगों को भोगविलास से दूर रहने की नसीहत देती है और खुद भोगों में मस्त है। ऐसे बिरले ही मठ और आश्रम होंगे जिन्होने सरकारी या समाज की जमीन पर अतिक्रमण न किया हो। अधिकांश मठों और आश्रमों के खिलाफ पुलिस में मामले दर्ज हैं। कईयों पर तो हिस्ट्रीशीटरों की तरह दर्जनों मुकदमे चल रहे हैं। जिस धर्म को ऐसे लोग संचालित कर रहे हों उसे दुश्मन की जरुरत ही क्या है? कुंभ के दौरान खुद को संत घोषित करने वाले ये लोग सरकार को तिगनी का नाच नचाते रहे। मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाने वाली भाजपा की सरकार रोज अखाड़ों के साधु - सन्यासी के सामने घुटने टेकती रही। हर सप्ताह कोई न कोई अखाड़ा सरकार को घुड़कियां देता रहा। कुंभ पर स्नान जिस तरह से अखाड़ों और शंकराचार्यों ने अपना विशेषाधिकार बना लिया है उससे यह सवाल उठ खड़ा है कि क्या कुंभ अखाड़ों और शंकराचार्यों के लिए आयोजित किए जाने वाला जमावड़ा है या फिर यह भारत के आम लोगों का मेला है ? कुंभ यदि इतना बड़ा सांस्कृतिक समागम बन सका है तो इसके पीछे सदियों से उस गरीब और साधनहीन भारतीय की आस्था रही है पर मठों और महंतों के संगठित व ताकतवर तंत्र ने कुंभ को हथिया लिया है। इतिहास गवाह है कि मध्यकाल से पहले कुंभ स्नान में सन्यासियों को वरीयता दिये जाने की कोई व्यवस्था नहीं थी। तब यह आम लोगों का मेला था। महान चीनी यात्री ह्वेन सांग और फाहियान के यात्रा विवरणों में साधुओं या सन्यासियों को कुंभ में प्राथमिकता दिए जाने का कहीं भी उल्लेख नहीं है। मध्यकाल में कुंभ स्नान को लेकर अखाड़ों के अहंकार आपस में टकराने लगे थे। सन्यासियों के इस दंभ और अहंकारों के चलते कई बार कुंभ की पवित्र धरती खून से लाल हुई । हजारों लोग इन अहंकारी साधुओं के टकराव में मारे गए। अखाड़ों के महंतों और महामंडलेश्वरों के अहं की तुष्टि और हिंसक टकरावों को टालने के लिए अंग्रेजों ने शाही स्नान की परंपरा डाली। आजाद भारत में ऐसी परंपरा कोई स्थान नहीं होना चाहिए। सन्यासियों को आम आदमी की तरह आम लोगों के साथ क्यों नहीं नहाना चाहिए? जिनके भीतर इतना अहंकार, द्वेष, क्रोध, और आडंबर है क्या वे साधु हैं? कुंभ यदि आज हिंदुओं की आस्था का प्रतीक है तो इसके पीछे उस आम किंतु गरीब हिंदू की धार्मिकता है जो रेलों, बसों में धक्के खाते हुए गंगा स्नान करने आता है । गांधी का यह दरिद्रनारायण कभी -कभी तो कर्ज लेकर भी कुंभ आता है। वे करोड़ों लोग जो अपने जीवन की मुश्किलों के बावजूद गंगास्नान करने चले आते हैं वे सन्यासियों के अखाड़ों और शंकराचार्यों के लिए नहीं आते। इस कुंभ में कई बार लगा कि जैसे सरकार को अखाड़े, विश्व हिंदू परिषद और शंकराचार्य ही चला रहे हों। सन्यासियों के ये समूह सरकार को अपनी शर्तें डिक्टेट करते रहे परंतु वे करोड़ों लोग, जिनके लिए धर्म न धंधा है और न आजीविका का साधन, उनकी असुविधाओं के बारे में सरकार ने शायद ही चिंता की हो। इन सच्चे तीर्थयात्रियों को मुफ्त में न सही पर कम कीमत पर हरिद्वार में रहने की जगह या सस्ता खाना मिल सके, इस पर सरकार, साधु और धर्म के ठेकेदार चुप रहे। धर्मशालाओं के किराये होटलों को मात करने लगे। दिल्ली के पत्रकार मित्र ने बताया कि हर की पैड़ी में एक नामी मंहत के आश्रम के एक कमरे का किराया पंचतारा होटल के बराबर था। इन आश्रमों और धर्मशालाओं की ऑन लाइन बुकिंग एक होटल की वेबसाइट के जरिये हो रही थी। इनके लिए लोकल स्तर पर ग्राहक भी होटल वाले ही भेज रहे थे।कुंभ आते ही हरिद्वार में धर्मशालाओं और होटलों के किराये दस गुने से ज्यादा बढ़ गए। होटलों को सरकार ने लूट का ग्रीन सिग्नल दे दिया था। देश के विभिन्न हिस्सों से आने वाली धर्मपरायण जनता के लिए किसी का दिल नहीं पसीजा, न साधुओं का, न हिंदू धर्म के महामंडलेश्वरों का, न शंकराचार्यों का और न विहिप का। उत्तराखंड सरकार की यह कैसी आतिथ्य परंपरा है जो अतिथियों की जेब पर डाका डालने की छूट देती है। यह किस तरह का धर्म है जो आश्रमों और धर्मशालाओं को होटलों में बदल देता है। हद तो यह है कि एक अखाड़े ने हरिद्वार में कुंभ का लाभ उठाते हुए सरकारी जमीन पर ही कई मंदिर बना दिए और धर्म के नाम पर लोकल प्रशासन को ही आंखे दिखानी शुरु कर दी। कुंभ का यह सच उनका है धर्म के नाम पर समाज से सिर्फ लेना जानते हैं। एक सच सरकारी तंत्र का भी है जिसने 700 करोड़ रुपए की दीवाली मनाई और अब मूंछों पर ताव देते हुए अपनी पीठ खुद ही ठोंक रहा है पर उसकी कारगुजारियों खुलासा फिर कभी।