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गुरुवार, 14 मई 2009

'लौट आए हैं 18वीं सदी के पिंडारी गिरोह'


इतिहास के प्रतीक अक्सर राजनीति में आकर हमें बताते रहते हैं कि समय की सदियों लंबी यात्रा में पात्र बदलते हैं, उनके चेहरे बदलते हैं, भाषाएं बदलती हैं, वेशभूषाएं बदलती हैं लेकिन सत्ता की अंतर्वस्तु नहीं बदलती है। यानी सत्ता की बुनियादी चीजें वही रहती हैं। परंतु राजनीति की विडंबना यह नहीं है कि उसमें इतिहास के पात्र या प्रतीक खुद को दोहराते हैं बल्कि हमारे समय की राजनीति की त्रासदी यह है कि उसके नायक इतिहास के अंधेरे कालखंडों के खलनायकों से अद्भुत समानता रखते हैं। ऐसे में यदि 18वीं सदी में मध्य भारत को थर्रा देने वाले पिंडारी ठगों के गिरोह इतिहास की किताबों में आराम करने के बजाय चुनाव में परगट होते लग रहे हैं तो इसका श्रेय लेखकीय कल्पनाओं के बजाय हमारे नेताओं को दिया जाना चाहिए क्योंकि उन्हीं के पुरूषार्थ से हम लोग इतिहास में दफन उन क्रूर पात्रों से रूबरू हो पा रहे हैं।
15वीं लोकसभा के चुनावों पर बात की शुरूआत इतिहास के सबसे खूंखार और कुख्यात ठग गिरोह से करना अजीब जरूर लग सकता है परंतु यह जिक्र अप्रासंगिक तो कतई नही है, यही भारतीय लोकतंत्र और राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना है। खूंखार ठग 18वीं सदी के दौरान उस समय अस्तित्व में आए जब मुगल साम्राज्य जमीन पर खत्म हो चुका था, उसकी सत्ता अपने कारिंदों और चापलूस दरबारियों तक सिमट कर रह गई थी। यह वह समय था जब ईस्ट इंडिया कंपनी के कंपनी बहादुर भारत में दाखिल हो कर इस देश पर काबिज होने की कोशिशों में जुट गए थे। लुंज पुंज केंद्रीय सत्ता के चलते पिंडारी गिरोहों की बर्बरता चरम पर थी।
यदि 18वीं सदी के पूर्वाद्ध के उस दौर और वर्तमान भारत की तुलना की जाए तो हमें कई आश्चर्यजनक समानताएं दिखाई देती हैं। अंबानियों, टाटा, मित्तलों जैसे कंपनी बहादुरों पर मुग्ध लोगों को यह तुलना नागवार गुजर सकती है, लेकिन 18वीं और २१ सदी के भारत में बहुत अंतर नहीं आया है। तब भी भारत की केंद्रीय सत्ता जर्जर हो चुकी थी आज भी केंद्रीय सत्ता जर्जर है। अंतर बस इतना है कि तब केंद्रीय सत्ता का प्रशासनिक और सैन्य वर्चस्व के साथ राजनीतिक व नैतिक बल भी लगभग खत्म हो चुका था तो वर्तमान में भारतीय केंद्रीय सत्ता की कार्यपालिका और न्यायपालिका तो कायम है परंतु उसका राजनीतिक व नैतिक वर्चस्व खत्म हो चुका है। एक भी दल या नेता ऐसा नहीं है जिसका नेतृत्व स्वीकार करने को देश की बहुसंख्य जनता तैयार हो। इसी जर्जर नेतृत्व का नतीजा है कि भारत की केंद्रीय सत्ता के भाग्य का फैसला तम भी क्षत्रप कर रहे थे अब भी क्षत्रप कर रहे हैं। गरीब भारत के प्रति जो उपेक्षा तब था वही आज भी है। जर्जर नेतृत्व का फायदा उठाकर तब भी कंपनी बहादुर भारत की आर्थिक एवं राजनीतिक सत्ता पर काबिज होने को मैदान में उतर चुके थे आज के कंपनी बहादुर भी इसी अभियान में जुटे हैं। अंतर बस इतना है कि तब सिर्फ एक ईस्ट इंडिया कंपनी थी आज कई देशी और विदेशी कंपनियां भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति पर काबिज हो रही हैं। यदि शासकों और शासितों के बीच की खाई तीन सदी बाद भी लगभग वही है तो इसे भारतीय लोकतंत्र और राजनीति की दरिद्रता न कहें तो क्या कहें?
अब 18वीं सदी के पिंडारियों के किस्से पर लौटें। पिंडारी कुख्यात ठग थे, जो भोले-भाले लोगों को लूटते और निर्ममतापूर्वक उनकी हत्या कर देते थे। 15वीं लोकसभा के चुनाव में जिन दलों व एलायंसों को पूरा देश देख रहा था वे पिंडारी ठगों की यादें ताजा कर रहे हैँ। इतिहास का यही एकमात्र ऐसा प्रतीक है जो देश में चल रही क्रूर राजनीतिक ठगी को पूरे तीखेपन के साथ बयान करता है। इसी पिंडारीपन की बानगी देखिए। जो नीतिश कुमार बिहार में मतदान से पहले नरेंद्र मोदी के खिलाफ ऐसे तेवर दिखा रहे थे मानो एनडीए में मोदी मार्का सांप्रदायिकता के खिलाफ वही अकेले सेकुलर योद्धा हों। उन्होंने बाकायदा ऐलान भी किया कि वह मोदी के साथ मंच साझा नहीं करेंगे। बिहार के मुस्लिम वोट बिदक न जाएं इसलिए नीतिश ने मोदी को बिहार में घुसने तक नहीं दिया। चुनाव प्रचार के मोर्चे पर दिग्विजय को निकलने भाजपा के सबसे बड़े स्टार प्रचारक मोदी को मन मसोस कर रहना पड़ा। लेकिन जैसे ही बिहार का चुनाव निपटा, नीतिश न केवल मोदी के बगलगीर हुए बल्कि दोनों ने एक-दूसरे का हाथ थामकर हवा में लहराया मानो मतदाताओं को चुनौती दे रहे हों। अब जिन मुस्लिमों या सेकुलर किस्म के मतदाताओं ने नीतिश के मोदी विरोधी तेवरों के झांसे में आकर उनकी पार्टी को वोट डाला होगा उन वोटरों के साथ की गई यह राजनीतिक ठगी क्या पिंडारियों की याद नहीं दिलाती! एक और बानगी अपने लालबुझक्कड़ वामपंथी साथियों की है। खुद को कांग्रेस-भाजपा का विकल्प बताने वाले कामरेड करात और वर्धन ने टीआरएस के साथ गठबंधन कर उस पर सेकुलर और प्रगतिशील होने का जो तमगा लगाया उस मैडल को उसने आंध्र प्रदेश में चुनाव निपटते ही एनडीए की रैली के दौरान मोदी और आडवाणी के चरणों में अर्पित कर दिया। पूरे देश ने देखा कि किस तरह कामरेड करात द्वारा प्रमाणित 'सेकूलर योद्धा' चंद्रशेखर राव ने दो-दो हिंदू हृदय सम्राटों के चरणों में गोता लगाकर वाम स्पर्श के दोष से मुक्ति पा ली। जो वोट वामपंथियों को मजबूत करने के लिए डाला गया था वह 'भगवा ब्रिगेडों' को सत्ता में लाने के काम आ रहा है। इन चुनावों में नास्तिक संसदीय कम्युनिस्टों की दो अराध्य देवियां रही हैं। एक उत्तर में मायावती और दूसरी सुदूर दक्षिण में जयललिता। कामरेडों की ये कुलदेवियां चुनाव के बाद किसे 'सत्तारूढ़ भव:' का वरदान देती हैं, यह करात और वर्धन जैसे सांसारिक प्राणी तो क्या दैव भी नहीं जानते। यदि तीसरे मोर्चे के घटकों की अवसरवादिता के कारण केंद्र में भगवा ब्रिगेडों की सरकार बन जाती है तो यह क्या उन वोटरों के साथ विश्वासघात नहीं होगा जिन्होंने वामपंथियों के कारण टीआरएस, बसपा, जयललिता, टीडीपी जैसे दलों को वोट दिया।
तीसरी बानगी कांग्रेस की है जो चुनाव में ममता बनर्जी के साथ मिलकर कम्युनिस्ट विरोधी वोट हड़पती है परंतु चुनाव के बाद उन्हीं वामपंथियों से हाथ मिलाने को तैयार बैठी है। यह क्या पश्चिम बंगाल और केरल के उन वोटरों के साथ ठगी नहीं है जिन्होंने कम्युनिस्ट विरोध के चलते कांग्रेस को वोट दिया। जाहिर है कि इस चुनावी समर में जो दल हैं वे दरअसल 18वीं सदी के पिंडारी गिरोहों का पुनर्जन्म है। इस चुनावी संग्राम में दक्षिण से लेकर ठेठ वाम तक जो योद्धा हैं उनके भीतर लार्ड विलियम बैंटिक के हाथों मारे गए पिंडारी सरदारों की अतृप्त आत्माएं जब-तब दिखाई देती हैं। हां, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वे आत्माएं 18वीं सदी के क्रूड फार्म में नहीं हैं उनके जेनेटिक कोड को 21वीं सदी के हिसाब से संशोधित व परिवर्द्धित कर दिया गया है।
कम वोटिंग को लेकर शाहरूख, आमिर समेत कई सेलेब्रिटीज इस बार खासी परेशान नजर आईं। न्यूज चैनलों ने उन्हें धर दबोचा और 'वोट दो- वोट दो' की दिहाड़ी पर लगा दिया। एनडीटीवी समेत कई न्यूज चैनलों द्वारा किए गए इस धुआंधार प्रचार से कई बार ऐसा लगा कि यदि इस बार वोट न दिया तो आने वाली केंद्र सरकार के गलत फैसलों के लिए अपन को दोषी ठहराया जा सकता हैपर जब पहले चरण में मतदान प्रतिशत लुढ़क गया तो अपनी जान में जान आई कि वोट न देने की हिमाकत करने वाले अपन कोई अकेले नहीं हैं।परंतु एनडीटीवी और अन्य न्यूज चैनलों को जब खुद ही यह पता नहीं है कि वे जिन दलों, प्रत्याशियों को ज्यादा वोटिंग का लाभ मिलने वाला है वे कहां जाएंगे, किसकी सरकार बनाएंगे, ऐसे राजनीतिक ठगों को वोट देने के लिए प्रेरित करने का क्या फायदा? बेहतर होता यदि ये चैनल जनता को प्रत्याशी खारिज करने और जनप्रतिनिधि वापस बुलाने का अधिकार दिए जाने की मुहिम छेड़ते। यह एक ऐसा रास्ता हो सकता है जो लोगों को इन उन्नत नस्ल के पिंडारी गिरोहों से मुक्ति दिलाए।

मंगलवार, 5 मई 2009

धधकता हिमालय और फारेस्ट के नीरो


हिमालय के जंगल धधक रहे हैं और उत्तराखंड के प्रमुख वन संरक्षक आरबीएस रावत को फुर्सत नहीं है। वह सुबह से शाम तक जंगल की आग पर आए दिन राजधानी में होने वाली बैठकों में व्यस्त हैं। जंगल की आग से लड़ते हुए सात लोगों की मौत और १५ लोगों के घायल होने के बाद चैन की बांसुरी बजा रहे वन विभाग के नीरों हरकत में आ गए हैं। वन विभाग की सक्रियता उम्मीद नहीं जगाती बल्कि निराश करती है। ग्रामीणों की मौत पर होने वाले विलाप के स्वर जैसे धीमे पडेंगे फारेस्ट डिपार्टमेंट में फिर चैन की बांसुरी बजने लगेगी। एक के बाद एक हिमालय जंगल स्वाह हो रहे हैं पर सरकार बैठक दर बैठक कर जंगल की आग पर काबू पा लेना चाहती है। राजधानी में वन विभाग के आला अफसर कागजों का पेट आंकड़ों से भर रहे हैं। सचिव से लेकर प्रमुख वन संरक्षक और क्षेत्रीय वन संरक्षकों तक के दफ्तरों में कंप्यूटर और फैक्स बिजी हो गए हैं। इधर जंगल में आग लगी हुई है उधर प्रदेश में आइएएस और आइएफएस सेवाओं के सबसे ज्यादा योग्य और प्रतिभावान बाबू एक के बाद एक रिपोर्ट तलब कर रहे हैं। ग्रामीणों की मौत से सहमी सरकार ने दस करोड़ रुपये की मदद की मांग कर जंगल की आग को केंद्र सरकार के पाले में सरका दिया है।
ऐसा नहीं है कि हिमालय के जंगलों में इसी वर्ष आग लगी हो लेकिन इस वर्ष अप्रैल के अंतिम व मई के प्रथम हफ्ते में लगी भीषण दावाग्नि में सात ग्रामीणों के जलने की घटना के बाद हर साल बढ़ रही आग की घटनाओं को एकाएक फोकस में ला दिया है। वन विभाग में व्याप्त लापरवाही की हद यह है कि जंगल में भीषण आग की चपेट में एक गांव के आने की भनक भी वन विभाग के कारिंदों को नहीं लगी। सिर्फ हरी टहनियों के बूते जंगल की भयावह आग से जूझने वाले ये ग्रामीण इस जंग में अकेले थे। पर्यावरण और वन प्रबंधन के नाम पर हर साल करोड़ों रुपए हजम करने वाला फारेस्ट का अमला मोर्चे से गायब था।

हिमालय के जंगलों की यह त्रासदी है कि जैसे-जैसे वन विभाग के अमले पर खर्च बढ़ता गया वैसे-वैसे ही आग से प्रभावित वन क्षेत्र भी बढ़ता रहा है। सन 2000-2001 में आग की चपेट में आने वाला वन क्षेत्र सिर्फ 925 हैक्टेयर था। राज्य बनने के इन नौ वर्षों में वन विभाग में प्रमुख वन संरक्षक रैंक के 14, वन संरक्षक रैंक के 27 और प्रभागीय वनाधिकारी स्तर के 87 अधिकारी तैनात हैं। विडंबना यह है कि जिन जंगलों की देखभाल के लिए अफसरों का यह भारी-भरकम अमला बनाया गया उन जंगलों में से 23000 हैक्टेयर जंगल इन नौ वर्षों में स्वाह हो गए। सन 2000-2001 के मुकाबले आग से प्रभावित होने वाला वन क्षेत्र औसतन तीन गुने से पांच गुने तक बढ़ गया है। केवल 20006-07 और 08-09 में ही यह औसत कम रहा है तो यह वन विभाग का नहीं बल्कि अप्रैल, मई और जून में होने वाली वर्षा का कमाल है। इस वर्ष भी अभी तक 2800 हैक्टेयर जंगल स्वाह हो चुका है। जाहिर है कि अफसरों का भारी-भरकम अमला जंगलों को बचाने में विफल साबित हुआ है क्योंकि आग से लड़ने के लिए विभाग के पास न तो जमीनी स्टाफ है और न जरुरी तैयारी ही। अब जंगल की आग का मुकाबला करने के लिए मानदेय पर सीजनल मजदूर रखे जाते हैं जो फील्ड पर कम और कागजों पर ज्यादा होते हैं। जंगल की आग पर काबू पाने के लिए विश्व स्तर पर अपनाए जाने वाली नई तकनीक अपनाना तो दूर वन विभाग ने फायर लाइन और कंट्रोल बर्निंग ब्रिटिशकालीन तकनीक भी छोड़ दी है।जंगल की आग को एक हिस्से में सीमित करने वाली इन फायर लाइनों की देखभाल न होने से वहां भी जंगल ऊग आए हैं। फलतः आग की घटनाएं और प्रभावित क्षेत्रफल दोनों में भारी वृद्धि हो रही है।

जंगल की आग लगने की घटनाओं में हो रही वृद्धि के कई कारण हैं। मानव निर्मित कारणों में सबसे पहला कारण यह है कि जंगलों से सबसे करीब रहने वाले और उन पर आश्रित समाजों को सरकार और वन विभाग ने सुनियोजित रुप से वन प्रबंधन और स्वामित्व दोनों से बेदखल कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट के 1994 गोडा वर्मन बनाम भारत सरकार मामले में दिए गए फैसले के बाद तो वनों के करीबी समाजों का वनों में पत्तियां बीनना तक अपराध हो गया। केंद्र और राज्य की सरकारें चाहती तो वनों पर आश्रित समाजों को वन प्रबंधन व स्वामित्व में भागीदार बना सकती थी। लेकिन वन विभाग खुद में इतने निहित स्वार्थों का गठबंधन बन चुका है कि वह जंगलों पर अपना एकाधिकार चाहता है। इससे स्थानीय लोगों का जंगलों के प्रति लगाव कम हुआ है और वे वनों की रक्षा के प्रति उदासीन हुए हैं। इसके बावजूद वे ही जंगल की आग का मुकाबला करने के लिए अग्रिम मोर्चे पर हैं। ग्रामीण भी बरसात में अच्छी घास पाने के लिए जंगलों में आग लगाते हैं, लेकिन यह अकेला कारण नहीं है। फर्जी वृक्षारोपण के सबूत मिटाने के लिए भी जंगल की आग का खेल खेला जाता है।

आग की घटनाओं के काबू से बाहर होने के लिए आदमी ही जिम्मेदार है। 19वीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में मिश्रित वनों के निर्मम सफाये के बाद वन विभाग ने चीड़ वनों के विस्तार की जो सुनियोजित मुहिम चलाई उसके चलते ही जंगल में आग अब हद से बाहर हो रही है। उत्तराखंड के जंगलों में चीड़ बडे भाई की तरह सबसे बड़े हिस्से पर काबिज है। वनों के व्यापारिक दोहन के १४० वर्ष के भीतर ही बांज-बुरांस के मिश्रित वन छोटे भाई की तरह कोने में सिमट जाने को मजबूर हो गए हैं। उत्तराखंड़ के ३९३०३६ हैक्टेयर में चीड़ का राज है। सेटेलाइट से प्राप्त चित्रों से जाहिर है कि आग उन्हीं इलाकों में अपना रोद्र रूप दिखा रही है जिनमें बड़े भाई चीड़ का राज है। यह इलाका ४ हजार से लेकर ६ हजार फीट तक फैला है। ऐसा चीड़ की सूखी पत्तियों के अति अधिक ज्वलनशील होने के कारण है। इसके अलावा चीड़ वनों में नमी का स्तर न्यूनतम होता है। नमी न होने से यह इलाका आग के प्रति ओर भी संवेदनशील हो जाता है। ग्लोबल वार्मिंग से पिछली एक सदी में तापमान में हुई बढ़ोत्तरी और अक्सर सूखा पड़ने से जंगल ज्यादा खुश्क हुए हैं तो चीड़ की पत्तियां तेजी से सूख रही हैं। पिछले ५० वर्षों में वनपोषित जलस्रोतों में से ५० फीसदी या तो सूख गए हैं या फिर उनके जल प्रवाह में ७० फीसदी तक की कमी आई है। इसने भी आग को हवा देने का काम किया है।
हिमालय के जंगल जिस तरह से धधक रहे हैं उससे अनिष्ट की आशंकाएं ही प्रबल हो रही हैं। आग से हिमालय के गर्म होने की प्रकिया तेज होगी जो ग्लेशियरों को गलाने की रफ्तार बढ़ा देगा। रहे-सहे वनपोषित जल स्रोत सूखेंगे और यह गंगा के मैदान के मरूस्थल में बदलने की शुरूआत होगी। आग से नष्ट मिश्रित वनों का स्थान चीड़ वन ले लेंगे और फिर जंगल की आग सुरसा के मुंह की तरह हिमालय के ऊपरी हिस्से तक पहुंच जाएगी। आने वाली पीढियां बांज-बुरांस के जंगलों को इंटरनेट की फोटो गैलरियों में ही देख सकेगी। हमारी मूर्खताओं का कुल गुणनफल प्रकृति के इन सबसे खूबसूरत जंगलों को लील लेगा। धधकते जंगल बता रहे हैं कि हिमालय संकट में है। जलते हुए पेड़ों की इस चेतावनी को गौर से सुना जाना चाहिए।