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शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

कठिन वक्त में भाजपा

दो दशकों की सबसे भीषण मंहगाई और दो बार सत्तारुढ़ रहने से उपजा सत्ताविरोधी रुझान फिर भी भाजपा को महाराष्ट्र में मुंह की खानी पड़ी । लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के हाथों मात खा चुकी भाजपा के लिए यह कोई मामूली झटका नहीं है बल्कि इसका संदेश दूरगामी है । हरियाणा से लेकर अरुणाचल और महाराष्ट्र तक कहीं से भी उसके लिए दिल बहलाने के लिए भी कोई खबर नहीं है ।देश में सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या भाजपा के दिन लद चुके हैं ? क्या भारतीय राजनीति में वह अप्रांसगिक हो चुकी है ? निश्चित तौर पर भाजपा के लिए यह कठिन समय है । बिडंबना यह है कि ऐसे वक्त में उसके पास न तो वाजपेयी जैसा नेता है जो अपनी छवि के बूते उदार हिंदुओं को मोह सके और न बाबरी मस्जिद जैसी कोई निर्जीव और कमजोर खलनायक जो उसकी झोली वोटों से भर दे ।
एक दल के रुप में भाजपा के सामर्थ्य और सीमाओं पर बात करने से पहले महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव नतीजों का विश्लेषण किया जाना जरुरी है । महाराष्ट्र में दस सालों से कांग्रेस की सरकार है और घोर कांग्रेसी भी यह मानेगा कि महाराष्ट्र में सरकार के खाते में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके बूते उसे तीसरी बार सत्ता में बैठने का नैतिक अधिकार दिया जा सके । न तो उसके पास शीला दीक्षित की तरह विकास की जादुई छड़ी थी और न बेहतर कानून व्यवस्था और साफ-सुथरा प्रशासन कायम करने का यश । जनता के पास ऐसा कोई कारण नहीं था कि वह कांग्रेस को वोट दे ।इन सबसे ऊपर पिछले दो दशकों की ऐसी भीषण महंगाई है जिससे सिर्फ देश का गरीब तबका ही नहीं बल्कि मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग भी त्राहिमाम कर रहा है । लोगों की रोजी और रोटी दोनों खतरे में डाल दी गई हों , उनके भोजन की बुनियादी जरुरत दाल को रातों रात गायब कर दिया गया हो तब भी देश का सबसे मुखर और बड़बोला विपक्ष हार जाय ! महाराष्ट्र में भाजपा की हार को इसीलिए मामूली घटना मानकर हवा में नहीं उड़ाया जा सकता । क्योंकि यह प्रतिपक्ष के रुप में उसकी राजनीति और रणनीति के साथ नेतृत्व की भी हार है । भाजपा के नेतृत्व को राजनीतिक हालातों की कितनी समझ है इसका अंदाजा हरियाणा में अकेले चुनाव लड़ने के उसके फैसले से लगाया जा सकता है । यदि भाजपा इनेलो के साथ वहां चुनाव लड़ती तो हरियाणा से कांग्रेस का बिस्तर बंध गया होता । पार्टी ने यह फैसला तब भी वापस नहीं लिया जब हुड्डा ने विपक्ष में बिखराव देखते हुए समय से पहले चुनावों का ऐलान कर दिया । भाजपा के नेतृत्व ने संकीर्ण दलीय हितों के बजाय अपने दूरगामी हित सोचे होते तो उसे हरियाणा में मुंह छिपाने की जगह मिल गई होती ।दरअसल वस्तुगत परिस्थितियां विपक्ष के साथ होने के बावजूद यदि वह हार गई तो उसे अपने गिरेबान में झांकना चाहिए ।एमएनएस को वोट बंटवारे का दोषी ठहराने की कवायद खंभा नोचने जैसा खिसयाया विश्लेषण है ।क्या भाजपा इतनी नादान पार्टी है कि उसे यह भी पता नहीं कि लोकतंत्र में कोई न कोई वोट बांटने वाला हर चुनाव में मौजूद रहेगा । उसके वोट न बंटे यह पुरुषार्थ तो उसे ही दिखाना है ।भाजपा या किसी भी विपक्षी दल को वोट देने के लिए जनता के पास कोई वैध कारण और तर्क होना चाहिए । जनता को यदि यह भरोसा है कि अमुक दल के सत्ता में आने से उसके हालात बदलेंगे तो वह परिवर्तन के लिए वोट देगा । मनुष्य का स्वभाव परिवर्तन की इच्छा और यथास्थिति बनाए रखने की चाह का घालमेल है । परिवर्तन की पक्षधर ताकतें लोगों में यदि बेहतर कल के सपने को संचरित करने में कामयाब रहती हैं तो आम लोग परिवर्तन के पक्ष में लामबंद हो जाते हैं अन्यथा लोग जड़ता में पड़ा रहना पसंद करते हैं । जड़त्व का नियम सिर्फ निर्जीव वस्तुओं पर लागू नही होता वह समाजों और लोगों पर भी लागू होता है ।वस्तुओं की तरह समाज भी तभी आगे या पीछे सरकते हैं जब उन्हे कोई हिलाता - डुलाता है ।
यदि सन् 2004 से लेकर 2009 तक भाजपा की राजनीतिक सक्रियता का विश्लेषण किया जाय तो यह आईने की तरह स्पष्ट है कि इन पांच सालों में भाजपा ने ऐसा कोई पुरुषार्थ नहीं दिखाया कि वह उत्तर भारत की जनता को अपने पक्ष में वोट करने को प्रेरित कर सके ।इसे यूं भी कहा जा सकता है कि उसने लोकतंत्र में प्रतिपक्ष का अपना धर्म नहीं निभाया । भाजपा को इस मुगालते में रहने का अधिकार है कि संसद में मात्र उसका संख्याबल ही उसे देश का मुख्य प्रतिपक्षी दल बना देता है , पर व्यवहार में ऐसा है नहीं ।यदि राजनीतिक दल जनता के लिए निरंतर संघर्ष कर राजनीतिक पूंजी नहीं बटोरते तो उनका पूर्व के संघर्षों का संचित पुण्य भी क्षरित होने लगता है और एक दिन ऐसा भी आता है कि वे अतीत की पार्टियां बन जाती हैं । क्या भाजपा के साथ भी यही दोहराया जाने वाला है ? भाजपा की मुश्किल यह है कि वह सत्ता में तो आना चाहती है लेकिन उसके लिए जमीन पर लड़ना नही चाहती । उसके नेता अब सत्ता में आने के लिए सत्ता विरोधी रुझान के भरोसे बैठे हैं । उन्हे लगता है कि यह असंतोष उन्हे प्रतिपक्ष से उठाकर सत्ता में बैठा देगा ।सत्ता की राजनीति ने एक जमाने की इस लड़ाकू दक्षिणपंथी पार्टी को आरामतलब और शाही विपक्ष में रुपांतरित कर डाला है ।विहिप और आरएसएस जरुर चुनावों के आसपास यात्रायें और आक्रामक अभियान चलाकर उसके लिए हिंदू वोटों का जुगाड़ करते हुए दिखाई देते हैं । बदले हुए समय में संघ परिवार के ये उपक्रम कट्टर हिंदुओं को तो उसकी झोली में बनाए रखते हैं पर नया कुछ जोड़ते नहीं ।
अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीतिक परिदृश्य से हटने के बाद उसके पास मध्यवर्ग को भा जाने वाला नेता नहीं है और कट्टरपंथी राजनीति की सीमायें बाबरी मस्जिद कांड के बाद साफ हो चुकी हैं ।करिश्माई नेता के नाम पर उसके पास सिर्फ नरेंद्र मोदी है लेकिन वह उन्ही हिंदुओं के नायक हैं जो पहले ही भाजपा के साथ हैं । राजनीतिक संस्कृति और आर्थिक नीतियों के सवाल पर भाजपा कांग्रेस का विकल्प नहीं बल्कि पूरक है । महंगाई,कालाबाजारी,जमाखोरी , मिलावटबाजी और रोजगार असुरक्षा के मुद्दे पर दोनों दलों ने आपस में राष्ट्रीय सहमति कायम कर ली है ।यानी दोनों दलों में कोई भी सत्ता में आए ये समस्यायें ऐसी ही रहेंगी ।जब जनता को यह बुनियादी बात पता है कि भाजपा के सत्ता में आने पर भी उसे कोई राहत नहीं मिलनी है तब वह क्यों भाजपा के पक्ष में खड़ी हो ? रही बात उच्च वर्ग की , तो वह मनमोहन सिंह , चिदंबरम से खुश है ही , इसलिए मीडिया भी उन पर मुग्ध है ।सवाल यह है कि ऐसी स्थिति में भाजपा किस वर्ग की राजनीतिक जरुरत है जो उसे सत्ता में आता हुआ देखना चाहेगा ? इस सवाल का जवाब ही तय करेगा कि भाजपा का क्या होगा ।भाजपा के लिए यह समय अपनी पूरी राजनीति पर समग्रता से सोचने का है । उसे तय करना होगा कि 21वीं सदी के भारत को क्या वह जनसंघ के नजरिये से देखना चाहती है या फिर कोई नया प्रस्थान बिंदु खोजना चाहती है । उसे ही तय करना है कि वह स्वायत्त राजनीतिक दल बनेगा या आनुषांगिक संगठन की नियति स्वीकार करेगा ।







शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

चिदंबरम के भारत को चाहिए गुलाम आदिवासी



देश के न्यूज चैनलों में इन दिनों एक बच्चे का रुदन है और उसका गुस्सा भी है, जिसमें वह बड़ा होकर पुलिस बनने की शपथ ले रहा है। आज से लगभग 10 साल बाद वह बच्चा जब पुलिस में भर्ती होने लायक होगा तब तक पुलिस कांस्टेबल के पद पर भर्ती होने की घूस कितनी होगी, यह कड़वा सच वह बच्चा नहीं जानता पर चैनल वाले जानते हैं लेकिन बताते नहीं क्योंकि सच बताने से उनकी नक्सलवाद विरोधी मुहिम की पोल खुल सकती है ।
न्यूज चैनलों के खबरनवीस और मालिक लोग चूंकि चिदंबरम के भारत के गणमान्य नागरिक हैं इसलिए ऐसे समय में जब पूरा देश मंहगाई और आर्थिक असुरक्षा से त्राहिमाम कर रहा है तब वे नक्सलवाद से परेशान हैं । हम सबको याद है कि नक्सलवाद के खिलाफ चैनलों के दुलारे चिदंबरम दरअसल इस देश और पाश्चत्य दुनिया में उदारीकरण के पोस्टर ब्वाय रहे हैं । वह भारतीय भद्रलोक के सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली प्रतिनिधियों में से एक हैं । अपने लोकसभा क्षेत्र में चमत्कारिक ढंग से हारते - हारते बचे चिदंबरम के नक्सलवाद विरोधी अभियान के गहरे अर्थ हैं । एक तो यह है कि यूपीए सरकार महंगाई के मोर्चे पर बुरी तरह विफल हुई है । समूचा मध्यवर्ग मंहगाई की मार से त्राहिमाम कर रहा है और केंद्र सरकार और राज्य सरकारें जमाखोरों और मुनाफाखोरों के आगे नतमस्तक हैं । आम लोगों में नौकरियां जाने और मंहगाई की दोहरी मार से गुस्सा है । यह गुस्सा लोगों को नक्सलवाद की ओर धकेल सकता है इससे चिदंबरम और उनका प्रभुवर्ग डरा हुआ है । नक्सलवादियों को तालिबानी टाइप के आतंकवादी के रुप में प्रचारित करने से उनके प्रति आम लोगों के झुकाव को रोका जा सकता है । तीसरा कारण यह है कि मध्यवर्ग आम तौर पर भावुक किस्म का देशभक्त होता है जिसके लिए देशभक्ति सीमा पर लड़ने और आतंकवाद के खिलाफ झंडा बुलंद करने तक सीमित होती है । नक्सलवाद के प्रति मध्यवर्ग के एक छोटे से हिस्से की सहानुभूति रही है । इसमें गांधीवादी, समाजवादी और विभिन्न आदर्शवादी विचारों से जुड़े वे लोग शामिल हैं जो देश के वंचित तबकों के मौजूदा हालातों में बुनियादी बदलाव लाने का सपना देखते हैं । मध्यवर्ग का यही हिस्सा है जो आदिवासियों और गरीबों के साथ पुलिस-प्रशासन,सरकार की ज्यादतियों को एक्सपोज कर देता है। इसलिए भी चिदबंरम चाहते हैं कि मध्यवर्ग में नक्सलियों की छवि देशद्रोही के रुप में स्थापित की जाय। ताकि इस वर्ग में नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाले सीमित रहें। यह इसलिए है कि भारत का भद्रलोक देश में विशाल मध्यवर्ग के उभार से चिंतित भी है। उसके लिए यह वर्ग तभी तक प्रिय है जब तक वह उसके उत्पादों को खरीदता रहता है लेकिन यह वर्ग जैसे ही विचारधारा और बुनियादी बदलाव की बात पर आता है तो भद्रलोक चौकन्ना हो जाता है । उसे अपनी रोजी-रोटी कि चक्कर में घनचक्कर बना विचारहीन मध्यवर्ग तो चाहिए लेकिन समाज के मौजूदा ढ़ांचे को सर के बल खड़ा करने वाला सरफिरे(!) विचार के साथ नहीं।
एक और कारण है जिसके चलते माओवादी चिदंबरम और उनके भारत को सबसे ज्यादा चुभ रहे हैं । भारत के झारखंड , छत्तीसगढ़ और उड़ीसा जैसे राज्यों के आदिवासी इलाके संयोग से खनिज संपदा के खजाने भी हैं । इन इलाकों पर सदियों से बाहरी लुटेरों की नजर रही है। इस दौड़ में मल्टीनेशनल कंपनियां भी शामिल हैं । इन इलाकों में माओवादियों के वर्चस्व के चलते सरकार चाहकर भी इन कंपनियों को जमीन से लेकर सुरक्षा तक जरुरी सुविधायें नहीं उपलब्ध करा पा रही है। हाल ही में स्टील किंग लक्ष्मी निवास मित्तल द्वारा फैक्टरी न लगाने की धमकी को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए । यदि आदिवासी इलाकों को मल्टीनेशनल की चारागाह के रुप में विकसित किया जाना है तब आदिवासी प्रतिरोध को जड़मूल नष्ट करना चिदंबरम के भारत की जरुरत है। यह भारत दरअसल कई खतरों से दो चार है। मजदूर आक्रामक हो रहे हैं और वे उद्योगों के आला अफसरों पर हमला कर रहे हैं । शहरी भारत गरीबी के महासागर से घिरा है । आर्थिक विषमता भयावह रुप से बढ़ रही है जिसके परिणामस्वरुप आम जीवन में हिंसा बढ़ रही है। मामूली विवाद भी हिंसक रुप ले रहे हैं । यह फुटकर और निजी किस्म हिंसा है जो कि सरकारी आर्थिक नीतियों की अप्रत्यक्ष हिंसा का काउंटर प्रोडक्ट है। यह सब उस भारत को संकटग्रस्त कर रहा है जो आर्थिक कुंठाओं की सुनामी के बीच एक टापू बनकर रह गया है ।
इसीलिए कारपोरेट न्यूज चैनलों से लेकर चिदंबरम तक इलीट भारत नक्सलवाद का ऐसा हौवा खड़ा कर रहा है जिससे भारत की एक फीसदी जनता भी प्रभावित नहीं है और जिससे भारत के दो प्रतिशत समृद्ध आबादी के अलावा किसी को खतरा नहीं है। जब जनता के नाम पर नक्सलियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई हो सकती है तो चिदंबरम और राज्यों की पुलिस कालाबाजारियों व जमाखोरों के खिलाफ उतना सख्त रुख क्यों नहीं अपनाती । जबकि ये लोग देशद्रोही और जनता के दुश्मन नं0 1 हैं । क्या हम ऐसे अभिजात्य लोकतंत्र में रह रहे हैं जिसमें देश के सर्वशक्तिमान दो प्रतिशत हिस्से के दुश्मनों के खिलाफ तो कार्रवाई होती है पर 98 फीसदी लोगों के शत्रुओं को जनद्रोह करने की आजादी है।
माओवादियों की हिंसा पर अनेक सवाल उठाए जा सकते हैं और उठाए जाते रहेंगे । शायद माओवादियों को भी भविष्य में इस सवाल से जूझना पड़े । जैसा विषम और अन्यायपूर्ण भारत मनमोहन, चिदंबरम और उनका प्रभुवर्ग बना रहा है उसमें हिंसक टकराव होते रहेंगे। सेना को नक्सलियों के मैदान में उतारने से सेना की छवि को तो नुकसान होगा ही साथ ही यह कदम आने वाले 25-30 सालों में गृहयुद्ध की पटकथा भी लिख देगा । चिदंबरम भारत को सीमित नागरिक आजादी वाला पुलिस राज्य बनाने की ओर चल पड़े हैं । पहला हमला आदिवासियों पर हो रहा है । यदि यह कामयाब रहा तो आदिवासी तीरकमान के साथ फिर कभी लड़ते नहीं दिखाई देंगे । चिदंबरम के भारत का आदिवासी उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र के मंच पर तीर कमान थामे तो दिखेगा पर बस्तर से लेकर संथाल और अबूझमाड़ की अपनी धरती पर हक के लिए तीर कमान के साथ नहीं बल्कि मजदूर के रुप में मल्टीनेशनल कंपनियों के अफसरों के सामने घुटने टेके दिखेगा । यदि यह हमारे सपनों का भारत है तो पाश के शब्दों को दोहराते हुए कहना चाहूंगा कि इस देश से मेरा नाम काट दो ।